November 21, 2024



मैं हूँ देहरादून

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जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’


भारत के उत्तर में स्थित पर्वतराज हिमालय दुनियां का सबसे ऊँचा पहाड़ है।


अपनी नैसर्गिक सुंदरता के कारण हिमालय व इसकी गोद में बसे राज्य पूरी दुनियां को सैकडों वर्षां से आकर्षित करते रहे है। इसी हिमालय की श्रृंखला में बसा एक खूबसूरत प्रेदश है उत्तराखण्ड, जो प्राचीन काल से देवभूमि, केदारखण्ड आदि नामों से विख्यात रहा है। 9 नवम्बर 2000 को इसे राज्य की राजधानी के रूप में मान्यता मिली. देहरादून उत्तरभारत का अत्यन्त प्राचीन व खूबसूरत शहरों में प्रथम स्थान रखता है। यहाँ की आबोहवा, प्राकृतिक छटा सामाजिक व सांस्कृतिक माहौल हर किसी को मंत्र मुग्ध कर देती है। देहरादून एक प्रसिद्ध शहर है। लेकिन आज भी अधिसंख्य लोग यहां के इतिहास से बहुत ज्यादा परिचित नहीं है। आज इस लेख के माध्यम से में आपको देहरादून के इतिहास व इस शहर सें जुडे महत्वपूर्ण तथ्यों से रू-ब-रू करवाता हूँ। दरअसल देहरादून का इतिहास कई सौ वर्ष पुराना हैं। देहरादून से जब आप विकासनगर के निकट कालसी नामक स्थान की ओर जाते है, तो वहां पर एक विशाल पत्थर की शिला लेख है। इस शिलालेख के अनुसार एक क्षेत्र में ईशा पूर्व सम्राट अशोक के साम्राज्य होने के संकेत मिलते है। यहीं पास में यमुना नदी पहाड़ों की कन्दराओं से उतर कर मैदानों की ओर प्रवेश करती है। देहारादून की दूसरी ओर गंगा नदी है। जिसके पवित्र तट पर ऋषिकेश व हरिद्वार जैसे प्रसिद्व नगर बसे है।


देहरादून शहर के भूगोल पर नजर फेरी जाये तो एक तरफ छोटी-छोटी पहाडियां है, जिन पर सर्दियों में बर्फ अपना डेरा जमाती है। इन्हीं पहाड़ियों पर पहाडों की रानी के नाम से विख्यात मसूरी शहर बसा है। इसी पर्वत श्रृंखला में यमुना की उपरी पहाड़ी पर चकराता है, तो दूसरी ओर धनोल्टी, सुरकण्डा व कुंजापुरी जैसे प्रसिद्व स्थान है। लगभग तीनों ओर से पहाड़ों से घिरा देहरादून शहर एक ओर गंगा व यमुना की ओर खुला हुआ है। इसीलिए इसे दून भी कहा जाता है। खैर में अभी देहरादून के इतिहास को और विस्तार से आपको बताना चाहता हूं, चूंकि दून एक सुरक्षित पनाहगार थी व उपजाऊ कृषि भूमि होने के कारण तत्कालीन शासकों ने इस घाटी पर 1654 से पूर्व तथा बाद में कत्यूरियों व पंवार वंशी राजाओं का शासन रहा। लेकिन बार-बार हुए आक्रमणों के कारण यह शासन काल निरन्तर नहीं रह पाया। मुगलों के सेनानायक खलीलुल्ला खान के नेतृत्व में 1754 में मुगल सेना ने भीषण आक्रमण किया था। इस युद्व में सिरमौर के राजा सुभाष प्रकाश की मद्द से मुगलों ने गढ़वाल नरेश पृथ्वीशाह को हराकर देहरादून पर कब्जा कर दिया था। अपदस्त राजा पृथ्वीशाह को पुनः गद्दी इस शर्त पर दे दी गई कि वे मुगल सम्राट बादशाह शाहजहां को नियमित कर देते रहेंगे। लेकिन आक्रमणों का यह सिलसिला रूका नहीं। छुट-पुट आक्रमण गढ़राज्य की इस खूबसूरत दून घाटी में होते रहे। गढ़राज्य दोनों ओर से आक्रमणकारियों से घिरा रहता था। पर्वतीय छोर से जहां नेपाल व तिब्बत के आक्रमणकारी सक्रिय रहते थे, वहीं मैदानी छोर से मुगल व रोहिला आक्रमण में गढ़राज्य तटस्थ रहा करता था। देहरादून इस लिहाज से सबसे संवेदनशील घाटी रही है। 1772 में जब गढ़राज्य का कुमाऊँ क्षेत्र पर गोरखाओं के आक्रमण हो रहे थे उसी दौरान गुज्जरां ने देहरादून को खूब लूटा। इसके समाधान के लिए राजवंश के परिवार की पुत्री का विवाह गुज्जर शासक गुलाबसिंह से कर दिया गया। देहरादून में गुलाब सिंह का शासन बना रहा। इससे गढ़राज्य को थोड़ी राहत मिली। लेकिन तब भी देहरादून पर आक्रमणों का सिलसिला बहुत समय तक रूक नहीं पाया।

जब गढ़ राज्य पर प्रद्युम्नशाह का शासन शुरू हुआ ही था कि रोहिल्ला नजीब के पोते गुलाम कादिर के नेतृत्व में अफगानों का भीषण आक्रमण हुआ। इस युद्व में श्री गुरू राम राय के सैकड़ां अनुयायियों व शिष्यों को मौत के घाट उतार दिया गया। जिन्होंने हिन्दू धर्म को त्यागना स्वीकार किया केवल उन्हीं को छोड़ दिया गया। लेकिन अन्य लोगों के साथ निर्ममतापूर्ण व्यवहार किया गया। इसके पश्चात् सहारनपुर के राज्यपाल व अफगान प्रमुख नजीबुद्दौला ने देहरादून को अपने अधिकार में कर लिया। देहरादून पर मुगलों, गुज्जरों, सिक्खों, राजपूत नरेशों के बार-बार आक्रमण से देहरादून की उपजाऊ भूमि बंजर पड़ गई। प्रजा अपनी सुरक्षा के लिए देहरादून से सुरक्षित स्थानों पर पनाह लेने लगी। आक्रमणों का सिलसिला तब भी नहीं रूका। 1783 में सिक्ख प्रमुख बुधेल सिंह ने देहरादून पर आक्रमण कर इस घाटी पर कब्जा कर लिया। फिर 1786 में पुनः गुलाम कादिर ने आक्रमण किया। उसने पहले हरिद्वार को लूटा फिर देहरादून पर कहर बरपाया व नगर को बरबाद कर दिया। गढ़नरेश जिनकी सीमाएं जहाँ नेपाल-तिब्बत से लेकर हिमांचल व मैदानों तक फैली थी, गोरखाओं के आक्रमण से त्रस्त हो चुकी थी।


सम्पूर्ण गढ़राज्य पर गोरखाओं का राज्य स्थापित हो चुका था। 1801 में गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने देहरादून को अपने कब्जे में कर लिया। दूसरी ओर गढ़नरेश प्रद्युम्नशाह को अपनी राजधानी श्रीनगर छोड़कर हरिद्वार के पास दूसरे राज्य में शरण लेनी पड़ी। लेकिन राजा पुनः अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने का प्रयास करता रहा। राजकोष में जो भी सम्पदा थी, उसे बेचकर राजा ने 12 हजार रोहिला भाडे़ के सैनिकां की मद्द से देहरादून पर आक्रमण कर दिया। लेकिन इस भीषण युद्व में गढ़नरेश खुडबुड़ा के युद्व में मारे गये। लगभग 1803 में सम्पूर्ण गढ़राज्य, उत्तराखण्ड व हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सां में गोरखां का शासन स्थापित हो गया। देहरादून इस लिहाज में अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया था। गोरखों के शासन काल में जनता पर बहुत अत्याचार हुए। दूसरी ओर प्रद्युम्नशाह के पुत्र महाराजा सुदर्शन शाह ने अपनी सूझ-बूझ से अग्रेंज शासकों के साथ दोस्ती बढ़ाकर गढ़राज्य को हासिल करने का प्रयास किया। 1814 में नालापानी गढ़ी, जिस पर गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा के पुत्र बलभद्र का कब्जा था व जहां से वह देहरादून का शासन चलता था पर अंग्रेज जरनल जिलेस्पी के नेतृत्व में भीषण युद्व हुआ। जिसमें जिलेस्पी समेत कई ब्रिट्रिश अधिकारीयों को मौत का सामना करना पड़ा। लेकिन आखिरकार अंग्रेजां की सेना ने गोरखों को देहरादून से खदेड़ लिया। अब गढ़राज्य के लोग पुनः संगठित हो गये व अंग्रेजों के साथ मिलकर पूरे गढ़राज्य से गोरखों का शासन समाप्त कर पाने में सफल हुए। अंग्रेजों का साथ देने की शर्त पर पूरे गढ़राज्य को दो हिस्सों में बांटा गया। टिहरी-उत्तरकाशी का क्षेत्र गढ़नरेशों को मिला तो पौड़ी, चमोली व कुमाऊँ का पूरा इलाका अग्रेंजों के अधीन हो गया।

ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार देहरादून की स्थापना 1699 में हुई थी जब मुगल शासकों ने सिक्खां के गुरू, श्री गुरू राम राय को गढ़नरेशों से कहकर कुछ गाँंव दान में दिलवा दिए थे। बाद में श्री गुरू राम राय ने मुगलकालीन भवन कला के अनुसार गुरू राम राय दरबार भवन कला का निर्माण करवाया। जो आज एक ऐतिहससिक धरोहर है। गुरू का डेरा होने के कारण इसे देहरादून व आज का नया नाम पाण्डवों व कैरवों के गुरू, गुरू द्रोणाचार्य ने इसे अपनी तपस्थली बनाया था। इस कारण इसे द्रोणनगरी के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी भी कथा प्रचलन में है कि जब लक्ष्मण पर शक्ति लगी थी, तो बन औषधियां भी द्रोणनगरी की पहाड़ियों से प्राप्त की गई थी। कुल मिलाकर देहरादून प्राचीन काल से ही बहुत प्रसिद्व व लोकप्रिय नगरी रही है। गढ़नरेशों ने इस नगरी को बहुत सुन्दर ढंग से नियोजित किया था। ईस्ट कैनाल व वेस्ट कैनाल जैसी बड़ी व सुन्दर नहरों का निमार्ण कर अग्रेजों ने इसे यूरोप की तर्ज पर विकसित किया था व पूरे देहरादून को सिंचित कर उपयोगी खेती का माहौल बनाया। नहर पर विशाल घराटों के कुछ अंश आज भी देखने को मिल जाते है। लेकिन बढ़ती जनसंख्या ने शहर को अब विशाल महानगर का रूप दे दिया है। नहरों को भूमिगत कर उसके उपर सड़कें बन गई है। ब्रिट्रिश शासकों ने उत्तराखण्ड के अनेक प्रसिद्व पर्वतीय शहरों की स्थापना में जहाँ महत्वपूर्ण योगदान दिया, वहीं देहरादून के प्रति अंग्रेजों का विशेष प्रेम बना रहा। देहरादून की बासमती व लीची को जगप्रसिद्व करने में अंग्रेजों शासकां का बड़ा योगदान रहा। लेकिन आज यह फसलें समाप्ति के कगार पर है। देहरादून की इस मिटी पहचान से देहरादून के प्रेमी निराश है।




अंग्रेज शासकों ने 1871 से ही इसे जिला मुख्यालय बनाकर रेल, सड़क निमार्ण से जोड़ दिया था। अपनी नैसर्गिक सौन्दर्य एवं स्वास्थ्यवर्धक जलवायु के लिए विख्यात देहरादून हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों से घिरा हुआ है। जिसके चारों ओर शाल, शीशम के घने जगंल है। पल्टन बाजार, राजपुर रोड, चकराता रोड, लक्ष्मण चौक, धामावाला, धर्मपुर यहाँ के प्रसिद्व बाजार है। 1929 में बिट्रिश शासकों ने चकराता रोड पर वन अनुशंधानशाला व वनस्पति संग्रहालय स्थापित किया। ब्रिट्रिश साशकों ने देहरादून में अनेक राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्वि प्राप्त कई सस्थाओं की स्थापना की। 1932 में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी व 1922 में इंडियन मिलिट्री कॉलेज की स्थापना कर सैन्य प्रशिक्षण का कार्य प्रारम्भ किया। जो आज भी देश का गैरव बढ़ा रही है। भारतीय सर्वेक्षण संस्थान 1935 में दून स्कूल 1854 में सी0एम0आई0 ब्वाएज इंटर कॉलेज, 1878 में रेंर्जस कॉलेज, 1902 में महादेवी कन्या पाठशाला, 1914 में हाईस्कूल, 1938 में इण्टर तथा 1922 में डी0ए0बी0 कॉलेज जो 1946 में डिग्री व 1950 में पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज बना। स्थापित हुए शिक्षा के महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में देहरादून जग विख्यात बनता चला गया। 1966 में सेंट थॉमस, 1934 में सेंट जोसेफ एकेडमी, 1926 में कर्नल ब्राउन स्कूल, 1954 में कैम्ब्रियन हॉल, 1920 में हिन्दू नेशनल इण्टर कॉलेज, 1925 में साधू राम इण्टर कॉलेज, 1936 में श्री गुरूराम राय इण्टर कॉलेज, 1925 में गोरखा इंटर कॉलेज, वेलहम गर्ल्स व ब्वाएज स्कूलों सहित दर्जनां स्कूलों की स्थापना देहरादून में हुई। आज देहरादून कई विश्वविद्यालयां व शैक्षिक संस्थानों का आश्रय स्थल है। भारतीय पेटो्रलियम संस्थान, इंडियन इस्टीट्यूट फॉर रिमोट, भारतीय वन्य जीव संस्थान, मानव विज्ञान संस्थान जैसे अनेक महत्वपूर्ण संस्थान देहरादून में है। आज का आधुनिक देहरादून दुनियां के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रहा हैं। शिक्षा व स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण केन्द्र बन चुका है। अनेकां बडे़ अस्पताल व स्वास्थ्य शिक्षण संस्थान बन चुके है। लगातार यह उत्तर भारत के लोगों की सेवा का विशाल केन्द्र बनता जा रहा है। सन् 2000 में उत्तराखण्ड की राजधानी बनने के पश्चात् देहरादून का शहरीकरण तेजी से हुआ है। नागरिक सुविधाओं के साथ-साथ राज्य व्यवस्था का प्रमुख केन्द्र, विधानसभा, सचिवालय व अनेकों विभागों के मुख्यालय होने से देहरादून की महत्ता काफी बढ़ चुकी हैै। एक पहाड़ी व मैदानी संस्कृति के संगम के रूप में देहरादून का आने वाले भविष्य में भी महत्वपूर्ण स्थान बना रहेगा। टपकेश्वर, लक्ष्मण सिद्ध, सहस्रधारा, मानक सिद्ध, मालसी डियर पार्क व शहर के चारों ओर फैली सुरम्य घाटी आप सबका बेसब्री से इन्तजार कर रही है और कह रही है ।

खाये है जख्म मैंने सदियों से,

पर डिगा नहीं हूँ,

कई आये, कई गये,

पर में तो यहीं हूँ।

आओ, डालो डेरा,

मई हो या जून।

मैं हूँ देहरादून,

मैं हूँ देहरादून,

मैं हूँ देहरादून।