संघर्षों की फिल्म जैसा एक जीवन
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी ‘
भारत के सिनेमा इतिहास की जब भी बात आयेगी तो मंझे हुये लेखक एवं फिल्म निर्माता- निर्देशक करूणेश ठाकुर जी का नाम सदैव सम्मान के साथ लिया जायेगा। ईश्वर की यही मर्जी थी कि 3 जुलाई 2013 की सांय को जब उन्होंने देहरादून स्थित घर में अन्तिम सांस ली
तो सभी का यह कहना था कि ठाकुर साहब ने अन्तिम सांस तक भारत के सिनेमा को अपने योगदान से अछूता नहीं रखा।कुछ ही महिने पूर्व उन्होंने अतीक अहमद का चित्राली फिल्म प्रोडक्सन की “नई राहें “ सीरियल को पूरा कर लिया था। जिसके लेखक, निर्देशक व संवाद खुद उन्होंने ही लिखे थे।
इस सीरियल का प्री एवं पोस्ट प्रोडक्शन का कार्य चैनल माउण्टेन द्वारा किया गया था। करूणेश ठाकुर साहब का जन्म आजादी से पूर्व 9 सितम्बर 1929 को लाहौर में हुआ था। भारतीय फिल्म इतिहास और कलकत्ता फिल्म निर्माण के महत्त्वपूर्ण गढ़ थे। उस वक्त रणजीत, बॉम्बे टॉकीज, वाडिया, मूवीटोन, जया प्रभा, प्रभात, न्यू थियेटर्स और लाहौर का पंचोली आर्टय व लीला मन्दिर महत्त्वपूर्ण फिल्म निर्माण स्टूडियो थे। लीला मन्दिर फिल्म स्टूडियो की स्थापना करूणेश ठाकुर जी के पिता ठाकुर हिम्मत सिंह द्वारा स्थापित किया गया था। ठाकुर साहब के वंशज उत्तर प्रदेश के बड़े जमींदारों में गिने जाते थे। लेकिन किसी कारणवश उन्हें उत्तर प्रदेश से महाराजा रणजीत सिंह की रियासत को अपना ठिकाना बनाना पड़ा था। ठाकुर साहब के वंशज लाहौर के मोची दरवाजे के इलाकों में बस गये। यहीं रहकर करूणेश जी के पिता ठाकुर हिम्मत सिंह ने 1940 में बनी पंजाबी फिल्म “ दुल्ला-भट्टी“ में खलनायक की भूमिका निभाई थी। हिम्मत सिंह तब तक मूक फिल्मों के बड़े अभिनेता बन चुके थे। “दुल्ला-भट्टी“ के निर्देशक रूप. क.े शौरी और संगीतकार पंडित गोविन्दराम थे। यह जाने-माने फिल्म संगीतकार ओ.पी.नैय्यर की पहली फिल्म थी जिसमे नैय्यर साहब को पहला बड़ा ब्रेक मिला था। अजीज कश्मीरी के लिखे गीत “ रब दी जनबा विचों ऐहो दिल मंगदा, अंमिया दा बाग होवें ’’ गीत बड़े लोकप्रिय हुये थे। करूणेश ठाकुर के पिता हिम्मत सिंह के लीला मन्दिर के बैनर पर पहली पंजाबी फिल्म ’’कमली‘‘ 1946 मे प्रदर्शित हुई थी जिसके निर्देशक प्रकाश बख्शी व संगीतकार इनायत हुसैन थे। फिल्म की मुख्य भूमिकाओं में अमरनाथ, शौकत, इनायत हुसैन की बेटियों ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। कमली ने उस दौरान अच्छा खासा बिजनेस किया था।
लीला मन्दिर बैनर के तले 1947 में हिन्दी फिल्म “बेदर्दी“ का निर्माण प्रकाश बख्शी के निर्देशन मे शुरू किया तब 18 वर्षीय मैट्रिक पास करूणेश ठाकुर ने “बेदर्दी“ फिल्म मे असिस्टेंट डायरेक्टर के रूप मे फिल्मों मे कदम रखा। इन्हीं दिनों देहरादून में ठाकुर साहब की मौसी का मकान बन रहा था। 3 अगस्त 1947 को बेदर्दी की शूटिंग लाहौर में शुरू की गई थी । बाकी की शूटिंग के लिए फिल्म की पूरी यूनिट देहरादून आ गई व काम पर लग गई। लेकिन तभी दंगे भड़कने शुरू हो गये और मुल्क का बंटवारा शुरू हो गया। फिल्म यूनिट को दंगों से बचाने के लिए कलकत्ता भागना पड़ा व किसी तरह बेदर्दी यूनिट फिल्म की शूटिंग पूरी कर ली गई लेकिन फिर फिल्म सेंसर बोर्ड में वह अटक गई। लाल फीतासाही की शिकार हुई फिल्म का नाम बदलकर डॉक्टर रमेश भी किया लेकिन सेंसर बोर्ड ने फिल्म का सर्टिफिकेट 1949 में दिया तब तक फिल्म का क्रेज खत्म हो गया था। बंटवारे की वजह से लाहौर वापसी के सारे रास्ते बन्द हो चुके थे। फिल्म अटक जाने से सारा पैंसा डूब गया और करूणेश ठाकुर के परिवार को मजबूरन देहरादून को ठिकाना बनाना पड़ा। माता-पिता के अलावा घर में एक भाई व तीन बहिनें थी। रोजगार के लिए 2 रूपये रोज पर ठाकुर साहब को जनगणना ऑफिस में नौकरी करनी पड़ी । वही उनके पिताजी ठाकुर हिम्मत सिंह लखनऊ में सरकार के लिए डॉक्यूमेंटरी फिल्मों का निर्माण में लग गये लेकिन इससे भी परिवार की माली हालात मे कोई सुधार नहीं हुआ। आखिरकार एक रोज 10 रूपय जेब में रखकर करूणेश ठाकुर 1952 में अकेले ही मुम्बई पंहुच गये। जहां उनकी मुलाकात कलकत्ता के दोस्त रोशनलाल मल्होत्रा से हुई। दोनों की हालात एक जैसे ही थे । दोनो दादर के एक सस्ते लॉज में रहकर दिनभर काम की तलाश में भटकते रहते थे। उन्हीं दिनों प्रसिद्ध फिल्म लेखक सी.एल. कविश से ठाकुर साहब की मुलाकात हुई जो एच.एस. खेल की फिल्म झूठी कसमें के संवाद लिख रहे थे। सी.एल.कविश की सिफारिश पर करूणेश ठाकुर जी को मख्खन लाल और राजेन्द्र जैन की फिल्म कम्पनी फिल्मकार में ऐप्रेन्टिश की नौकरी मिल गई। इस फिल्म कम्पनी के बैनर तले छोटी भाभी, दीदार व धुधरू जैसी लोकप्रिय फिल्मों का निर्माण हो चुका था। मुम्बई में “मान“ फिल्म जो 1954 मे प्रदर्शित हुई थी से करूणेश ठाकुर साहब दुबारा से फिल्मों मे एसिटेन्ट डायरेक्टर के तौर पर स्थापित हो गये। उस ज़माने के प्रसिद्ध निर्देशक रमेश शहगल फिल्मों में बड़ा जाना माना नाम था। फिल्म “शिकवा“ फिल्मकार बैनर तले बन रही थी इस फिल्म में करूणेश जी असिसटेन्ट डायरेक्टर बने, लेकिन दिलीप कुमार और नूतन को लेकर बनी यह फिल्म दुर्भाग्यवश डिब्बे में ही बन्द होकर रह गई। फिल्मकार कम्पनी को आर्थिक कठिनाइयां से जूझना पड़ा व आखिरकार फिल्मकार स्टूडियों को बंद करना पड़ा लेकिन शीघ्र ही ज्योति स्टूडियों की फिल्म “पातालपरी“ मे उन्हें असिस्टेट डायरेक्टर का काम मिल गया। इसके निर्देशक एस.पी. बख्शी थे।
इसके पश्चात् अभिनेता प्रदीप कुमार व ’निर्माता दीप खोसला तथा देवजौली’ द्वारा निर्मित फिल्म “कारवां“ में भी असिस्टेट निर्देशक का काम मिला यह फिल्म 1956 मे प्रदर्शित हुई। इसी बीच एस.पी.बख्शी को फिल्मिस्तान की फिल्म “सुन तो ले हसीना“ मिली तो उन्होनें “पातालपरी“ फिल्म छोड़ दी जिसे बाद में करूणेश ठाकुर ने पूरा किया इस फिल्म में जयराज, शकीला, कुमकुम, यशोधरा काटजू जैसे कलाकार थे। 1957 मे प्रदर्शित पातालपरी क सह-निर्देशक के रूप मे ठाकुर साहब को क्रेडिट दिया गया। दूसरी ओर करूणेश ठाकुर के घनिष्ट मित्र चंदर सहगल को “ एक शोला“ फिल्म से स्वतन्त्र निर्देशन का मौका मिला। इसमें ठाकुर साहब को चीफ एसिसटेन्ट डायेक्टर के रूप में व स्क्रीन प्ले लिखने का मौका मिला, एक शोला बड़े बजट की फिल्म थी जिसमें प्रदीप कुमार, माला सिन्हा, जवाहर मौल, शुभा खोटे, नजीर हुसैन, धूमल व टुनटुन जैसे कलाकार थे। संगीत मदनमोहन, संवाद नासिर हुसैन ने लिखे थे। इसी फिल्म में ठाकुर साहब के साथ स्क्रीन प्ले लिखने वाले दूसरे असिसटेण्ट मोहन कुमार भी थे जिन्होनें बाद आम का पक्षी, आपबीती, अवतार और अमृत जैसी कई हिट फिल्मे बनायी थी। एक शोला फिल्म निर्माण के दौरान ही ठाकुर साहब को दीप प्रदीप की एक शार्ट फिल्म नटखट चंदू की निर्देशन करने का भी मौका मिला था। फिल्म एक शोला की सफलता के बाद दीप खोसला ने स्वयं फिल्म निर्माण शुरू कर दिया व बंटवारा फिल्म बनाने का निर्णय लिया जिसकी निर्देशन की जिम्मेदारी करूणेश ठाकुर को मिली। सी.एल.कविश के उपन्यास पर बनी यह फिल्म 1967 में प्रद्रर्शित हुई, जिसके संगीतार मदन मोहन थे। इस फिल्म में मोहम्मद रफी व आशा भोंसले के गाये गीत ये रात ये फिजाये तथा फिर आये न आये, आओ शमां बुझा के हम आज दिल जलायें बहुत लोकप्रिय हुये थे। बंटवारा फिल्म की कामयाबी के बाद करूणेश्स ठाकुर एक स्थापित लेखक निर्देशक बन गये व उनके पास कई फिल्मां के ऑफर आने लगे । ठाकुर साहब ने निर्माता बेनी तलवार की फिल्म आगे तेरी मर्जी निर्माता एक.आर.सेठ की बीना राम-मनोज कुमार की जोड़ी के अलावा सायरा-शम्मी कपूर की जोड़ी को लेकर फिल्मे बनायी । इस बीच कई फिल्मों बनी कई डिब्बां में बंद होती गयी। ठाकुर साहब का संघर्ष जारी रहा बाद मे करूणेश ठाकुर का संघर्ष जारी रहा बाद में करूणेश जी ने खुद निमार्ता बनने का फैसला लिया व पंजाबी फिल्म सत सालियां बनायी जो जर्बदस्त हिट रही। इसके बाद चोर दरवाजा फिल्म बनायी लेकिन इसे शीघ्र ही बन्द करना पड़ा। एक बार पुनः ठाकुर साहब ने सी.एल.कविश के उपन्यास पर फिल्म आंचल के फूल बनायी जिसमें सज्जन, कामिनी कौशल, जीवन, जयंत, मदनपुरी, सुदर व उल्लास जैसी अभिनेता थे। इसका संगीत बेद सेठी व निमार्ण एम.आर. सेठ ने किया था। परिवार नियोजन के संदेश से भरी इस फिल्म की तारीफ चारों आरे हुयी व तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी.गिरी ने ठाकुर साहब को राष्ट्रपति पुरस्कार से भी नवाजा। लेकिन कैरियर की दृष्टि से इस फिल्म ने करूणेश जी के खास सहारा नहीं दिया ठाकुर साहब की बड़े बजट व बड़े कलाकारों से बनी कई फिल्में अधूरी रह गई थी, लेकिन ठाकुर साहब रूके नहीं व लगातार फिल्मों का निमार्ण एवं निर्देशन करते रहे। उन्होनें 1972 मे भावना, 1972 में ही बाजीगर, 1974 मे अलबेली तथा 1980 में शादी से पहले फिल्म में ही उन्होने उभरते अभिनेता प्रवीन सूद को पहली बार फिल्मों मे ब्रेक दिया था जो बाद में हिन्दी व पंजाबी की कई फिल्मों में अभिनय करते रहे दुभार्ग्य से पिछले वर्ष प्रवीन सूद जी का भी देहान्त हो गया था।
लेकिन करूणेश ठाकुर और प्रवीन सूद उत्तराखण्ड के दो एसे महत्वपूर्ण नाम हैं जिनके बगैर उत्तराखण्ड का फिल्म का इतिहास अधूरा रहेगा। पातालपरी, एक शोला मे और मेरा भाई, दलाल न0 वन, सतगुरू तेरी ओट, नदिया बिछड़े नीर, खालसा मेरो रूप है खास जैसी चर्चित फिल्मों के लेखक के तौर पर करूणेश ठाकुर ने अपने का स्थापित फिल्म लेखक की श्रेणी में ला खड़ा किया। ठाकुर साहब की आधे दर्जन से अधिक उपन्यास उनकी इस वक्त की तस्वीर भी करते है। बुढ़ापे की वजह से ठाकुर साहब को देहरादून आना पड़ा लेकिन वे लगातार यहां के नवोदित कलाकारों, लेखकों, फिल्मकारों को अपना अनुभव, ज्ञान बांटते रहे व उन्हें प्रोत्साहित करते रहे। देहरादून स्थित “ चैनल माउण्टेन“ कम्यूनीकेशन के वे अन्तिम सांस तक सलाहकार रहे साथ ही चित्राली फिल्मस के लिए भी लगातार कार्य करते रहे। उन्होनें देहरादून में रहकर भी सरकार के विभिन्न विभागों के लिए शैक्षिक फिल्में बनायी व फूलों के लिए डॉक्यूमेण्टी फिल्में भी बनायी। करूणेश ठाकुर जी को के.एन.सिंह फिल्म विधा ’’दून रत्न पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। देहरादून में उन्हें विशेष सम्मान हमेशा मिलता रहा।
(यह मूल आलेख शिशिर कुमार शर्मा के आलेख पर आधारित है। जिसमें चैनल माउण्टेन, चित्राली फिल्मस एवं ठाकुर साहब के दोस्तों के इनपुट लिए गये है।)