November 24, 2024



हिमालय एंड द गंगा

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अरुण कुकसाल


अब कहां वो ‘तिक्खी मिर्च अर तगड़ बल्द’ विख्यात साहित्यकार स्वर्गीय विद्यासागर नौटियाल ने हिमालय और उसके निवासियों पर प्रकाशित बेहतरीन किताबों में


‘People and Legends of Himalaya and the Ganga’ को शामिल किया है। इस बात की पुष्टि में तथ्य यह भी कि वर्ष 2007 में ‘Kalpaz Publication, Delhi’ से प्रकाशित यह किताब हिमालयी साहित्य के पंसदीदा पाठकों के मध्य अग्रणी रैंकिग में सराही गयी है। इस किताब के लेखक देहरादून निवासी आदरणीय मथुरा प्रसाद कुकसाल जी की उम्र इस समय 97 वर्ष (1 अक्टूबर को वे 98 वर्ष में प्रवेश करेंगे) है। और वे पूर्णतः स्वस्थ रहकर बिना चश्मा पहने रोजाना ज्यादातर समय अध्ययन एवं लेखन में तल्लीन रहते हैं। मथुरा प्रसाद कुकसाल जी वर्ष 1954 में उत्तर प्रदेश में प्रथम बार चयनित ‘खंड विकास अधिकारियों’ में शामिल रहे हैं। उत्तराखण्ड में सल्ट, जोशीमठ और भटवाड़ी ब्लाक को स्थापित एवं शुरुवाती संचालन का श्रेय उन्हीं को है। जीवन में अध्ययन, फोटोग्राफी, लेखन एवं भ्रमण की अभिरूचि ने उनको सरकारी योजनाओं एवं कार्यों को और बेहतर करने में मदद की है। यह किताब उनके स्कूली जीवन से लेकर नौकरी से अवकाश लेने तक इधर-उधर लिखे अपनी डायरी के पन्नों का क्रमबद्ध एवं सम्पादित प्रस्तुतीकरण है।


किताब 29 उपशीर्षकों में संस्मराणात्मक शैली में है। पुस्तक के शुरुवाती पन्ने हिमालय के अंर्तमन में आत्मसात आध्यात्मिकता, पौराणिकता और उसके निवासियों की जीवटता पर हैं। लेखक के घुम्मकड़ी स्वभाव में दर्ज हिमालय की प्रकृत्ति और प्रवृत्ति का संक्षिप्त विश्लेषणात्मक विवरण एक विशिष्ट नजरिये का आभास देता है। लेखक के नैनीताल के स्कूली दिनों से लेकर इलाहबाद में वकालात पास करने तक के संस्मरण बीते युग की सहजता और बेचारगी दोनों से परिचित कराते है। चैतराम शाह ठुलघरिया हाईस्कूल, नैनीताल से वर्ष 1938 में प्रथम श्रेणी (गणित और संस्कृत में विशेष योग्यता) में हाईस्कूल के उपरान्त भी सैंट जोजेफ कालेज, नैनीताल में इसलिए प्रवेश नहीं मिला क्योंकि वे भारतीय थे। अंग्रेज प्रधानाध्यापक ने कहा कि ‘तुम जैसे प्रतिभावान छात्र को प्रवेश देने में मुझे खुशी होगी, परन्तु इस कालेज के अंग्रेज लड़के तुम्हारे इंडियन होने के कारण तुम्हें इतना परेशान करेंगे कि तुम ठीक से पढ़ नहीं पाओगे’। देश की गुलामी का यह एक दृष्टांत मात्र है। यह किताब 30 के दशक के नैनीताल और उसके ग्रामीण इलाकों में पहाड़ी लोगों और विशेषकर बच्चों की दुनिया की सैर कराती है। पहाड़ी बच्चों और अंग्रेज लोगों की तीखी नोक-झोंक के कई किस्से इसमें है। आगे की पढ़ाई के लिए लेखक का इलाहबाद में कई साल रहना हुआ। तब के गढ़वाल-कुमाऊं से पढ़ने गए लड़कों का ‘इलाहबादी उत्तराखण्ड’ पुस्तक में जीवन्तता से दिखाई देता है। चालीस के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन में इलाहबाद और मुख्यतया इलाहबाद विश्वविद्यालय के आंदोलनों की पड़ताल भी इसमें है।

किताब के चौथे अध्याय ‘Early Years of Community Development’ से बात पते की आरम्भ होती है। स्वतंत्रता के बाद देश के अन्य राज्यों की भांति उत्तर प्रदेश में सरकारी तौर पर सामुदायिक विकास कार्यक्रमों का श्रीगणेश वर्ष 1954 से हुआ। कुकसाल जी जनवरी, 1955 में अल्मोड़ा जनपद के सल्ट ब्लाक के प्रथम ‘खंड विकास अधिकारी’ बने। अपने कार्यकाल के दौरान सल्ट क्षेत्र की जिन मौलिक विशिष्टताओं और समस्याओं का जिक्र उन्होने किया है, आज 52 साल बाद भी लगता है सल्ट क्षेत्र आज भी वहीं के वहीं निश्चेत खड़ा है। पानी, शिक्षा, सड़क स्वास्थ, रोजगार आज भी वहां की प्रमुख समस्यायें हैं, ये मुद्दे तब भी ऐसे ही रहे होगें। हां, सल्टिया पहचान ‘तिक्खी मिर्च अर तगड़ बल्द’ मेें फीकापन जरूर आ गया है। खेती-किसानी चौपट हुयी तो पहचान का संकट आना स्वाभाविक था। किताब में सल्ट संस्कृति के माध्यम से तब के पहाड़ी जन-जीवन के सीधेपन, कर्तव्यपरायणता और ईमानदारी के कई प्रसंग हें। उसमें एक प्रसंग काफी मजेदार है। तब पूरे स्टाफ के वेतन लाने के लिए प्रत्येक महीने कैशियर को खुमाड़ से अल्मोड़ा जाना होता था। अल्मोड़ा जाने-आने में 4 दिन लगते थे। एक बार वेतन के कलदार याने रुपए-पैसों से भरे बैग को कैशियर रास्ते में कहीं भूल गया था। ढूंड-खोज आरम्भ हुयी तो ‘मोहान’ नामक जगह पर किसी ने बताया कि आज से 5 दिन पहले एक बैग उसे बैंच पर मिला था जिसे उसने नजदीकी मकान के बाहर की खूंटी पर लटका दिया था, ताकि जिसका होगा वह ले जायेगा। कैशियर तुरन्त उस व्यक्ति के साथ निर्धारित स्थल पर पहुंचे जहां वह बैग पूरी धनराशि के साथ सही-सलामत उसी खूंटी पर शान से लटका मिला था। 


यह किताब देश के स्वाधीन होने के बाद के वर्षों में गढ़वाल-कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्र में विकास कार्यक्रमों के शुरुवाती प्रयासों को उद्घाटित करती है। जोशीमठ ब्लाक जिसे पर्णखंडा क्षेत्र कहा जाता है के सीमावर्ती गांव माणा, नीति, मलारी, बडाहोती, उर्गम, बद्रीनाथ, द्रौणागिरि, कल्पेश्वर, राईं-चाईं, टंगडी, पाण्डुकेश्वर और भटवाडी ब्लाक के गंगोत्री, हर्सिल, सुक्खी, झाला, मुखवा आदि अनेकों गांवों में लेखक के विविध अनुभवों ने किताब को रोचक एवं शोधपूर्ण कलेवर प्रदान किया है। पहाड़ में लकड़ी के बहुचर्चित कारोबारी ‘हर्सिल के विल्सन’ पर ‘The Legendary Wilson’ अध्याय में कई विशिष्ट एवं चर्चित जानकारियां हैं। गंगा की महत्वा और उसकी महिमा पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण का जिक्र इस किताब में जगह-जगह पर आया है। ‘The legends of Ganga’ अध्याय लेखक की भारतीय दर्शन एवं विज्ञान पर गहरी समझ को इंगित करता है। कुकसाल एक अच्छे फोटोग्राफर एवं कवि भी हैं। जिसके प्रभाव ने किताब को और भी प्रभावशाली स्वरूप प्रदान किया है।

आज किसी अधिकारी का पहाड़ में कुछ किमी. पैदल चलना ही बड़ी खबर बन जाती है। जबकि 50-60 साल पहले इन्हीं पहाड़ों में एम. पी. कुकसाल जी जैसे अनेकों अधिकारियों ने तो जीवन प्रर्यन्त सामान्यतया बीसों मील रोज पैदल चल कर विकास की अलख जगाने का काम किया था। वे सब ग्रामीण जन-जीवन में विकास के प्रथम वाहक ही नहीं वरन वे खुद भी वैसा ही जीवन जीते थे। आज पहाड़ी गांवों में जो भी मजबूती है तो वह पचास साल पहले के सरकारी अथवा गैरसरकारी कार्यों की वजह से ही है। क्योंकि तब सब जगह जीवन में कर्मठता और ईमानदारी का बोलबाला था न कि आज की तरह अर्कमण्यता और बेईमानी की ताजपोशी और वाह-वाही। यह किताब इन संदर्भों में भी उल्लेखनीय है कि हिमालय एवं गंगा की पौराणिकता और उसके मौलिक समाज में मौजूद सदभाव को व्यापक फलक देकर पाठकों को सुख और सकून प्रदान करती है।




संपादक – आशा करते हैं कि यह पुस्तक पाठकों तक पहुचे.