November 23, 2024



एक घुमक्कड़ की गौरव गाथा

Spread the love

डा. अरुण कुकसाल


दुनिया ने माना हमने भुलाया, पंडित नैन सिंह रावत (21 अक्टूबर, 1830-1 फरवरी, 1895). 19 वीं सदी का महान घुमक्कड़-अन्वेषक-सर्वेक्षक पण्डित नैन सिंह रावत (सन् 1830-1895) आज भी ‘‘सैकड़ों पहाड़ी, पठारी तथा रेगिस्तानी स्थानों, दर्रों, झीलों, नदियों, मठों के आसपास खड़ा मिलता है। लन्दन की रायल ज्याग्रेफिकल सोसायटी, स्टाकहोम के स्वेन हैडिन फाउण्डेशन, लन्दन की इण्डिया आफिस लाइब्रेरी, कलकत्ता के राष्ट्रीय पुस्तकालय, दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार, देहरादून के सर्वे ऑफ इण्डिया के दफ्तरों में नैन सिंह, अन्य पण्डितों, मुन्शियों तथा उनके तमाम गौरांग साहबों को अर्से से शोधार्थी अभिलेखों में विराजमान देखते रहे हैं।’’(एशिया की पीठ पर, पण्डित नैन सिंह रावत, पृष्ठ-21)

पण्डित नैन सिंह रावत का जन्म उत्तराखंड में जोहार इलाके के गोरी नदी पार भटकुड़ा गांव में 21 अक्टूबर, 1830 को हुआ था। उनका पैतृक गांव मिलम था। उस दौरान भटकुड़ा में उनके पिता (अमर सिंह) मिलम गांव से बाहर बहिष्कृत जीवन व्यतीत कर रहे थे। सन् 1848 में नैन सिंह का परिवार पुनः अपने गांव मिलम आकर रहने लगा। अपने पिता के साथ वे बचपन में तिब्बत गए थे। प्रारंभिक शिक्षा से वंचित नैन सिंह घुमक्कड़ी, जिज्ञासू, सूझबूझ और साहसी स्वभाव के थे। व्यापारिक पृष्ठभूमि होने के कारण हिन्दी, फारसी और तिब्बती भाषा बोलने के वे बचपन से अभ्यस्त थे। वर्ष 1856 में जर्मन के स्लागेन्टवाइट भाईयों की सर्वेक्षण टीम का अहम हिस्सा बन कर उन्होने अपनी नैसर्गिक प्रतिभा का शुरुआती परिचय दिया था। नैन सिंह की निपुणता से प्रभावित होकर सर्वेक्षण के उपरान्त रिर्पोट लेखन में अकादमिक सहयोग हेतु 100 रुपये मासिक वेतन पर उनसे इग्लैंड जाने के लिए कहा गया। परन्तु पारिवारिक दबाव के कारण नैन सिंह इंग्लैंड न जाकर मई, 1858 में अपने गांव मिलम के 15 रुपये मासिक वेतन पर प्रथम सरकारी अध्यापक नियुक्त हो गए। शिक्षा विभाग की नौकरी में रहते हुए धारचूला और गरब्यांग गांव की पाठशालाओं के भी वे प्रथम अघ्यापक रहे।


घुमक्कड़ी और अन्वेषण की अभिरुचि-निपुणता के फलस्वरूप जनवरी, 1863 में नैनसिंह को ट्रांस-हिमालयन एक्सप्लोरर के रूप में 40 रुपये मासिक वेतन पर सर्वे विभाग, देहरादून के लिए चयनित किया गया। सर्वेयर सम्बधित कठिन प्रशिक्षण के उपरांत मार्च, 1864 से मार्च 1875 तक उन्होने ग्रेट ट्रिगनोमेट्रिकल सर्वे में बेमिसाल योगदान दिया। इन ग्यारह वर्षों में घुमक्कड़-अन्वेषक-सर्वेक्षक के रूप में उन्होने मध्य एशिया और तिब्बत के बारे में वैज्ञानिक, पारिस्थितकीय, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक मौलिक तथ्य उजागर किए। उनके इस कार्य को तब विश्व भर में सराहा गया।


पण्डित नैन सिंह रावत के तिब्बत सर्वेक्षण यात्राओं में प्रशंसनीय योगदान को पुरस्कृत करते हुए रायल ज्योग्रैफिकल सोसायटी, लंदन के औनर्स बोर्ड पर पंडित नैन सिंह रावत को मिले ‘अभिभावक स्वर्ण पदक’ का उल्लेख किया गया है। आज भी यह सर्वेक्षण के क्षेत्र में भारत मूल के व्यक्ति को दिए जाने वाला सर्वोच्च और एकमात्र अवार्ड है। उन्हें ब्रिट्रिश सरकार का ‘कम्पेनियन ऑफ इंडियन एम्पायर’ भी दिया गया। भारतीय डाक विभाग ने 27 जून, 2004 को नैन सिंह पर डाक टिकट निकाला था। महत्वपूर्ण यह भी है कि 21 अक्टूबर, 2017 को गूगल ने महान घुमक्कड़-अन्वेषक पंडित नैनसिंह रावत के 187वें जन्मदिन पर डूडल जारी किया था। पंडित नैन सिंह रावत की यात्राएं मात्र घुमक्क्ड़ी नहीं थी। वरन वे उससे बढ़कर तिब्बत की ओर प्रथम प्रामाणिक अन्वेषण यात्राएं थी। प्रसिद्ध लेखक डा. रामसिंह ने नैनसिंह को ‘आधुनिक वामनावतार’ की उपाधि दी है। जैसे विष्णु भगवान ने वामनावतार के रूप में पूरी धरती नाप ली थी, वैसे ही नैन सिंह ने संपूर्ण हिमालय को जीवन-भर अपने लाखों कदमों और घोड़ों की टापों से नापा था। इस महान घुमक्कड़-अन्वेषक का निधन 1 फरवरी, 1895 को दिल का दौरा पड़ने से हो गया।

‘‘नैन सिंह को शिक्षक-प्रशिक्षक, सर्वेक्षक तथा अन्वेषक के साथ एक प्रारम्भिक विज्ञान लेखक तथा यात्रा साहित्यकार के रूप में देखने का हमारा आग्रह स्वाभाविक है। पर वह इतना ही नहीं था। एक पशुचारक-घुमक्कड़ समाज का यह बेटा अनेक गर्दिशों के बाद ही सर्वेक्षण की इस नई दुनिया में आया था। लेकिन उसकी मेहनत तथा समर्पण उसे उन ऊंचाइयों तक ले गया, जहां कोई और उस युग में अथवा बाद में भी नहीं जा सका। किशन सिंह को अपवाद कहा जा सकता है और नैन सिंह का विस्तार भी। औपनिवेशिक सत्ता तथा साम्राज्यवादी विशेषज्ञ भी उसे मान्यता देने को उत्सुक रहे। पर नैन सिंह के जीवन तथा साहित्य को सामने लाने का काम औपनिवेशिक शासकों या विशेषज्ञों के ऐजेण्डे में नहीं था। नैन सिंह उनके लिए सम्पूर्ण नायक तो हो नहीं सकता था पर वे नैन सिंह को पूरी तरह हाशिये में भी नहीं डाल सकते थे।’’ (एशिया की पीठ पर, पण्डित नैन सिंह रावत, पृष्ठ-23)


पंण्डित नैन सिंह रावत की हिमालयी यात्रायें

नैन सिंह ने अपने जीवन में आठ विकट यात्रायें की जिसमें पहली यात्रा पारिवारिक और दूसरी यात्रा व्यापारिक दृष्टि से की गई थी। उसके बाद की 6 यात्राओं के केन्द्र में तिब्बत रहा है। इस संदर्भ में यह जानना जरूरी है कि एकान्तवासी तिब्बतियों ने विदेशी हस्तक्षेप को कभी पंसद नहीं किया। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक वहां जाने वाले विदेशी (प्रमुखतया यूरोपियन और नेपाली) घुमक्कड़ों और अन्वेषकों की हत्या तक कर दी गई थी। उक्त तथ्य के दूसरी तरफ उत्तराखंड और तिब्बत के पौराणिक काल से रोजी-बेटी के संबंध रहे हैं। जोहार क्षेत्र की शौका पौराणिक गाथा ‘’काक पुराण’ के अनुसार प्राचीन काल में यहां के ‘च्यरका ह्या’ राज परिवार का बालक अपहरण कर तिब्बत ले जाया गया, जिसका सांगपो नामकरण किया गया। सांगपो छोटे-छोटे सांमतों में विभाजित क्षेत्रों को एक प्रशासनिक सूत्र में शामिल करके तिब्बत का पहला राजा बना।” इन्ही संबधों के आधार पर उत्तराखंड के पांच दर्रों (भारत में सीमान्त क्षेत्र के व्यापारिक रास्तों को ‘दर्रे’ और तिब्बत में ‘ला’ का संबोधन है।) यथा- मिलम एवं गुंजी (पिथौरागढ़), नीती एवं माणा (चमोली गढ़वाल) और नेलंग (उत्तरकाशी) से स्थानीय सीमान्तवासी व्यापार और तीर्थयात्रा के लिए तिब्बत आया-जाया करते थे। लेकिन उन पर भी तिब्बत में कड़ी नज़र रखी जाती थी।




उत्तराखंड से चावल, गेहूं, जौ, दाल, चीनी, मेवे, गुड, चाय, किसमिस, चमड़े का सामान, तम्बाकू, सूती कपड़ा, बर्तन, घंटियां और तिब्बत से नमक, ऊन, घी, मख्खन, छुरबी (सुखाया पनीर), सुहागा, स्वर्ण, स्वर्ण भस्म, कीमती पत्थर, चंवर गाय की पूंछ आदि का वस्तु-विनिमय भेड़-बकरियों और खच्चर-घोड़ों के द्वारा किया जाता था। (ज्ञातत्व है कि उस दौर में उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में सड़क न होने के कारण समुद्री नमक के बजाय तिब्बत की चट्टानी खदानों से निकलने वाला नमक प्रयुक्त होता था।)

उन्नीसवी सदी के प्रारंभ से ही अंग्रेजों ने तिब्बत में प्रवेश के कई प्रयत्न किए। परन्तु फिरंगियों के तिब्बत में प्रवेश पर सख्त पाबंदी होने के कारण उन्हें अधिकांशतया असफल होना पड़ा। अतः यूरोपियन अन्वेषकों ने तिब्बत सर्वेक्षणों के लिए तिब्बतीय नाक-नक्ष, जीवन-शैली, भाषा और संस्कृति की साम्यता-समझ रखने वाले जोहार इलाके के लोगों को चुना। इन कार्यों में घुमक्कड़ नैन सिंह रावत के पूर्वज धामू बुढ़ा (धाम सिंह रावत) के वंशजों का हिमालयी एवं हिमालय पार के सर्वेक्षणों में सर्वाधिक योगदान रहा। ‘‘यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि धाम सिंह रावत के परिवार के सदस्यों द्वारा भोगोलिक – सर्वेक्षणों में जो मौलिक योगदान दिया गया है वह विज्ञान के इतिहास में किसी एक परिवार द्वारा न तो पहले कभी दिया गया है और न ही उनके भविष्य में दिये जाने की सम्भावना ही दीख पड़ती है।’’(धामू बुढ़ा के वंशज- डॉ. आर. एस. टोलिया, पृष्ठ-4)

पहली यात्रा- मिलम से बद्रीनाथ-माणा गांव (सन् 1851-1854)

नैन सिंह की पहली यात्रा पारिवारिक थी। वे जुलाई, 1851 में मिलम, मुनस्यारी, दानपुर, बधाण, जोशीमठ, बद्रीनाथ से माणा गांव आये और 3 वर्ष यहीं रहे। यहीं उन्होने अपना विवाह किया। मार्च, 1854 में वे अपनी पत्नी के साथ वापस मिलम गांव आ गए।

दूसरी यात्रा- मिलम से चम्बा, हिमाचल प्रदेश (सन् 1854)

माणा से अपने गांव मिलम आने के कुछ ही दिन बाद वे व्यापारिक यात्रा के लिए निकल पड़े। टिहरी, मसूरी, शिमला, बिलासपुर, ज्वालामुखी, कांगडा, चम्बा तक की उन्होने यात्रा की थी। इस यात्रा में उनके 300 से अधिक जानवर बीमारी से मरे, इस कारण लुटी-पिटी हालत में उनकी घर वापसी हो पाई। पुनः हिम्मत करके व्यापार करने की मंशा से वे रामनगर पहुंचे। यहां उनको मालूम चला कि लद्दाक और तुर्कीस्तान में वैज्ञानिक सर्वे के लिए स्थानीय लोगों को शामिल किया जा रहा है। नैन सिंह के मन-मस्तिष्क में विराजमान घुमक्कड़ी के भाव ने जोर मारा और वे तुरंत स्लागेन्टवाइट बंधुओं की सर्वेक्षण टीम में 35 रुपये प्रतिमाह वेतन पर बतौर दुभाषिये शामिल हो गए।

तीसरी यात्रा- मिलम से लेह (सन् 1856-57)

जर्मन के स्लागेन्टवाइट भाईयों ने सन् 1854-58 में संपूर्ण भारतवर्ष, तिब्बत, अफगानिस्तान का चुम्बकीय सर्वेक्षण कार्य किया था। इस सर्वेक्षण मे कुमांऊ, लद्दाख, तुर्किस्तान और तिब्बत क्षेत्र में जोहार इलाके के देव सिंह, नैन सिंह, मानी सिंह (हिमालयी सर्वेक्षण कार्य में उत्त्कृष्ट योगदान के कारण ‘मानी कम्पासी’ के नाम से लोकप्रिय हुए।) दोलपा पांगती और कल्याण सिंह ने भाग लिया था। नैन सिंह की अपने साथियों के साथ फरवरी, 1856 में मिलम गांव से उनकी यह सर्वेक्षण यात्रा प्रारम्भ हुई। ‘‘मिलम, तेजम, अल्मोड़ा, हल्द्वानी, हरिद्वार, देहरादून, नहान होकर वे शिमला में स्लागेन्टवाइट भाइयों के पास पहुंचे। तेजम से शिमला की यह दूरी लगभग 450 मील की थी और इसमें उन्हें 40 दिन लगे थे।’’ (एशिया की पीठ पर, पण्डित नैन सिंह रावत, पृष्ठ-94)

शिमला से सर्वेयर राबर्ट के साथ नैन सिंह कुल्लू, लाहौल, बारा लाचा पहाड, स्योक, लेह के बाद कश्मीर के रास्ते रावलपिंडी पहुंचे। वापस अपने गांव आने के बाद इस यात्रा के किस्से समकालीन जोहारी समाज में इतने लोकप्रिय हुये कि ढुसकों (लोकगीतों) में जगह-जगह गाये जाने लगे थे।

चूक की चुकम मानी, चूक की चुकम हो,

तली बटी यैगे मानी, ढुल सैप हुकुम हो।।

घोड़ी का बखरिया भुला, घोड़ी का बखरिया हो।

तू करे पटवारी कार, नैन सिंह ढ़करिया हो।।

सात ज्याड़ा गोल फाटी, लदाख नी पुजी हो।

ओ मानी कम्पासी मानी, लदाख नी पुजी हो।।

चौथी यात्रा- मिलम से काठमाण्डू-ल्हासा-मानसरोवर (सन् 1865-66)

‘इस यात्रा का मार्ग 10 से 16 हजार फीट के बीच तक की ऊंचाई के क्षेत्रों से होकर जाता था। इस अभियान में नैन सिंह ने कुल 1200 मील की यात्रा सम्पन्न की और लगभग 25 लाख कदम (ढाई मिलियन) नापे। नैन सिंह का एक कदम 31 इन्च का था। और एक मील में वह 2000 कदम चलता था। लगातार 18 माह तक वह इस अभियान में उपस्थित रहा। सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि इस अभियान का बड़ा हिस्सा जाड़ों में सम्पन्न किया गया था।’’ (एशिया की पीठ पर, पण्डित नैन सिंह रावत, पृष्ठ-111)

ईस्ट इंडिया कम्पनी के ग्रेट ट्रिगनोमेट्रिकल इस सर्वे के तहत अग्रेंज सर्वेयर माण्टगोमरी के दिशा-निर्देशों में नैन सिंह ने मिलम से मानसरोवर होकर ल्हासा तक का नक्शा, विभिन्न स्थानों का तापमान, अक्षांश-देशान्तर, समुद्रतल से ऊंचाई, ब्रहृमपुत्र नदी (त्साङ पो) के 600 मील के रास्ते का सर्वेक्षण तथा सजीव संपूर्ण यात्रा वृतांत लिखने में कामयाबी हासिल की थी।

नैन सिंह ने इस पूरी यात्रा को परिस्थिति अनुसार छदम वेश में व्यापारी, नौकर और बौद्ध भिक्षु बन कर पूरी की थी। कई बार वे संदेह के घेरे में आये और पकड़े भी गये। परन्तु अपनी वाक-चातुर्यता के कारण उन्होने इन जोखिमों पर विजय पाई थी। नैन सिंह की इस शानदार और उपयोगी यात्रा के सम्मान में रायल ज्याग्रेफिकल सोसायटी, लंदन ने उन्हें 24 मई, 1868 में एक सोने की घड़ी उपहार में प्रदान की थी।

पांचवी यात्रा- मिलम-सतलज-सिंधु का उदगम और ठोक जालुंग (सन् 1867)

‘‘इस अभियान के अनेक लक्ष्य थे। ल्हासा तथा गोबी के मरुस्थल के बीच के अज्ञात भूगोल की जानकारी लेना, सिंधु तथा सतलज नदियों के जलागमों की ज्यादा विस्तृत पड़ताल करना, गरतोक के पूर्व की ओर स्थित सोने, नमक तथा सुहागे की खानों का ज्यादा विस्तृत सर्वेक्षण करना आदि तो मुख्य थे ही, इस क्षेत्र के व्यापारिक तथा सामरिक महत्व की पड़ताल करना भी इसके लक्ष्यों में था। दरअसल यह वह क्षेत्र था जहां तीन साम्रज्यों की सीमायें ही नहीं मिलती थी बल्कि उनके तमाम स्वार्थ भी टकराते थे।’’ (एशिया की पीठ पर, पण्डित नैन सिंह रावत, पृष्ठ-113)

अक्षांश दर्पण

इस अभियान को पूरा करने के बाद नैन सिंह ने अपने यात्रा संस्मरणों और अनुभवों के आधार पर नक्षत्र विज्ञान पर केन्द्रित पुस्तिका ‘अक्षांश दर्पण’ तैयार की थी। यह पुस्तिका सन् 1871 में प्रकाशित हुई थी। पंडित नैन सिंह रावत की ‘अक्षांश दर्पण’ हिन्दी में लिखी प्रारंभिक पुस्तिका कही जा सकती है।

छठी यात्रा- मिलम-यारकंद-काशगर मिशन-1 (सन् 1870)

तिब्बत के ठोक जालुंग की यात्रा के बाद नैन सिंह एक ख्याति प्राप्त अन्वेषक-सर्वेक्षक और यात्रा लेखक बन चुके थे। परन्तु लगातार 3 साल तक पैदल दुर्गम यात्रा अभियानों में रहने के कारण ये समझा गया कि उन्हें आराम दिया जाय। इसलिए उन्हें नये प्रशिक्षकों का प्रशिक्षक बनाया गया। साथ ही उन्हें सन् 1870 में यारकंद मिशन से जोड़ा गया। परन्तु विषम परिस्थितियों के कारण इस यात्रा मिशन में नैन सिंह मिलम से लेह तक ही शामिल हो पाये थे।

सातवीं यात्रा- मिलम-शिमला-लेह-यारकंद-काशगर मिशन-2 (सन् 1873)

इस यात्रा मिशन में नैन सिंह और उनके साथी नुबरा घाटी, काराकोरम दर्रा, शाहदुल्ला, संजू से होते हुए यारकंद पहुंचे। यहां पर 5 महीने गुप्त वेश में रहकर उन्होने सर्वेक्षण और वहां के रहन-सहन और शासन व्यवस्था के तौर-तरीकों को लिपिबद्ध करने का कार्य किया था। इस पूरे यात्रा में डाकुओं का डर रहता था। अतः नैन सिंह कई मील दूर तक पहले किसी प्रतिनिधि को भेजते वो फिर वापस आकर खबर देता और खतरा न होने पर ही वे सर्वेक्षण करते हुए आगे बढ़ते थे। यारकंद की यह यात्रा तिब्बत की पिछली यात्रा से ज्यादा कष्टदाई थी। अपने साथी कल्याण सिंह और जसमल के साथ कई खतरनाक स्थितियों का उन्होने सामना किया था। इस यात्रा में उन्होने चीनी, तुर्किस्तान, यारकंद, खोतान, अक्सू तक का व्यापक सर्वे कार्य किया। भारत से तुर्किस्तान जाने का एक नया मार्ग भी उनके द्वारा खोजा गया था।

आठवीं यात्रा -मिलम-लेह-ल्हासा-तवांग, आसाम (सन् 1874-75)

‘‘यारकंद -काशगर से वे लौटे ही थे कि नैन सिंह को उसके जीवन की महानतम यात्रा में भेजे जाने का निर्णय लिया गया। यह उसकी अन्तिम अन्वेषण यात्रा भी थी। लेह से ल्हासा और वहां से उदलगढ़ी तथा गुवाहटी होकर कलकत्ता तक की यह यात्रा एक प्रकार से एशिया की पीठ पर चलने जैसा था।15 जुलाई 1874 को लेह से यह यात्रा आरम्भ हुई। चाग्रा नामक स्थान में रात के अंधेरे में पण्डित नैन सिंह और उसके साथियों ने लामाओं के वस्त्र धारण किये। पहली ल्हासा यात्रा की तरह ही इस यात्रा में भी वह तथा अन्य कुछ साथी बौद्धों के प्रार्थना चक्र को हाथ में घुमाते, ‘ओम मणि पद्मे हुम’ को उच्चारित करते हुए कदम गिनते थे। माला में 108 के स्थान पर 100 दाने थे और हर दसवां बड़ा दाना था। 100 कदम पर माला के 100 दानों का चक्र पूरा हो जाता था। तिब्बत के इस अपरिचित इलाके में यह उसकी ही नहीं किसी भी सर्वेक्षक की पहली अध्ययन यात्रा थी।’’

(एशिया की पीठ पर, पण्डित नैन सिंह रावत, पृष्ठ-131). लगभग 9 माह तक की इस यात्रा की अन्य कई महत्वपूर्ण उपलब्धियों में ब्रहृमपुत्र नदी के उत्तर में स्थित एक पर्वत श्रृखंला की खोज की गई थी, जिसे बाद में ‘नैन सिंह रैंज’ का नाम दिया गया। साथ ही ब्रहृमपुत्र नदी के उदगम श्रोत्र के 50 मील तक के क्षेत्र और ल्हासा से तवांग होकर असम आने-जाने का नया मार्ग नैन सिंह ने खोज निकाला था।

यात्रा डायरी

नैन सिंह अपनी वैज्ञानिक चेतना के बलबूते पर अन्वेषक और सर्वेक्षक के रूप में विश्व प्रसिद्ध हुए। इससे इतर एक यात्रा लेखक रूप में उनकी डायरियों ने हिमालयी नैसर्गिक सुन्दरता-विकटता और मानवीय जन-जीवन के राज खोले हैं। विशेष रूप में तिब्बत का समग्र भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रतिबिम्ब और विवेचन की झलक इसमें दिखाई देती है। पंडित नैन सिंह रावत ने अपने हर यात्रा अभियानों की डायरियां लिखी। परन्तु वर्तमान में मात्र 3 डायरियां ही सही हालत में उपलब्ध हैं। किस्सागोई शैली में लिखे उनके यात्रा वृतांत उनके अदम्य साहस, कर्तव्यनिष्ठा और वाकचातुर्यता के किस्सों से पाठकों को रोमांचित करते हैं। हिन्दी भाषा और हिमालय क्षेत्र के ये प्रारंभिक लिपबद्ध यात्रा साहित्य इसे कहा जा सकता है। घुमक्कड़ नैन सिंह की यात्रा लेखन शैली अदभुत है जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलती है। जरा गौर फरमाइये- ‘‘उसका सवव यही था कि उस स्थान में पानी नहीं था रास्ता भूल जाने के भय से हमने रात में चलना मुनासव न समझा डेरा लगाकर वैठ गये और मारे प्यास के पानी विन दिल तड़फने लगा तव मैने सब नौकरों से कहा कि यारो तुममें से दो तीन आदमी कोई तो जुव़ांमर्दी करो और नावीपाछो ताल जिसे हम पीछे छोड़ आये हैं रात में वहां जाकर पानी ले आओ तो हम लोग वचें नही तो मरते हैं.’’ (एशिया की पीठ पर, पण्डित नैन सिंह रावत, पृष्ठ-300)

‘‘तारीख़ 14 फेव्रवरी सन् 1873 ई. के रोज़ जनाव़ मेज़र मन्टगौमरी साहिव वहादुर डिप्टी सुप्रैन्टैन्डैन्ट जि. टी. सवें मुकाम देहरे से मुझे हुक्म हुआ कि पण्डित नैनसिंह दरियाय व्रहृमपुत्र का पूरा दरियाफ्त करने को जावै चुनाचे कोह अल्मोड़े से इलाहावाद साहिवगंज तक रेल के राह जावे वहां से कोह दार्जेलिंग व सिक्किम होकर ग्याङचै को निकळे वहां से ल्हासा के मुत्तसिळ च्याक्सम छ्योरी व छ्युस्युळ नाम जगह से दरियाय व्रहृमपुत्र का किनारे 2 पैमाइश करता हुआ ल्होख़ाळो होकर लखनपुर सरकारी अमल्दारी तक काम करै.’’ (एशिया की पीठ पर, पण्डित नैन सिंह रावत, पृष्ठ-317)

तिब्बत में सन् 1865 से प्रारंभ हुए ग्रेट ट्रिगनोमेट्रिकल इस सर्वे में भाग लेने वाले सभी जोहारी बन्धुओं को ‘पण्डित’ का सम्बोधन दिया गया था। नैन सिंह रावत की अनोखी प्रतिभा और जबरदस्त समझदारी को देखते हुए उन्हें ‘पण्डितों का पण्डित’ कहा जाता था। जबकि हकीकत यह थी कि उस भोले-भाले घुमक्कड़ को यह समझ भी नहीं थी कि सालों-साल लगातार जिन अन्वेषणों और सर्वेक्षणों अभियानों में वह छदम वेष-भूषा में भटकता रहा था, वह वास्तव में जासूसी का काम था और पकड़े जाने पर मौत की सजा के अलावा उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं था। इसके अलावा खम्पा डाकुओं से भिडंत का डर भी उसको घुमक्कड़ी करने से नहीं डिगा पाया था।

तिब्बत जिसे ‘संसार की छत’ कहा गया, के बारे में ठोस और वैज्ञानिक जानकारी लाने वाला वह पहला व्यक्ति था। दुनिया ने नैनसिंह की सर्वे रिर्पोट और घुमक्कड़ डायरी से तिब्बत की धरती और वहां के लोगों के मिजाज़ को जाना। वह कदमों से हजारों मील की दूरी नापता था। ल्हासा जैसे कई अन्य महत्वपूर्ण स्थानों की समुद्रतल से प्रामाणिक ऊंचाई उसने ही ज्ञात की थी। उसने दुनिया के सामने ब्रहृमपुत्र नदी के बारे में प्रामाणिक-प्राथमिक जानकारी जुटाई।

विश्व के महान सर्वेक्षकों पियरे, स्काट, डेविड लिविंगस्टन, जी. ए. ग्रान्ट, स्लागेन्टवाइट बन्धुओं, माण्टगोमरी, हेनरी रालिन्सन और ट्राटर के समकक्ष पण्डित नैन सिंह रावत का नाम दर्ज है। परन्तु अपनी ही मातृभूमि (देश-समाज) में ‘‘अलंकरणों, अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और परतंत्र भारत में भी उत्कृष्ट वैज्ञानिक योगदान के लिए सम्मानित पंडितों (नैन सिंह, मानी सिंह, किशन सिंह) के बारे में आज किसी भी प्रकार की चर्चा का न होना एक अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कही जायेगी’’