बोया पेड़ बबूल का
वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
इस समय जाने अनजाने देवभूमि में लैंड जेहाद, डेमोग्राफिक चेंज जैसे शब्द राजनैतिक विमर्श की आरोप प्रत्यारोंपों के शब्दावली में आ गये हैं। चुनावी माहौल में ये हित साधन के लिए भुनाये भी जायेंगे। राज्य के आगामी स्थापना दिवस के पहले और राज्य के इक्कीस वर्ष के आते पड़ाव में सबसे सकारात्मक पहलू यह है कि राजनीति की भी और राज्य की भी जमीन बचाने के लिए युवा मुख्यमंत्री पुष्कर धामी भी हिमाचल के तर्ज पर सख्त भूकानून पर भी विचार करने की बात कर रहें हैं, साथ ही वहीं इक्कीस साल और उसके आस पास के युवा जिन की स्मृति में उत्तराखंड आन्दोलन की उग्रता व समाज परिवर्तन से जुड़ी मांगे हों भी ना वे भी भारी संख्या में देहरादून में जुट रहे उन विभिन्न आन्दोलनकारी संघटनों के साथ खड़े हो रहें हैं जो राज्य में हिमाचल की तर्ज पर सख्त भूकानून भी चाहते है व आपसी भाईचारा व शांति भी।
भाईचारा व शांति की बात अब इसलिए भी हाशिये में नहीं रखी जा सकती है क्योंकि खुद राज्य सरकार कुछ क्षेत्रों में डेमोग्राफिक चेंज से साम्प्रदायिक माहौल खराब होने की आशंका बता रही है। इसकी शुरूआत कुछ क्षेत्रों में असामान्य गति से जमीन खरीद कर जनसंख्या समीकरणों के बदलाव को ज्यादा उत्तेजक बनाने के लिए इसे सुविचारित लैंड जेहाद का नाम देकर ही हो गई है। सरकारी मंशां की राजनीति व तनाव का अंदेशा की झलक यह भी है कि राज्य सरकार इस समस्या का निदान उ प्र के जनसंख्या कानून के अघ्ययन व उस जैसा जनसंख्या कानून उत्तराखंड में भी लाने में देख रही है। इससे तो लगता है कि विपक्ष व ज्यादातर विश्लेषकों का यह आंकलन कि सरकार जनसांख्यकिय परिवर्तन को केवल सांम्प्रदायिक रंग देकर चुनाव में मुख्य मुददों से घ्यान भटका रही है सच्चाई के काफी नजदीक है। पुलिस व प्रशासन को ऐसे चिन्हित क्षेत्रों में सख्त जांच व सतर्कता करने के निर्देश भी दे दिये गये हैं। पुलिस को भी जब डेमोग्राफिक चेंज के कारण शांति भंग न होने देने पर सतर्क रहने की हिदायत हो तो न चाहने पर भी तनाव की जमीन तैयार हो ही जाती है।
डेमोग्राफिक चेंज के मामले को सतही समझ से सरकार का समझना व उस पर एकांगीय बात करना वांछित जड़ों की पहचान तक नहीं पहुंचायेगा। डेमोग्राफिक चेंज केवल जमीन खरीद कर बसने वालों से ही नहीं आता है। साथ ही मसला विशेष सम्प्रदाय तक ही सीमित नहीं है। मसला दक्ष कामगारें या सस्ते कामगारों का भी है व पैसे की ताकत का भी बेरोजगारी का भी है ओर धन का भी है। स्लमों की डेमोग्राफी क्या है। वहां तो डेमोग्राफी जमीन खरीद कर नहीं बदली जा रही है। कुछ स्लम अतिक्रमणों से उपजे हैं। कुछ स्लमों के बीज राजनेताओं ने बोये है व वहां हाई कोर्ट के निर्देशों को भी लागू न करने के उपाय सारी सरकारें करती रहीं हैं। वहां उत्तराखंडी मूल के भी बहुत वाशिन्दे नहीं हैं ये राजनेता भी जानते हैं। किन्तु इन्हे राजनैतिक कारणों से स्थायित्व व आक्सीजन दी जा रही है। उन लोगों की हैसियत बढ़ेगी तो अंतराल तक भी वो जमीन खरीदने के लिए जा सकते हैं या बाहर से अपने लोगों को साथ ला बसा सकते हैं। इनके सबसे पहले वोटर कार्ड भी बन जायेंगे। ऐसे में डेमोग्राफीक चेंज स्थायित्व ही नहीं निरंतरता भी पायेगा व पा भी रहा है। प्रतिबंधों के बावजूद जनजातियों की जमीन कैसे खरीदी जा रही है। दूर क्यों जायें राजधानी के पास के जनजातिय बिकी जमीनों को देखें। भूमाफियों की बढ़ोत्तरी पर क्यों नहीं ध्यान गया। चाहे वे राज्य के ही हों। क्या ऐसा होना जनजातियों की विशिष्टता या विशिष्ट अधिकारों को कम करने वाले डेमोग्राफिक चेंज नहीं हैं। इन पर जांच क्यों न बैठे।
जब राज्य सरकार राज्य के तीर्थ स्थलों में इस तरह के डेमोग्रैफिक चेंज से चिंतिंत होने की बात करती है व आम जन को भी उन्हे साम्प्रदायिक एंगल से दिखाने की बात हो तो प्रतिपक्ष भी तो सक्रिय होगा ही। परन्तु बेहतर यह भी रहेगा कि राज्य के तीर्थ स्थलों में बढ़ी आबादी का बढ़ते व्यापक पैमाने पर होने वाले निर्माण कार्यों के ग्राफ के साथ यहां डेमोग्राफिक चेंजों के विश्लेषण करने की कोशिश की जाये। बेतहाशा निर्माण कायों की वजह से भी जिन लोगों से सरकार चिंतित है उनकी तीर्थस्थलों में भारी पैठ बढ़ी है। पेन्ट लकड़ी फर्नीचर वेल्डिंग ये निर्माण कार्य चाहे उत्तरकाशी में हो रहें हो चाहे बद्रीनाथ में चाहे हरिव्दार या ऋषिकेश में या अंतराल में अपने राज्यों में काम न पाये या ठेकेदार व्दारा लाये गये लोग जब लगातार यहां अंतराल के गांवों में या तीर्थस्थ्लों में काम पाने लगते हैं तो वे यहीं बसना चाहते हैं। यह तो स्वाभाविक है फिर धीरे धीरे डेमोग्राफी भी बदलने लगती हैं। कुछ समय पहले श्री बदरीनाथ धाम में तो कोरोना काल में ज्यादा लोगों के एक साथ नमाज का मुद्दा भी कुछ संगठनों ने उठाया था।
इसी तरह पहाड़ी गांवों में खेती के कारण डेमोग्राफी बदल रही है। ऐसे कहते हुए बहुत से लोग मिल जायेंगे जो कहेंगे कि नेपाली मूल वालों के कारण पहाड़ी खेती चल रही है। बाहर से आये ये खेत मजदूर भी उन गांवों में रहने लगे जहां उन्हे खेती के लिए जमीन व काम अनुबंधों में मिल जाता है। कइयों ने तो ले दे के विदेशी होने पर भी यहीं के दस्तावेज भी बना लिया। पहाड़ी अंतरालों में कई धरों में बाहर से आई महिलायें भी काम करते हुए मिल जायेंगी। इसी तरह से अब मैदानी नगरों महानगरों में ही नहीं अंतराल में भी फल सब्जियों के दुकानदार या रेड़ीवालों के तौर पर बाहर से आ रहें हैं। हमारे बीच यदि दक्ष बढ़ेगे या गांवों में ही अपने लोग ज्यादा काम के लिए मिल जायेंगे तो संभवतया इन स्थितियों में सुधार हो सकता है। इन परिपेक्षों में ये मुद्दा पलायन से भी जुड़ा है व दक्ष कामगारों की आवश्यकता से भी जुड़ा है।
परन्तु जो भी हो यदि राज्य सरकार राज्य में सख्त भू कानून खास कर हिमांचल की तर्ज पर लाने की मांग पर आगे बढ़ना चाहती है तो उसे पहले 2018 के त्रिवेन्द्र सरकार के उस भू कानून वापस लेकर करनी चाहिए जिसने बाहरी लोगों को उत्तराखंड में जमीन लेना आसान कर दिया है। 2003 में जन दबाव में तिवाड़ी सरकार ने राज्य में बाहरी व्यक्ति की जमीन खरीदने की सीमा 500 वर्ग मीटर्स की कर दी थी। खंडूड़ी सरकार ने 250 वर्ग मीटर्स कर दी थी। 2018 में त्रिवेन्द्र सरकार ने उद्याग के नाम पर कितनी भी जमीन कोई भी कहीं भी खरीद सकता है। भू उपयोग परिवर्तन की बाध्यता भी शिथिल कर दी थी।
रिसोर्टों व्दारा ली गई जमीनों की जांच करिये। उन्होने कहां कहां कब्जा करके या धींगा मुश्ती से लम्बी लम्बी कई बार किलोमीटर्स की माप की सड़को को रिसोर्ट तक पहुंचा दिया है। आखिर वे भी जमीन लेते होंगे भू उपयोग बदलवाते होंगे। ये सब कैसे हो रहा है। अधिकांश जगहों से ग्रामीणों की शिकायतें आ रहीं हैं कि खास कर कुमांऊ में कि रिसोर्ट व मल्टी स्टोरीज बनाने वाले बिल्डर्स लोगों के मुंह का पानी छीन रहें हैं। तालों व झीलों को पाट रहें हैं। लोगों के रास्ते बदल रहें हैं। तो ये क्या डेमोग्राफिक चेंज का आधार नहीं तैयार कर रहें हैं। भाजपा ने ही तत्कालिन राज्य की बहुगुणा कांग्रेस मंत्रीमण्डल पर ये आरोप लगाया था कि सिडकुल की औद्यागिक जमीन को उन्होने हरिव्दार व रूद्रपुर में बिल्डर्स को दे दी थी। भाजपा ने तब उसमें करोड़ों के स्कैंडल होने की बात की थी। उसके बाद एक और सरकार ने भवाली सेनीटोरियम को ही पूंजीपतियों के हाथ पहुंचाने के खेल खेले। ऐसे में पलायन मजबूरी न बने नये लोग दूसरों का रहना मुश्किल न कर दें सरकार को लगे हाथ पुलिस व प्रशासन को ऐसी भी जांचे शुरू करने के आदेश देने चाहिये। भले ही जांचों की आंच राजनैतिक दलों के महानुभावों तक पहुंचे।
बात खनन की करें। यहां जो बाहरी मजदूर लाये जाते हैं वो किसकी जमीन पर रहते हैं। शराब का तस्कर क्या यहां बिना जड़ों का काम कर रहा है। जब असल लैंड जेहाद हो रहा था तब तो जनता की नहीं सुनी। अब जो आश्रमों के सामने आश्रमों के नाम की घाटें बनी हैं वो क्या बिल्कुल नदी के पाट पर खरीदी हुई जमीन पर बनी हैं। कुछ तो अपने नाम की घाटों पर ताला भी लगायें हें। क्या कोई सरकारी घाटें है। सरकार की जमीन जिन घाटों में है वह पहले उसे अपने नाम करे। वहां से जनता को सुविधायें दे।
गैरसैण राजधानी घोषित हुई नहीं कि जमीन के खरीददार पहुंचे। फिर वहां राजनैतिक खेल हुआ। पहले रोक खरीद बेच पर लगी फिर पहले तक की लगी रोकें हटा दी गई। इन संदर्भों में राजनेता अपना गिरेबां देखें। यदि राज्य बनते ही सख्त भू कानून होते तो ये नौबत ही नहीं आती। यदि अपराधियों को गांवों तक न पहुंचने देते तब भी ये समस्या कम होती। राज्य की सरकारों के अब तक के कृत्यों पर ध्यान दें। जो अब हो रहा है वह उसी की प्रतिफल है।
भले ही डेमोग्राफिक चेंज के मसले पर सरकार या सरकारी राजनैतिक दल अपने कारणों से अपनी भयावह आशंकाओं से आज वोकल हुआ हो किन्तु मूल उत्तराखंडी अपने अपने कारणों अपने अपने अनुभवों से इस पर चिंता राज्य बनने के समय से ही चिंता जता रहा है। आम महिला या गांव वाला ऐसा भी सोच सकता है जब से बाहर वाले आये बाहर निकलना मुश्किल हो गया या चीजें मंहगी हो गई आदि आदि। हालांकि जहां कुछ लोग हालिया डेमोग्राफिक चेंज से अपनी जमीन हिलती हुई देख रहें हों वहां कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं जो बाहर वालों के बसने से अपना वोट बैंक बढ़ता देख सकते हैं।
जब गांव खाली हो रहे थे ग्रामवासी पलायन कर रहे थे तब राज्य की सर कारों ने चिंता नहीं की। भले ही भाषण बाजी होती रही हो कि गांव सीमांत खाली हो जायेंगे तो भारत की सुरक्षा को खतरा हो जायेगा। परन्तु जुबानी जमा खर्च से ज्यादा सरकारों ने कुछ नहीं किया। कभी उत्तराखंड वासियों की आंतरिक सुरक्षा की चिंता नहीं की। चीनी सीमा के गांवों की बात न भी करें तो इसे इस रूप में समझें कि यदि जंगलों के पास के गांव खाली होंगे तो वहां वन माफियाओं तस्करों का बोल बाला हो जायेगा। नदियों के पास के गांव खाली होगे तो वहा खनन माफियाओं की तूती बोलने लगेगी। न भूलें खण्डहर भले ही अच्छे लोगों की पसन्द न हों पर खण्डहर शराबियों की नशाखोरियों की अपराधी तत्वों की पंसदीदा जगह होती है जहां वे अपनी अपराध की दुनियाओं को बसा सकते हैं। वही स्थिति खाली उत्तराखंड के गांवों की हो सकती है। कई नदी पास के गांवों की खण्डहर गांवों जैसी स्थिति नदी घाटी बिजली परियोजनाओं ने बना दी है। यदि राजनेता या सरकार संवेदनशीलता से देखें, ग्रामीणों से बात करें तो जिला टिहरी जिला उत्तरकाशी व चमोली में ऐसे गांव देख सकते हैं। हाट गांव में विष्णु गाड पीपलकोटी जलविद्युत्त परियोजना से इस समय सितम्बर 2021 जब मैं लेख लिख रहा हूं ऐसी ही स्थिति उपजी है।
कहा तो यही जा सकता है कि करता था सो क्यो किया अब करि क्यों पछताये। बोया पेड़ बबूल का आम कहां से खाये। जो कुछ लिखा गया देखा गया इन सारे खतरों पर तो राज्य आन्दोलनकारी व समाजिक कार्यकर्ता शुरू से चेता रहे थे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक चिन्तक हैं