भूमिहीन प्रदेश की ओर बढ़ता उत्तराखण्ड
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
उत्तराखण्ड राज्य दिन प्रतिदिन पर्यावरणीय नियम कानूनों के मकड़जाल में फंसकर भूमिहीन प्रदेश बनने की ओर अग्रसर है। तिब्बत व नेपाल की सीमा से सटे राज्य की सुरक्षा चौकसी के लिए न सिर्फ भारी भरकम ढ़ाचागत सुविधाओं की जरूरत है
बल्कि लाखों सैनिकों के ठिकानों के लिए भी भूमि उपलब्ध नहीं है। सेना ने उत्तराखण्ड व केन्द्र सरकार से सैन्य शिविरों, गोला बारूद प्रशिक्षणों हेतु हजारों हैक्टेयर भूमि की मांग की है जिसकी भरपाई अभी तक नहीं हो पाई है। चीन द्वारा भारत से सटी सीमाओं तक सड़क मार्ग व हवाई पटिट्यों के निर्माण से भारत चिन्तित है लेकिन उसकी चिन्ता जमीन पर उतनी ही सुस्त है। उत्तराखण्ड में तिब्बत सीमा तक सड़क मार्गों का निर्माण इतना धीमा है कि अभी तक कुल स्वीकृत 14 सड़कों में से केवल एक ही सड़क का निर्माण पूरा हुआ है। इन सड़कों के निर्माण में जहां आपदा सबसे बड़ी बाधा बनी है वहीं बन कानून की सख्ती, पर्यावरणीय नियमों व अल्पकालीन समय सीमा के रहते निर्माण कार्यों में तेजी नहीं आ पा रही है। सेना को अपने कार्य निष्पादन में इतनी दिक्कतें आ रही हैं कि पिछले दिनों यह एक बड़ी घटना के रूप में सामने आयी। चमोली गढ़वाल की नीति घाटी सीमा क्षेत्र में पेड़ों के कटान को लेकर सेना के जवानों व बन विभाग के कर्मचारियों के बीच हाथापाई तक हो गई। कथित रूप से पेड़ों का कटान सेना बैरक बनाने के लिए कर रही थी। दूसरी सबसे बड़ी समस्या सेना के समक्ष लम्बी दूरी की मिशाइल, गोला एवं फायरिंग प्रशिक्षण में आ रही है। इस हेतू सेना को आबादी विहीन 30 से 40 किलोमीटर का भूक्षेत्र चाहिए जो सीमित भूमि वाले राज्य में संभव नही हो पा रहा है। सैन्य प्रशिक्षणों के अलावा सेनाओं को सैन्य शिविरों के लिए भी पर्याप्त भूमि चाहिये। उल्लेखनीय है कि राज्य के अधिकांश क्षेत्रों के विशाल भू-क्षेत्रों में आजादी के पश्चात व विशेषकर 1962 के चीनी विवाद के कारण सैन्य छावनियां लोगों से जबरन भूमि छीनकर बनाई गई भले ही बाद में उसका आंशिक मुआवजा दिया गया हो लेकिन वह भूमि के मुकाबले कुछ भी नहीं है। बद्रीनाथ, जोशीमठ, नीति घाटी, चमोली, गौचर, श्रीनगर, लैंसडाउन, मातली, नेलांग जादुंग, भैरों घाटी, हरशिल, रूड़की, देहरादून, चकराता, मंसूरी, रानीखेत, पिथोरागढ़, चम्पावत सहित कई अन्य ईलाकों में सेना के पास हजारों हेक्टेयर भू क्षेत्र पहले से ही है। अब सवाल यह उठता है कि राज्य की एक करोड़ जनसंख्या के लिए भूमि कहां से मिलेगी? 358 किलोमीटर लम्बे व 320 किमी0 चौड़े भू भाग वाले उत्तराखण्ड राज्य के लोग लगातार भूमिहीन होते जा रहे हैं। 53,484 वर्ग किलोमीटर भू क्षेत्र मे से लगभग 70 प्रतिशत (35,394 वर्ग किलोमीटर) भू भाग पहले से ही वन विभाग के अधीन है, जहां मानवीय गतिविधियों पर प्रतिबन्ध है। अर्थात राज्य के निवासी इस भूमि का उपयोग स्वंय के रोजगार व आर्थिक गतिविधियों के लिए नहीं कर सकते। अब भले ही सरकारों की अनेक योजनाओं से आंशिक व नियंत्रित आजीविका करने की बात की जाती हो। लेकिन पर्यावरण व वन कानूनों की कठोरता से आम जन इतने परेशान हैं कि वे इन पचड़ों में नहीं पड़ना चाहते हैं। राज्य में भूमि हीनता का दूसरा कारण राष्ट्रीय उद्यान, वन्य जीव विहार, वायोस्फियर रिर्जव जिनकी संख्या 15 तक पहुॅच चुकी है प्रमुख हैं। इन राष्ट्रीय उद्यानों के कारण सैकड़ों गांवों को उजाड़ा जा चुका है और कई उजड़ने की कगार पर खड़े हैं। लगभग 16606 राजस्व ग्रामों में से इन्हीं कारणों से 1665 ग्राम गैर आवाद हो चुके हैं। उत्तराखण्ड राज्य में यह तो सरकार की जरूरतों के कारण लोगों की भूमि हड़पी गई है। वहीं दूसरी ओर भूमाफियाओं व बिल्डरों ने राज्य के हर कोने में सैकड़ों हैक्टेयर भूमि खरीद ली है। 40 से अधिक पन बिजली परियोजनाओं ने सैकड़ों हैक्टेयर भूमि पर न सिर्फ कब्जा जमा दिया है बल्कि कई गांव उजाड़ बना दिये हैं। 95 प्रतिशत पर्वतीय भू भाग वाले राज्य की आवादी 5 प्रतिशत मैदानी भूमि पर मजबूरन डेरा जमाने के लिए जद्दोजहद कर रही है। देहरादून से लेकर टनकपुर की एक चौड़ी पट्टी में कंक्रीटों का भारी जंगल खड़ा हो गया है। भूमि न होने के कारण राज्य में ढ़ाचागत विकास ठप्प है। स्कूल, अस्पताल व अनेक विभागों के भवनों के लिए जमीन उपलब्ध नहीं है। इस कारण रही बची शिविल सोयम भूमि भी समाप्ति पर है। सरकारों में अगर स्कूल अस्पताल की बात करें तो वह ग्रामवासियों में जमीन दान देने की बात करती है। सेना से लेकर सरकार तक सभी की जमीन चाहिये। लेकिन जन संर्घष से बने राज्य के अन्य लोगों को भी अपनी जीविका चलाने के लिए भूमि चाहिये इस पर कोई बात करने को तैयार नहीं है। हाल ही में केन्द्र सरकार के फरमान पर भागीरथी घाटी में उत्तरकाशी से उपरी क्षेत्र को स्पेशियल इकोलॉजी जोन या विशेष पारिस्थितक क्षेत्र का नोटिफिकेशन जारी होने से एक और वन्य अभियारण्य बनाने का फरमान जारी हो गया है। इससे घाटी के सैकड़ों गांवों के हक हकूकों व आर्थिक गतिविधियों पर असर पड़ना लाजिमी है। पर्यावरण के पुरोधाओं के लिए यह खुशी की बात हो सकती है लेकिन उत्तराखण्ड राज्य के लोगों की जमीनों व आवोहवा पर यह अतिक्रमण धीमे जहर की तरह फैलेगा व फिर एक दिन लोग मैदानों की ओर नई जमीन की तलाश में भागते नजर आयेंगे।