उत्तराखंड आंदोलन का दस्तावेज
ब्योमेश जुगराण
वरिष्ठ पत्रकार हरीश लखेड़ा की किताब ‘उत्तराखंड आंदोलन : स्मृतियों का हिमालय’ को इतिहास समझने की ‘भूल’ कर लेने में कोई हर्ज नहीं है।
ऐसा इसलिए कि उत्तराखंड आंदोलन का कोई व्यवस्थित, विस्तृत और तथ्यात्मक इतिहास अब तक सामने नहीं आया है और इसकी दरकार आज भी है। पर हां, पहली बार है कि कोई पुस्तक वर्ष 94-95 के उस ‘विप्लव’ के आवेग और राजनीतिक हलचल को दस्तावेजी शैली के साथ सामने लाने का प्रयास करती नजर आई हैं . लेखक बहुत साफगोई से कह रहे हैं कि यह इतिहास लेखन नहीं है, एक विशेष कालखंड की स्मृतियां हैं। तब उत्तराखंड ने अलग राज्य की अपनी मांग पर पूरे देश को हिला रखा था। बकौल लेखक, यह उनका नैतिक कर्तव्य था कि वह इस आन्दोलन की रिपोर्टिंग करते। उन्होंने आंदोलन को ‘जनसत्ता’ में न सिर्फ कवर किया, बल्कि लेखकीय कर्म से इतर आंदोलनकारी की भूमिका भी निभाई। इस सक्रियता का ही परिणाम था कि वह घटनाओं के गवाह बने और स्मृतियों के साथ-साथ उन दिनों अखबारों में छपी कतरनों के संग्रह को पुस्तक के रूप में पिरो सके।
इस लिहाज से देखें तो उत्तराखंड आंदोलन से जुड़ी अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं के दस्तावेजीकरण का यह बड़ा काम हुआ है। यह पुस्तक तब खासकर दिल्ली में सक्रिय पत्रकारों व बुद्धिजीवियों के योगदान और सड़क पर लड़ाई लड़ रहे लोगों के तेवर को भी सामने सामने लाती है। बेशक पत्रकार तब घटनाओं को अपने-अपने नजरिये से देख रहे थे मगर वे घटित हुईं और इतिहास बनीं, यह पुस्तक इसका दस्तावेजी प्रमाण है। यह जरूर है कि उस दौर की अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं में छपे बहुत से विचार और प्रसंगों को यह पुस्तक खो रही है। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में मसूरी गोलीकांड पर विक्टर बैनर्जी की प्रत्यक्षदर्शी रिपोर्ट तब बहुत चर्चित हुई थी। ऐसे दस्तावेजों का हवाला इस किताब में जरूर होना चाहिए था। इसमें अन्यान्य पत्र-पत्रिकाओं के मुकाबले जनसत्ता की क्लीपिंगों का अधिक इस्तेमाल खटकता है। हालांकि यह लेखक का विशेषाधिकार है लेकिन आलोचक इस बहाने उन पर एकाधिकार का आरोप लगा सकते हैं। मुमकिन है ऐसा, शोध की दीर्घकालीन कठिनाई से बचने के लिए किया गया हो। बहरहाल हरीश लखेड़ा का यह काम उत्तराखंड आन्दोलन के सांगोपांग इतिहास पर गहन और शोधपरक काम करने को प्रेरित करता है और इसकी आवश्यकता को बलवान बनाता है। पुस्तक की बनावट, कलेवर और छपाई शानदार है।
लेख़क वरिष्ठ पत्रकार हैं