पुराणी टिहरीवालों का टीरी बजार -4
राकेश मोहन थपलियाल
टेहरी का अहलकारी मोहल्ला—-–अंतिम कड़ी
तो मित्रों ,कांति भाई के घर के आगे एक छोटा सा तप्पड़ था ,जबकि उसकी तुलना में सेमल – तप्पड़ के नाम पर तो एक पूरा मोहल्ला ही बसा था
और हमारा कुताली/ कोतवाली – तप्पड़ तो प्रमोशन पाकर आजाद मैदान बन गया था और प्रताप कालेज व मॉडल स्कूल के बड़े मैदानों को हम फील्ड ही कहने में ही गौरव महसूस करते थे और राजमाता कालेज के सामने का पोलो- फील्ड तो शुरू से ही फील्ड कहलाता था ? फिर भी हम जैसे मोहल्ले के कूपमंडूक बच्चों को ये लगता था कि सारे जहाँ से अच्छा ये हमारा छोटा सा तप्पड़ है और हम उसकी बुलबुलें हैं और वो हमारा गुलिस्तां है. सुबह हुई नहीं कि उसके आसपास के तमाम हिंदू –मुसलमानों के नौन्याल / छोरे , चाय पीने के बाद , घरवालों की नजर बचाकर, अपनी –अपनी पिल्ला –दाणी / गोळी लेकर, खेलने पहुँच जाते थे ? जिन बड़े –बुजुगों को कोई खास काम न होता ,वो भी धूप सेकने के नाम पर आ जाते और नौजवान दो –चार कश लगाकर दिल की प्यास बुझाने के बहाने आ जाते थे ? तो दोस्तों कंचे खेलने के भी कुछ नियम और प्रक्रिया होती थी , भले ही इस खेल में किसी रैफ़री की जरुरत नहीं पड़ती थी ? तो पहले तो कोई एक-आध इंच का रेडीमेड खड्डा देखो, जिसे इस खेल की शब्दावली में गुत्थी कहा जाता था और फिर थोड़ा उसको ही कुरेदकर कर रिफ्रेश करो और यदि चित्त नहीं बुझा तो फिर अपने लिए नया खड्डा खोदो ? फिर अगला चरण था नपना, जिसके लिए एक निश्चित स्थान पर खड़े होकर गुत्थी के छेद की तरफ अपना कंचा फेंकते थे और फिर गुत्थी से कंचे की दूरी के हिसाब से खेलने की बारियाँ तय होती थी कि कौन पहले खेलेगा ? खेलने के इस क्रम को हम मीर, दूल ,तिर्री आदि कहते थे.
फिर तीसरा कदम था बैठना / बसना, जैसे टेहरीवाले नई टेहरी और देहरादून में बसे हैं, ऐसे ही सब खिलाड़ी खुद के तय किये स्थान पर अपना कंचा रखते थे और गुत्थी पर कब्ज़ा जमाया मीर / मिर्री गड्ढे में अंगूठा रखकर दूसरे हाथ के अंगूठे और तर्जनी के बीच में अपना कंचा पकड़कर, गुत्थी में रखे हाथ की तर्जनी से दूलया दुर्री के कंचे को मारने का प्रयास करता था, लगा तो ठीक और फिर अपने कंचे को दुबारा गुत्थी के छेद में डालो और यदि सफल रहे तो फिर कंचा आपका वरना अब दूसरे की बारी है और उसे अपने स्थान से ही आपका कंचा शूट करके, गुत्थी में जाना है और यदि गया तो आपका कंचा उसका और फिर नए सिरे से खेलो . यदि दो से अधिक खिलाड़ी हैं तो आप पहले के बाद वहीँ से दूसरे,तीसरे ,चौथे कंचे को मारकर गुत्थी में वापस आ सकते हैं और एक ही राउंड में सबका मुंडन / खात्मा कर सकते हैं ? कोई –कोई खिलाड़ी अपने कंचे के बराबर में एक और कंचा भी रख देता था और जीतने वाले को दो कंचे मिल जाते थे ?
छुलबुल भी एक ऐसा ही कंचों का खेल था पर इसमे अपनी बारी के हिसाब से सब कंचों को एक साथ गुत्थी में फेंका जाता था और जो बाहर रह जाते उनमें से किसी एक को अपनी जगह पर ही खड़े होकर, अपने किसी अन्य कंचे से, फेंककर मारने को कहा जाता था . यह कंचा सामान्य कंचे से बड़ा होता था और इसे अडडू कहते थे. यदि निशाना लग गया तो वो या फिर सब कंचे उसके वरना सिर्फ गुत्थी में गए ही और कंचे समाप्त होने तक खेल चलता रहता था . बड़े युवा यही खेल छुपकर और गोलियों के बदले पैसों से खेलते और मारने के लिए अडडू के बदले छोटे चपटे पत्थर का प्रयोग करते थे ? इसके अलावा पंचपथरी और गेंदताड़ी ( गेंद फेंकर दूसरे को मारना ) भी खेली जाती थी ? या फिर सिगरेट की खाली डब्बी के बाहरी खोल को चपटा करके, हम जमीन में लकड़ी या पत्थर से एक गोल घेरा खींचकर उसके अंदर रख देते थे और फिर एक बड़े चपटे व नुकीले पत्थर से उनको घेरे के बाहर से मारकर, घेरे से बाहर निकालने की कोशिश करते थे और जब तक वो बाहर निकलते रहते वो ख़िलाड़ी के होते रहते और उसका खेलना चालू रहता वरना उसके आउट हो जाने पर फिर दूसरे की बारी ?
तो इस मैदान के एक तरफ पैन्यूली लोगों का एक बड़ा घर था, जिसके मालिक कामनी मोहनजी और जगमोहनजी थे, मैदान की तरफ के हिस्से में किरायेदार रहते थे व अंदर के हिस्सों में मकान मालिक ? हमारे बचपन में जयंती और परी नाम की दो बहनें अपने माता –पिता के साथ वहां रहती थी और बाद में कई सालों तक स्टेट बैंक के भाई रामप्रकाश भट्टजी वहां रहे. घर के आगे काफी बड़ा आँगन व बाड़ा था, जिसमें वो शाक सब्जी ,मुंगरी उगाते थे और कोने में एक आँवले का पेड़ भी था, जिस पर हम पत्थर फेंककर आँवले तोड़ते थे . यहाँ आने –जाने के लिए दो अलग-अलग दरवाजे थे, जिनमें से एक मैदान में खुलनेवाला छोटा लकड़ी का जंगला था और दूसरा आँवले के पेड़ की बगल में था. मालिकों का रास्ता अलग से था. और उस बड़ी खोली के ऊपर नारंगी रंग के हनिशकल के तिकोने फूलों की बेल थी. उसके वहां भी थोड़ा पीछे हटकर दो कमरों का एक सेट था व फिर एक दरवाजे के अंदर मुख्य भवन था, जिसका एक बड़ा चौक था व सामने एक बाड़ा भी था .
हमने इन पैन्यूली बंधुओं के माता –पिता को भी देखा था ? माँ उनकी सौतेली माँ थी, गोरी –चिट्टी, मेम जैसी. उनका एक लड़का प्रेम व तीन लड़कियां लता ,उषा व मीना थी. बड़ी दो को हम दीदी व मीना को मीना ही कहते थे क्योंकि वो हमारी हमउम्र थी . एस.डी.आई कामनी मोहनजी कुछ समय फ़ौज में भी रहे थे और फिर वापस एस.डी.आई और बेसिक शिक्षा अधिकारी भी रहे. उनका लड़का राकेश भी फ़ौज में ब्रिगेडियर था और उसकी बहनें वीणा, रजनी व खम्पी थी ? उसकी माँ गर्ल्स स्कूल में अध्यापिका थी और हम उनको हिम्मी बुआ कहते थे, क्योंकि उनका मायका मेरे घर के पीछे सुर्यदत्त बहुगुणाजी के यहाँ था . जगमोहनजी लम्बे पतले थे और शायद पी.डब्लू.डी में थे. उनकी पत्नी सुलोचना प्राइमरी में टीचर थी और उनका मायका पुराने दरबार में भट्ट लोगों के यहाँ था व उनका एक बेटा व बेटी थी. इनके घर का यह हिस्सा मुस्सी भाई लोगों के घर से लगता था. तो पीछे पश्चिम की तरफ नीलकंठ पैन्यूलीजी का घर और उनका छोटा बाड़ा था, घर का गेट हमारी गली में कांति भाई की खोलि के बगल में था और उनके बाड़े में लाल अमरुद के पेड़ थे . नीलकंठजी, बिक्रम कवी चाचा के मामा जी थे . उनके बड़े लड़के शक्ति प्रसादजी उत्तरप्रदेश सचिवालय में थे व उन्होंने लखनऊ में ही घर बना लिया था . छोटे पुत्र ने बचपन में बड़ी मौज की ,पढ़े नहीं और कारपेंटर बन गए और फिर काफी बड़ी उमर में विजातीय –विवाह भी किया और झुंतु दीवान के नाम से जाने जाते थे और रामलीला में ढोलक भी बजाते थे. उनके मकान में काफी लंबे समय तक ट्रेजरी में काम करनेवाला कैलाश भाई भी रहा और गली में खड़े होकर हम कुमाउंनी होली का गायन सुनते थे .उनके मकान में एक पौड़ी का मैठाणी परिवार भी काफी लंबे अरसे तक रहा उनके बच्चे राजू, बिरजू और नागी थे ?
कांति भाई के घर की बगल में तप्पड़ की तरफ कवियों का एक छोटा बाड़ा और उसकी बगल में कवियों की पतली गलि और उनका बगड़ था . जिसमें सर्वप्रथम पहले वरदराज कवीजी का घर था, मैंने उनको कई बार देखा था लेकिन हमारे समय में वो देहरादून में रहते थे और उनके पुत्रों की भी मुझे जानकारी नहीं है लेकिन उनका एक पोता पार्थराज कवी टेहरी स्टेट बैंक में ट्रांसफर होकर आया था व अपने ही घर में रहता था, उसकी पत्नी वीणा भी स्टेट बैंक में ही थी और टेहरी की ही व घंटाघर की गैरोला है ? इसी प्रांगण में रहनेवाली एक महिला का जिक्र मैंने फल्लू की माँ के नाम से भी सुना था ? इस मकान के पीछे ही पिता के बालमित्र, परम –सखा ,विक्रमवीर कवी उर्फ़ बिक्रम चाचा का घर था. चाचा के पिताजी की भी मुझे अच्छी याद है, उनका कद छोटा था व माँ लंबी थी . चाचा के बड़े भाई मदन मोहन कवी दिवंगत हो चुके थे और उनकी एकमात्र बेटी मुन्नी दीदी / सरिता हैं और लखनऊ में रहती हैं . दूसरे बड़े भाई महावीर प्रसादजी ट्रेजरी में थे और बाद में टेहरी बाँध के निदेशक ऑफिस में भी रहे थे . उनका बड़ा लड़का विन्देश स्वास्थ्य विभाग में था और उससे छोटा राकेश वेटनरी सर्जन है. उन की एक बहन का नाम गुड्डू और दूसरी का नाम तृप्ति है . तृप्ति दीदी राजमाता कालेज में पढ़ती थी और उनका लड़का ही शायद दून का युवा भाजपा नेता, रविन्द्र जुगरान है ,जिसके सितारे फ़िलहाल थोड़ा नरम चल रहे हैं और एक बहन हमसे छोटी थी , जिसका घरेलु नाम डुग्गी था . उनकी माँ, ताईजी का मायका सत्येश्वर मोहल्ले के पांथरियों के यहाँ था ? चाचा के एक छोटे भाई अंजनी कवी थे, जो बड़े हंसोड़, मजाकिया और बचपन में काफी छिद्दर थे ,जिनके किस्से काफी मशहूर थे और उनका उपनाम तिरथु था. लोग जहाँ नदी के किनारे पत्थर के पीछे बैठकर छुपकर शौच करते थे तो चचा पत्थर के ऊपर बैठकर और सामने से अख़बार ताने रहते और आने-जानेवालों को नमस्कार भी करते थे और लोग कहते थे ,कनु मुर्दा मरी येकु ?
एक बार तिरथु चचा सोते रह गए और सालाना इम्तहान का मौका था मोहल्ले के भगवती प्रसाद सकलानीजी प्रताप कालेज के प्रिंसिपल थे तो घर में पता करने के लिए चौकीदार भेजा गया तो पता चला भाई ढेंपुरे/ दुछत्ती में मस्त तान के सोए हैं, बुखार के नाम पे कंबल ओढ़के और किताब लेके चल दिए और चौकीदार को कहा मुझे घुंगु में उठाकर / पीठ पर लादकर ले चल. चाचा की बहन और हमारी बुआ का नाम तिरथि था और उनकी शादी पड़ियार गांव के मोहन सकलानीजी से हुई थी, जो सुरू भाई पैन्यूली के मामा थे ? छोटे भाई –बहनों में से किसी एक के जन्म के समय चाचा के पिता की उम्र 60 साल थी ? बिक्रम चाचा और मुन्नी दीदी की माँ का हमारे यहाँ आना या मेरे माता –पिता का उनके यहाँ जाना एक नित्य –नियम जैसा था . बिक्रम चाचा अविवाहित ही रहे, वे भी काफी विनोदी थे ? माना वो एक –दो दिन थोड़ा बीमार थे और किसी चाची ,मामी ने पूछा, “ अरे सुणी बिक्रम, तु बीमार थौ बळ चुचा ?” चाचा मजाक करते, “ ना साब कैन बोलि ,सुद्दी उड़ाई होली कै दुश्मन न ” और उनकी बोलती बंद कर देते. उन्होंने शादी नहीं की और अभी 96-97 की उमर में अपनी भतीजी के साथ लखनऊ में रह रहे हैं ?
विक्रम कविजी के पीछे उनके चाचाजी का मकान था, जिनके दो पुत्र मुन्नू –चुन्नू और दो लड़कियां सुधा दीदी और शीला थी . मुनेन्द्र कवी कृषि –अध्यापक और दूसरे भाई गोपाल कवी ,प्लानिंग ऑफिस में थे .माँ उन लोगों को मामाजी कहती थी. मुनेन्द्र कवीजी की लड़कियां के नाम उषा, लज्जू व बालक का नाम पित्री था . शीला की माँ को हमने देखा था और कहते हैं कि, एक बार उनके घर के पीछे के बाड़े में, जो उनके और मोनी मोसी के घरों के बीच में था, उनके ऊपर ,दिन –दुफेरे में एक बाघ ने आक्रमण कर दिया था और वो भी पीठ –पीछे से ? गोपाल कविजी के पिताजी का क्या नाम था पता नहीं पर मोहल्लेवाले उन्हें द हिंतु कवी कहकर पुकारते थे, उस समय भी उनकी उम्र लगभग 60-65रही होगी ? दुबले ,लंबे –पतले ,झुककर चलना, ,चश्मा और कुरता –धोती का पहनावा, मुंह में दांत नहीं तो आवाज भी गलबळ और सुनाई भी कम दे ? वो दिन में बाजार जाते और शाम को 3-4 बजे के करीब तप्पड़ में बैठकर अख़बार जमीन में फैलाकर पढ़ते ,बगल में बेंत रखी रहते और मोहल्ले के तमाम बच्चे , “ दादा चना , दादा चना ” कहकर उनके पीछे पड़ जाते थे और वो कुरते की जेब से निकालकर बच्चों को चना-लैंची दाना देते रहते और किसी बच्चे ने मसखरी की तो फिर डंडे से उसे डराते भी थे ? उनके घर में एक नेत्रहीन सज्जन भी रहते थे , जो शायद उनके भाई थे और उन्हें हम काणा –दादाजी कहकर पुकारते थे . उनके घर के पश्चिम में कवियों का एक विशाल बाड़ा था जिसमें शहतूत के पेड़ थे आम के पेड़ थे और दीवारें नहीं थी और कई कवि लोग इसमें हिस्सेदार थे . शहतूत को हम संक्षिप्त में तोंत कहते थे और जमीन में गिरे काले रसीले शहतूत की मिट्टी को हाथ से रगड़कर और फूक मारकर खाते थे ? कीटाणु –फिटाणु , इंफेक्शन और हैण्डवाश की सालों की ऐसी की तैसी और खाना खाने से पहले हाथ धोने के लिए भी घरवालों को दस बार बोलना पड़ता था ? पैरों की छोटी-मोटी मामूली चोट के मामले में बच्चे खून रोकने और घाव को डिसइन्फेक्टेन्ट करने के लिए अपनी सुश्सु का प्रयोग करते थे, पता नहीं ये कला हमने दादी –नानी के नुस्खे से सीखी थी या घर का वैद्य पुस्तक से ?
कवियों की लंबी लेकिन बिलांत भर चौड़ी गली के दुसरे बाजू में शुरू से अंत तक विरेन्द्र दत्त सकलानी मामाजी का विशालकाय भवन था . यह सीमेंट का पक्का मकान ,जिसका प्रवेशद्वार तप्पड़ की तरफ था, अंदर पहले फूलों का बगीचा था और फिर मुख्य भवन का दरवाजा फिर काफी कमरे, रसोई, उनके बाहर आँगन और फिर काफी खुली जगह व अंत में फिर कुछ कच्चे कमरे थे और उनके पीछे गौशाला . अन्य लोग जहाँ गाय पालते थे तो उनकी भैंस थी .वो पडियार गांव के माफीदार थे और मोहल्ले में वकील साहब के नाम से तथा शहर में एक बड़े आदमी के तौर पर जाने जाते थे . वो टेहरी रियासत के मुक्ति-संग्राम की अंतिम लड़ाई में एक प्रबल आन्दोलनकारी रहे व शायद राजशाही विरोधी संगठन प्रजामंडल के अध्यक्ष भी रहे और अंतरिम सरकार में भी रहे थे और स्वतंत्रता संग्राम –सेनानी भी थे. वे टेहरी नगरपालिका के अध्यक्ष भी रहे और एक बुद्धीजीवी थे. वे टेहरी बाँध विरोधी संघर्ष समिति के अध्यक्ष भी थे . टेहरी शहर को बचाने की उनकी जद्दोजेहद के बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है क्योंकि वे आम धरना प्रदर्शनों में कम ही भाग लेते थे बल्कि उनका अधिकांश समय कभी किसी केंद्रीय मंत्री तो कभी किसी भूवैज्ञानिक तो कभी किसी केंद्रीय समिति के सदस्यों के साथ पत्र –व्यवहार करने में ही चला जाता था और इस काम पर वो हजारों रुपये अपनी जेब से फूंकते थे . बाँध के संबंध में उन्होंने दुनियांभर से कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य, रिपोर्ट और जानकारियां जुटाई थी. हमारे टेहरी बाँध के विरोध का एक प्रमुख मुद्दा या कारण और चिंता भूकंप की संभावना के खतरे की आशंका को लेकर थी ? जिसे आज बाँध बन जाने के बावजूद भी ख़ारिज नहीं किया जा सकता है ? भले ही सरकार ने साम -दाम ,दंड- भेद की नीति चलाकर बांध क्यों न बना लिया हो ? हिमालय एक भूकंप –प्रवण/ संवेदनशील क्षेत्र है और कश्मीर से लेकर आसाम तक कहीं न कहीं रोज भूकंप आते ही रहते हैं ? उत्तराखंड में चमोली और उत्तरकाशी में भूकंप आ भी चुका है ? अमेरिका ने तो इसी वजह से बाँध बनाने से मना कर दिया था ? अब तुम क्या बोलते हो दोस्तों ? क्या भविष्य में कभी भूकंप नहीं आएगा ? अब तो भूकंप की संभवाना वाले क्षेत्रों के संदर्भ में जारी नवीनतम सूचि में दिल्ली जैसे कई नए शहरों का नाम भी आ चुका है ? फिर भी इस संदर्भ में मेरा व मेरे यार दोस्तों का , अपना घर व शहर डूब जाने के बावजूद भी, भगवान से यह विनम्र अनुरोध है कि, पहले तो दुनियां में कहीं भी भूकंप आए ही नहीं और हमारे पहाड़ों में यदि कभी आया भी तो फिर टेहरी डैम के आसपास न आए और फिर भी यदि आए तो फिर 2-3 रिएक्टर स्केल तक का छोटा –मोटा ही आए ? वैसे तो सरकारी विभागोंके दावों और रिपोर्ट पर कोई विश्वास ही नहीं करता, क्योंकि इसमें कई जानकारियां छुपा दी जाती हैं और सरकार का दावा है कि, टेहरी डाम 7 रिएक्टर स्केल तक का भूकंप झेल सकता है ? पर जब भगवान और सरकार ने हमारी पुकार तब नहीं सुनी, जब हमारा सब कुछ लुट रहा था , दिल से आह और कराह निकल रही थी, अरमान दफ़न हो रहे थे , हम अपनों से बिछुड़ रहे थे लेकिन प्रभु अब आप जरूर सुनो क्योंकि हम तो डूबे हैं सनम पर अब आगे किसी और को मत डूबने देना प्रभु ? आपने और सर्वोच्च न्यायालय के मी-लॉर्ड्स ने भी हमारी करुण पुकार ठुकरा दी थी और सरकार भी जानबूझकर गूंगी- बहरी बन गई थी ? फिर भी हम चाहते हैं कि आगे कोई चीख-पुकार और कोहराम न मचे ?
बहरहाल सकलानीजी , सुंदरलाल बहुगुणाजी और लखीराम सेमल्टीजी और उनके सहयोगियों ने अपने –अपने स्तर पर टेहरी को बचाने की बहुत कोशिश की थी और हमारी बुआ कादंबरी सकलानी और पिताजी व कवीजी की छुन्ना दीदी, बीसों वर्षों तक शहर की तमाम महिलाओं को लेकर पुल के पार नियमित रूप से धरने पर डटी रही और बाद में उनके धरना स्थल के निकट ही सुंदरलाल बहुगुणाजी भी टीन-शेड की कुटी बनाकर रहने लगे ? उनका मेंन मुद्दा पर्यावरण को लेकर और उससे जुड़ा था. उनका कहना था कि हिमालय को बचाओ और गंगा को अविरल बहने दो ? गंगा से पहले वो वनों को बचाने के संघर्ष व मुहीम से जुड़े हुए थे ? उनका नारा था कि, “ क्या हैं जंगल के उपकार —- मिट्टी, पानी और बयार ? बाद में मैं भी मुंबई से छुट्टी में टेहरी जाता था तो उनकी सुबह 4-5 बजे आजाद मैदान से निकलनेवाली प्रभातफेरी में शामिल होता था, बीबी सुबह 6 बजे उठती तो सोचती, पता नहीं कहाँ गायब हो गया ये आदमी ? प्रभातफेरी में हमारे नारे होते थे , “ कोई नहीं हटेगा, कोई नहीं डूबेगा और बाँध नहीं बनेगा ? ” कई दोस्त छेड़ते भी थे, “ यार भाई सुबह –सुबह क्यों नींद ख़राब करते हो ”. ?
सकलानीजी के वॉर –रूम में मेरे पिताजी और विक्रम चाचा अक्सर शाम को एक चक्कर जाया करते थे और फिर चाय पर चर्चा के साथ-साथ मामाजी उन्हें वो तमाम पत्राचार और रिपोर्टें दिखाया करते थे जो उन्हें उनके पत्रों के जबाब में विभिन्न सरकारी ,गैर सरकारी संगठनों, समितियों ,संस्थानों और शुभचिंतकों के माध्यम से प्राप्त होती थी . मामाजी की सात संताने थी. सबसे बड़ी सुशी दीदी हैं. उनके पति डाक्टर गैरोला टेहरी में जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख आधार स्तंभ थे ? शादी के बाद शुरू में दीदी कई वर्ष अपने पैत्रक मकान के पिछले हिस्से में भी रही थी . उसी हिस्से में मेरा मित्र उत्तरकाशी, रतूड़ी –सेरा का लोकेंद्र बहुगुणा भी रहा फिर सुभाष मंजखोला रहा और अंत में गर्ल्स स्कूल की अध्यापिका कमला गैरोला दीदी भी वर्षों तक वहां रही थी . दोनों भवनों के बीच एक पक्का चौक , बड़ा सग्वाड़ा एवं आम के तीन पेड़ थे . मामाजी की दूसरी लड़की शीला दीदी थी और उनके पति देहली में अध्यापक थे फिर जय भाई हैं जो नई टेहरी में सिविल मामलों के जानेमाने वकील हैं और शुरू में सरकारी अध्यापक भी रहे . फिर सुषमा दीदी थी, जो विनोवा भावे से काफी प्रभावित थी और उनके पवनार आश्रम में भी लंबे समय तक रही और अब वे शादी के बाद अपने परिवार के साथ लखनऊ में सेटल हैं. उनसे छोटी रेखा दीदी का तो 14-15 वर्ष की उमर में ही निधन हो गया था फिर रविन्द्र दत्त सकलानी उर्फ़ हमारे पुन्नू भाई हैं, जो अपने बालसखा थे और अपने साथ 11वी से पहले कभी पढ़े नहीं, वो स्टेट –बैंक में सेवारत थे और अब सेवा निवृत्त हैं . सबसे छोटा राघवेन्द्र सकलानी भी एडवोकेट था .
सकलानी मामाजी के घर में कई प्रख्यात हस्तियाँ आती रहती थी जैसे काका कालेलकर, सरला बहन आदि . एक वह भी दौर था जब शाम को उनकी बैठक में ब्रिज की महफ़िलें सजती थी और उनमें जज साहेब ,ध्यानीजी वकील और कई गणमान्य लोग शिरकत करते थे ? उनके छोटे भाई एडवोकेट लोकेन्द्र दत्त सकलानी भी इसी घर में रहते थे, बाद में उन्होंने पुराना-दरबार में स्टेट बैंक के सामने अपना घर बनाया था, वो टेहरी से विधायक भी रहे. उनके पडियार गांववाले घर में मामाजी की छोटी माँ और भाई शैलेंद्रदत्त व सच्चू सकलानी रहते थे. शैलू चाचा भी वकील थे, शुरू में पुन्नू भाई के घर ही रहकर वकालत करते थे .उन्होंने हमारे मोहल्ले में आर. एस.एस. की शाखा भी शुरू की थी पहले शायद बिल्ले –बाड़े में और फिर संगम के ऊपर बने नगरपालिका के पार्क में. पुन्नू भाई के घर के आखरी छोर पर भी एक दरवाजा था और उसके बाहर सड़क के उस पार आखरी छोर का जगदीश शरण रतूड़ीजी का मकान था, जिसके अंदर उस ज़माने का गवंडर –मास्टरजी का प्रायवेट प्राइमरी स्कूल था . गुरूजी बडोनीजी थे और हिटलर कट मूछ रखते थे और जब घर से बाहर जाते थे तो सर पर टोपी और हाथ में पीतल की मूठवाला मोटा बांस का डंडा भी रखते थे ,जिसका परिष्कृत नाम बेत था. यह अक्षर –ज्ञान प्राप्त करने और बुनियाद पक्की करने का स्कूल था. जगदीश शरण रतूड़ीजी का जिक्र होता था तो उनके साथ फिर आनंद शरण ,शंभू शरण और पित्रीशरण रतूड़ीजी का जिक्र सुनते रहता था . ये उनके भाई – भतीजे आदि थे . गोदी –सिरांई के रतूड़ी लोग भी काफी बढे –चढ़े और मशहूर लोग थे ? आनंद शरणजी शायद रूहेलखंड विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे और पित्रीशरण रतूड़ीजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे और बाद में एस.एस.बी. के महा –निदेशक भी रहे . जगदीश शरणजी की माँ को भी हमने देखा था और उनका बेटा वसंत भाई, कांति और जय भाई औरों के साथ का रहा होगा ? उनकी बहन मुन्ना दीदी थी और उनकी माँ को हम पुफूजी कहते थे . जगदीश शरण रतूड़ीजी के मकान में नगरपालिका के कर्मचारी, कुमांऊ के एक मासलीवालजी रहते थे,उनके लड़के श्यामू भाई और दिन्नू –बिन्नू थे. बाद में इस घर के बाहरी हिस्से में अनिल डोभाल, उसकी बहन राधा ,उषा और एक अन्य छोटी बहन भी रहती थी और वो लोग पंद्रह – बीस साल वहां रहे होंगे . अनिल के पिताजी श्री अनसूया प्रसाद डोभाल खूब लंबे और मजाकिया स्वभाव के आदमी थे व लिपटन चाय के सेल्स मैन थे .
अनिल के बाद ( तप्पड़ की तरफ ) पैन्यूली लोगों का बड़ा कोठा था . इसमें शुरू के हिस्से में सुरु उर्फ़ सुरेन्द्र पैन्यूली ,गोपाल दत्त शास्त्रीजी रहते थे, उनकी बाजार में किताबों की दुकान थी और उनके लड़के गणेश, पुन्नू व भैरव थे .गणेश का एक बड़ा भाई रम्मू भी था जो 15-16 साल की उम्र में ही चल बसा था . उसके दादाजी को भी हमने देखा था . गणेश बाद में टेहरी में अपने चहेतों के बीच शास्त्रीजी के नाम से मशहूर हुवा, वह एडवोकेट और पत्रकार भी था और विनम्र भी . सुरु भाई नार्मल स्कूल के प्रिंसिपल पद से सेवानिवृत्त हुए और उसके पूर्व वर्षों तक प्रताप कालेज में अध्यापक और एन.सी.सी. के टीचर भी रहे. संस्कृतिक कार्यक्रमों में भी उनकी बड़ी रूचि रहती थी . सुरु भाई की माँ पड़ियार गांव के सकलानी परिवार से थी. उनके बाद वीरभद्र पैन्यूलीजी रहते थे ,सीधे और शांत स्वभाव के व्यक्ति चाय के शौक़ीन. वे पी.डब्लू.डी. में थे, उनके लड़के कुशला / राधा, बोकरी ,राजमोहन और दिप्पू व एक लड़की भी थी . राधाकृष्ण पैन्यूली मेरे साथ बी.ए. में पढ़ा था. उसकी माँ को मै चाची कहता था और उनका स्वभाव बड़ा प्रेमळ था और मेरे घर उनका हमेशा आना –जाना लगा रहता था. कुसला के दादा-दादीजी को भी हमने देखा हुआ था ? फिर रहता था भुला राकेश पैन्यूली जो स्टेट बैंक से हाल ही में ब्रांच मैनेजर के पद से सेवानिवृत्त हुआ है और उसके पिता आई.टी.आई. में अध्यापक थे, उनका घर का नाम सत्तु था और असली शायद सत्य प्रसाद रहा हो ? राकी की माँ वनमाली भाई की माँ की बहन थी और उनका नाम लज्जू था. राकी की बहन का नाम रजनी था .उसके एक चाचा प्रेमदत्त थे वो सिलाई का काम करते थे और सबसे छोटे चाचा, सुंदरु पैन्यूली जो शुरू में मेरठ में थे, वो बाद में टेहरी आकर प्रेस का काम करने लगे थे और उनकी बातों का कोई सानी नहीं था और हमारा तप्पड़ ही उनकी कर्मभूमि/ प्रेसभूमि बना और ठेली पर ही उनकी दुकान सजती थी और उनकी सह्रदयता थी कि, कई बार चचा, बिन बोले ,घर पर भी कपड़े दे जाते थे . राकी की दादी की भी हमें अच्छी तरह याद है, उनका कद छोटा था और आवाज में कडकपन ? इसके अलावा शोभाराम दीवानजी भी इसी भवन में रहते थे .
फिर गली में आगे एक उनियालजी का बड़ा घर था, जो आधा तप्पड़ के मुहाने पर और आधा गली में स्तिथ था. उनियालजी अधिकतर दिल्ली में ही रहते थे और उनके मकान में किरायेदार ही रहते थे. सुनते हैं उनका दिल्ली में स्कूल था. वे कई बार टेहरी आकर सांसद का चुनाव भी लड़ते थे, सौ –दो सौ पोस्टरों और चंद पैम्पलेटों के भरोसे प्रचार होता था ? एक बार मेरे मामा लोग भी उनके यहाँ किराए पर रहे. एक एस.डी.आई भैरवदत्त बिज्ल्वाण भी रहे, वे दुआधार के पास के आगर के थे और हमारी एक नानी के भाई भी थे ,उनका पुत्र रमेश काफी पहले एक्जीक्यूटिव इंजीनियर था और तप्पड़ के पासवाले हिस्से में एक कोर्ट के नाजररहते थे, वो भी आगराखाल के पास के ही थे और उनकी एक लड़की का नाम सुशि था, वो हम से थोड़ा छोटी थी . उसके बाद फिर बीरू भाई रतूड़ीजी का मकान था, जो हमने शुरू-शुरू में बंद ही देखा था. बीरू भाई के पिता शिवप्रसादजी कहीं बाहर डिप्टी –कलेक्टर थे . बाद में उन्होंने पक्का मकान बनाया था. उनकी बहन शीला जोशी और शायद भाई अनिल भी हमारे समय में टेहरी में पढ़े थे. उनकी एक बहन का नाम उषा था और उनके पति विष्णु लखेड़ाजी पहले फ़ौज में थे और बाद में बी.एस. एफ. में भी रहे . अनिल भाई भी बी.एस.एफ में डाक्टर थे और काश्मीर के आतंकवाद का शिकार हुए थे. वे जय भाई सकलानी के साढू थे .
बीरू भाई टेहरी के वन विभाग के डी.एफ. ओ. भी रहे और गढ़वाल मंडल के कंसरवेटर या चीफ- कंसरवेटर भी रहे . उनका पैत्रक गांव भी गोदी –सिराईं था और उनकी माताजी, बच्ची पुफजी, दादी की बहन की सौतेली बेटीव गोरण की डोभाल थी. उनके एक पुराने घर में आई.टी.आई के प्रधानाचार्य गौड़ साहब भी रहे थे और इसे तोड़कर ही उनका नया मकान बना था व दूसरे पुराने में किरायदार रहते थे. उनके बाद ही सिराईं के सर्वप्रिय और सर्वविदित ललिता प्रसादजी रतूड़ी और मोहल्ले के लल्लू चचा का घर था . चचा की सपनों की और उड़ान की दुकान थी. उनके पास ही रंगीन शामों के जुगाड़ का जाम और पैमाना था ? चचा सर पर लंबी चोटी रखते थे और सर्दियों में भी नंगे पाँव ही चलते थे . उनके साथ उनके दो भाई भोटू और लामा चचा भी रहते थे. दोनों भाई पी.डब्लू.डी.में थे. भोटू चचा को पहाड़ी अंग्रेज भी कहा जाता था और वे फुटबाल खेलने का शौक रखते थे तो लामा चचा रामलीला में हनुमान का पार्ट खेळने का. लल्लू चचा के बेटे बब्बू, कान्हा और लड़कियां डुग्गी, मीना और एक उससे छोटी थी. भोटू चचा का लड़का विपुल गढ़वाल मंडल निगम में अभियंता है व उसका एक छोटा भाई और बहन भी थी .लामा चचा के भी एक दो बच्चे हैं, जिनके बारे में मुझे जानकारी नहीं है.
उनके पीछे एक रतूड़ी परिवार और था, उन बुढ़जी के पाँव में तकलीफ थी और उनके बड़े बेटे भगवती भाई टेहरी पावर हाउस में थे और उनके पास चक्कीवाले महादेव बडोनी की बहन थी और दूसरे भाई पता नहीं फ़ौज में थे या कहीं और और कई वर्ष लापता रहने के बाद घर लौटे थे. रेंजर बब्बू की बगल में एक परिवार और था उनके लड़के का नाम कुक्कू था ? उसके बाद पड़ियार गांव के माफीदार सज्जनानंद सकलानीजी का घर था .उनकी बाजार में पंसारी की दुकान थी.टेहरी में रहनेवाली उनकी पत्नी को मै ठगी दिदी और माँ मफिदारनीजी कहती थी और वो वो माँ को मामीजी कहती थी . दिदी निसंतान थी और मफिदारजी की पड़ियार गांव में दूसरी पत्नी थी ? ठगी दिदी के घर में एक नागपुरी पंडितजी और उनके हमशकल छोटे भाई भी रहते थे, एक पान खाए तो पनवाड़ी दूसरे से पैसे मांगे ? छोटे भाई शिक्षा विभाग में थे, इस घर में एक मलासी परिवार भी रहता था, दो बहने और एक भाई था और शायद डाक्टर ललित गुसाईं भी यहाँ कुछ समय रहा था . इसके बाद के घरों की गिनती हम अपने हिसाब से पुर्वियाना मोहल्ले में करते थे ?
हमारे मोहल्ले के तप्पड़ के आजूबाजु से जानेवाली दो बड़ी गलियों से रामपुर और डोबवालों का भी आना-जाना लगा रहता था वो लोग चोर-घाटी से भिलंगना से जंगार तरके अपने गांव आते –जाते थे और सुबह अपनी उपजाऊ जमीन की स्वादिष्ट सब्जियां राई, मूली, भिंडी, पहाड़ी –पालक और स्युचणे की भुज्जी लाते थे. खड़े –खड़े चलके नदी पार करने को स्थानीय भाषा में जंगार –तरना कहते थे ? जंगार शब्द मैंने इसके अलावा अन्यत्र कहीं नहीं सुना, हाँ गाड –गद्नों के संदर्भ में “ तरना ” जरूर कई बार सुना था, इससे उनके रोज के सफ़र के लगभग 7-8 किलोमीटर बच जाते थे और यह सुविधा बरसात को छोड़कर बाकि पूरे सालभर रहती थी और बाद –बाद में उन्होंने कब्रिस्तान के नीचे नदी में पत्थर की मिनार बनाकर और नदी के बीच के एक –आध पत्थर का सहारा लेकर उनके ऊपर लकड़ी का कच्चा पुल भी बनाया था ? घट्टो घाट की बगल का नाम चोर घाटी क्यों पड़ा ,ये तो शायद हमारे पुरखे ही जाने ? नाम से तो ऐसे लगता था जैसे कभी यह चोरों के छुपने की जगह रही हो ? हमने उसका नाम बदलकर चोर से चौरघाटी कर दिया था वहां एक चट्टान के नीचे ही एक छोटा सा ताल था, जिसमें शहर के कई बच्चे तैरना सीखे थे और यहाँ डूबने और बहने का भय भी नहीं था ?
वनमाली भाई के बाड़े में सिंदूरी रंग के ऐसे छोटे सिंदूरी आम होते थे, जिनकी महक हवा में फ़ैलकर राहगीरों को मदहोश कर देती थी और उनके स्वाद का भी जबाब नहीं था ? अपने मोहल्ले के छोटे से तप्पड़ में जहाँ हम स्कूल जाने से पहले ब्रेकफ़ास्ट में कंचे खेलते थे तो लंच और डिनर के बीच के काल में गुल्ली-डंडा, भाचों-पाला और तोमड़ी फट्टा जैसे खेल भी खेलते थे ? भिम्मळ की लकड़ी का मस्त गिल्ली –डंडा बनता था और नुकीली गिल्लियां हमारे कई बुजुर्गों की एक आँख को अपना शिकार बना चुकी थी, इसलिए अक्सर इस खेल को खेलने से मना किया जाता था . इस के अलावा तप्पड़ में खोखो, फुटबाल और बेस बॉल जैसा ही राउंड –रेस और क्रिकेट भी खेला जाता था ? लड़कियां भी रस्सी कूदना, बट्टी खिसकाना आदि खेलती थी पर जादा मजा उन्हें किसी के घर आँगन के किसी कोने में बैठकर गारे खेलने में आता था और छोटे लड़कों को भी सहर्ष इस खेल में शामिल कर लिया जाता था. इसके अलावा गुड्डे –गुडिया का विवाह भी रचाया जाता था और बारात भी आती-जाती थी और कई बार कुछ खाने के लिए भी दिया जाता था.
सर्दियों के मौसम में हम तप्पड़ के सामने वाले टाल से लकड़ी के छोटे छिलके मांगकर/ चुंगकर लाते थे और बड़ी लकड़ियाँ को चुराकर लाया जाता था और फिर आग तापने के साथ ही भूत –प्रेतों की कहानियां भी सुनाई जाती थी और बाद में घर जाने में डर भी लगता था ? कई बार हम पुन्नू भाई के घर के आगे तखत का स्टेज बनाकर कोई छोटा-मोटा नाटक भी खेलते थे तो प्रकाश/ मुस्सी भाई के घर के आगे बड़े तुन के पेड़ पर इस मौसम में सावन का झूला भी झूला जाता था ? कई बार अँधेरा होते ही हम डैंकण के पेड़ पर चढ़कर, तने में बने छेद के अंदर हाथ डालकर तोता/ कैल्डा पकड़ने की नाकाम कोशिश भी करते थे. हमारे मोहल्ले में कई लोगों के कुत्ते भी पाले हुए थे. कांति भाई का पूँछ कटा काला कुतरू था तो लल्लू चचा का भूरा टॉमी और एक दूसरा काला ऊँचा कुत्ता भी था, मुस्सी भाई का सफ़ेद कुत्ता था और मीना लोगों का लंबे बालों वाला, ऐसा ही कुत्ता सच्चु मामा लोगों के यहाँ और जन्नी भाई की खोली में भी था. इनमें से अधिकतर को बाग़ उठाकर ले गया था तो बाघ के नाम से हमारी भी सिट्टीपिट्टी गुम होती थी ? तप्पड़ में हमसे काफी पहले, आंवले के पेड़ के पास बैरिस्टर मुकंदिलालजी ने भी एक बाघ मारा था,उसने एक गाय मार दी थी. मुकंदिलालजी उस समय टेहरी में जज थे ? रात के समय बाड़ों में उसकी डुकरताळ और गलियों में चलते समय पैर की नाड़ियों की पड़क – पड़क या चटकने की आवाज साफ़ सुनाई देती थी ? अब कहाँ गई वो टेहरी, वो पल, वो क्षण और वो अहलकारी मोहल्ला जहाँ टेहरी के महान क्रन्तिकारी श्रीदेव सुमन भी रहकर पढ़े थे.
लेख़क मुंबई में निवास करते हैं