February 23, 2025



हिमालय की जल विविधता

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महावीर सिंह जगवान 


प्रकृति ने सम्पूर्ण भारत को सम्मपन्न जैवविवधता और प्रकृति प्रदत्त खजानों के तोहफे दिये हैं, ताकि भारत का हर कोना समृद्धि से महके।


नाॅर्थ ईष्ट मे काला सोना (कोयला) और खनिज तेल, पश्चिम बंगाल से गुजरात तक सम्मपन्न समुद्र उसी प्रकार उत्तराखण्ड को विशाल क्षेत्र मे फैले सम्मपन्न ग्लैशियरों के साथ समृद्ध जलाशय और सदानीरा पावन नदियों की सम्मपन्नता दी है। ग्लैशियर, सरोवर, सदानीरा सम्पन्न नदियाँ प्रकृति द्वारा प्राप्त स्वर्णिम तोहफा है। इस तोहफे के नियोजन से ही उत्तराखण्ड की समृद्ध राज्यों की अग्रिम पंक्ति मे खड़ा हो सकता है। जल उपलब्धता की सम्मपन्नता हिमालय की तलहटी और चोटियों की ढलानों पर बसे गाँवों के लिये पीने के पानी के साथ सिंचाई की बड़ी जरूरत पूरी करने के साथ माइक्रो विद्युत परियोजनाऔं की असीम संभावनाऔं के द्वार खोलती आजादी के बाद से उत्तराखण्ड मे अकुशल प्रबन्धन की परिणति से इतनी पेयजल योजनायें बनी हैं यदि इन पाइपों को पृथ्वी के चारों ओर जोड़ दिया जाय तो यह पाइप सात चक्कर के लिये पूरे हो जायेंगे, और जो पेयजल योजनाऔं पर लगे हैं उनमे पानी कम और हवा अधिक है। उत्तराखण्ड के नौ हिमालयी जनपदों मे चालीस फीसदी जनता गम्भीर पेयजल के गम्भीर संकट से जूझ रही है जबकि तीस फीसदी लोग विना पानी के गाँव छोड़ चुके हैं, बीस फीसदी लोंगो को प्रति ब्यक्ति सौ लीटर से कम की जलापूर्ति होती है। सवाल बड़ा है तो यह संसद मे भी गूँजता है एक बार एक सम्मानीय सांसद महोदय लोक सभा मे हिमालयी जनपदों मे पेयजल के गम्भीर संकट पर सवाल उठा रहे थे तो राजस्थान के सांसद ठहाके लगा रहे थे (गंगा यमुना के मायके के लोग प्यासे) एक दो नही हजारों योजनायें बनती हैं और सघन अध्ययन के अभाव, अकुशल नियोजन, भ्रष्टाचार, बरसाती श्रोतों पर बनकर जैसे ही परियोजना लागत का पूर्ण धनराशि ब्यय होती है, इसी के साथ योजनायें भी दम तोड़ देती हैं। भारत सरकार का स्वच्छ भारत मिशन के लिये भी चुनौती बनी हुई है, लोग पर्याप्त जल के अभाव मे शौचालय तक प्रयोग नही कर रहे हैं। यही गति सिंचाई की है, उत्तराखण्ड मे सबसे मलाईदार मंत्रालयो मे सिंचाई विभाग अब्बल है बड़े बजट का निरन्तर सिंचाई के संसाधन विकसित करने में योजनाऔं को बनाता है और फिर जीर्णोद्धार करता है, हर साल असिंचित भूमि को सिंचित बनाने के बड़े लक्ष्यों की पूर्ति हेतु धन का ब्यय होता है जबकि सच्चाई यह है हर साल खेती का क्षेत्रफल घट रहा है।


उत्तराखण्ड मे बरसात भले ही आम आदमी के लिये जीना दूभर करती हो लेकिन पेयजल और सिंचाई महकमे के लिये दिवाली से कम बड़ा त्यौहार नहीं, यही वह अवसर होता है जो योजना कागजों मे बनी उसका जमीन पर बहने और बची खुची योजनाऔं को आपदा मे दिखाकर नई योजनाऔं का गठन पुनर्निमाण करना। जलसंपदा की सम्मपन्नता ने एक और बड़े अवसर को जन्म दिया ऊर्जा प्रदेश बनने का।भूकम्प की दृष्टि से जोन पाँच का, विश्व मे सबसे कम उम्र का पर्वत, संवेदनशील हिमालय मे बिद्युत उत्पादन के बड़े श्रोत बाँध परियोजनाऔं के लिये स्वर्ग बन गया।राज्य की सरकार से लेकर नेताऔं का एक ही मत है बाँध बनेंगे तो बिजली मिलेगी और स्थानीय लोंगो को रोजगार साथ ही राज्य को राॅयल्टी। आधुनिक युग मे विकास की पहली जरूरत ऊर्जा बन गई है। और ऊर्जा प्राप्ति के अनेकों विकल्पों मे जलविद्युत परियोजनाऔं का श्रेष्ठ स्थान है। उत्तरप्रदेश के समय हिमालयी क्षेत्र मात्र प्राकृतिक संपदा के अकूट सम्मपन्न श्रोत थे जबकि मानवीय जीवन और उस पर पड़ने वाले प्रभावों के साथ प्रकृति और पर्यावरणीय घटकों से कोई लेना देना नही था। बड़ी तेजी से बाँध निर्माण के कार्य चले अल्प रोजगार और मुआवजे की चकाचौंध के साथ जिम्मेदार नेताऔं और ब्यूरोक्रेट्स ने परियोजनाऔं की स्वीकृति के बाद भी बाँधो की ऊँचाई बढाकर मोटी चाँदी काटी। बार बार एक सवाल इन बाँधों से मिलता क्या है हिमालयी राज्य को और राज्य के लोंगो को। अभी तक जो बड़ी विद्युत परियोजनायें हैं उनसे राज्य को एक रूपये के लाभ मे दस पैंसा मिलता है और जिन परियोजनाऔं से चवन्नी मिलती हैं वो साल मे नौ महीने खराब रहती हैं और बड़ी बात अपने राज्य मे उत्पादित बिजली को डेढ दो रूपये यूनिट यूपी और दिल्ली को देकर पाँच छ: रूपये यूनिट खुद खरीदना पड़ता है। आम आदमी को तो जड़ से उखाड़कर थैले मे चंद रूपये देकर एक सुनसान अनजान संस्कृति के मध्य छोड़ देते हैं। बाँधो से विस्थापित पलायन ने आज भी साठ फीसदी लोंगो के जीवन स्तर को निम्न श्रेणी मे पहुँचाकर खानबदोस जीवन जीने के लिये मजबूर कर दिया है। साहेब घर से उजड़ना सभी के लिये फायदा मंद होना युगों से सम्भव नही हुआ है। अपना गाँव अपनी संस्कृति अपने रिश्ते नाते अपनी पीढियों का अनुभव अपनी माटी की खुशबू सात समुन्दर पार सम्मपन्न जीवन जीने पर भी शक्ति और साहस देती है और इसके न होने पर सम्पन्नता भी खोखली लगती है।

बड़ा सवाल क्या बाँध नही बनने चाहिये, बाँध बने लेकिन छोटी छोटी ऊँचाइयों के। इसका स्वामित्व ईष्टइण्डिया जैसी सम्मपन्न और कहीं कहीं फ्राॅड कम्पनियों के बजाय पढे लिखे युवाऔं के साथ छोटे छोटे सामुहिक या समूहो का हो। अधिशंख्य छोटे बाँध अधिशंख्य रोजगार के अवसरों को जन्म देंगे।यह परियोजनायें बड़े बाँधो से अधिक सामुहिक रूप से उत्पादन मे समर्थ हो सकती हैं। हिमालय की सेहत और सदानीरा नदियों के पर्यावरणीय संतुलन मे बड़ी भूमिका निभा सकती हैं। जहाँ बड़े बाँध दस से बीस सालों मे गाद से भरकर रेगिस्तान की शक्ल मे उभरेंगे वहीं छोटे बाँध कौशलता से समय समय पर चुगान से भी समृद्धि बढायेंगे। छोटे बाँध हिमालय के वासियों के लिये भी वरदान बनेंगे पेयजल का संकट हो या सिंचाई का संकट इनके समाधान मे बड़ी भूमिका हो सकती है। जहाँ बड़े बाँध हिमालय मे पेयजल के लिये हैण्डपम्प तकनीकी जैसी रेगिस्तानी पद्धति की कामचलाऊ ब्यवस्था विकसित करेंगे वहीं छोटे बाँध बहते जल की उपलब्धता से हिमालय की वादियों और मानवीय जीवन को अधिक शसक्त बनायेंगे। हिमालय के वासियों को हिमालय का पानी सोने जैसी बहुमूल्य धातु से कतई कम नही, यदि समय रहते अमृत जल का कौशलता से नियोजन सम्भव हो, निश्चित पेयजल, सिंचाई, जलविद्युत की सम्मपन्नता हिमालयी राज्य को उत्कर्ष के साथ अग्रणी पंक्ति के विकसित राज्यों की श्रेणी मे शामिल कर देगी। आयें मिलकर जल की महत्ता और जल प्रबन्धन की ओर बढकर नये पथ पर बढने की पहल करें।


लेख़क सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं

फोटो – गिरीश डिमरी