November 21, 2024



एक शख्सीयत पत्रकार वीरेन्द्र बर्त्वाल

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व्योमेश जुगरान 


परम आदरणीय वीरेन्द्र बर्त्वालजी तब नवभारत टाइम्स दिल्ली मे न्यूज एडिटर थे। मैं नभाटा के जयपुर संस्करण में था। 


जब भी दिल्ली आना होता, बर्त्वालजी से मिलने उनके दफ्तर जरूर जाता। ऐसे ही एक अवसर पर मिलने जा पहुंचा। काम में मशगूल वे आदतन अति आत्मीयता से मिले और पास बैठाकर कुशल क्षेम पूछने लगे। तभी कार्यकारी संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह अपने कक्ष से निकले और गैलरी की ओर जाते दिखे। बर्त्वालजी ने आव न देखा ताव, मेरा हाथ पकड़ा और सुरेंद्र प्रताप की ओर लपकते हुए मुझे उनके सामने खड़ा कर दिया। परिचय कराते हुए बोले- सुरेंद्रजी ये लड़का आजकल जयपुर में है, काम में अच्छा है। आप कहें तो मैं इसे यहीं रोक लूं। वैसे भी डेस्क पर लोग कम हैं। बर्त्वालजी के इस बालसुलभ व्यवहार पर एसपी मुस्करा दिए और बोले- ‘अरे..अरे.. बर्त्वाल साहब ऐसा जुल्म न करें। श्यामाचार्यजी (जयपुर के स्थानीय संपादक) मुझे कहीं का नहीं छोड़ेंगे। कहेंगे, मेरे आदमी को दिल्ली में रोक लिया। अभी इन्हें जाने दीजिए। मौका आएगा तो फिर कभी रोक लेंगे।’


इस घटना के साल-डेढ़ साल बाद अचानक एसपी के आदेश पर मुझे दिल्ली बुला लिया गया लेकिन तब तक बर्त्वालजी रिटायर हो चुके थे। दुर्भाग्य से मुझे उनके सानिध्य में काम का मौका नहीं मिला हां, उनके साथ काम कर चुके नवभारत टाइम्स दिल्ली में मेरे सहयोगी प्रणव कुमार सुमन की, उन्हें नमन करती यह टिप्पणी बहुत सी यादें ताजा करती है. वीरेंद्र बर्त्वाल का नाम याद आते ही एक ऐसे शख्स का चेहरा उभरता है जो परले दरजे का मृदुभाषी, सरल, सहज और दूसरे की पीड़ा महसूस करने वाला इनसान था। दुबली-पतली काया वाला यह इनसान खुद मेहनत करता था और कभी भी मतहतों पर रुआब नहीं गांठता था।

मैंने 1987 में उपसंपादक के तौर पर नौकरी शुरू की थी। पहली बार कुछ युवाओं को टाइम्स ग्रुप में दो साल के ठेके पर रखा गया था। मैं भी उनमें था। वरिष्ठ सहयोगी इस बात को गलत मानते थे कि निचले स्तर पर पत्रकारों को कॉन्ट्रेक्ट पर रखा जाए। लिहाजा वे मुझे तरह-तरह से प्रताडि़त करते और छोटी-छोटी गलतियों को भी राई का पहाड़ बना देते। मैं काफी व्यथित रहता था। ऐसे में बर्त्वालजी मेरे बचाव में सामने आए और मेरी हौसलाअफजाई की। हालांकि ऐसा नहीं था कि वह सिर्फ मेरी मदद करते थे। उनका स्वभाव ही ऐसा था। वह नए पत्रकारों से बेहद नरमी से पेश आते थे। उनके इसी गुण के कारण नए लोग उनके साथ काम करते हुए बहुत सहज महसूस करते थे। बर्त्वालजी की आदत थी कि वह चीफ-सब होते हुए भी डेस्क पर बहुत सारी स्टोरी खुद बना लेते थे। हां, उनकी एक आदत हमें तब बहुत अखरती थी कि वह खबरों पर हमारे शीर्षकों को अक्सर काट देते थे और खुद नई हेडिंग देते थे।


जब वह रिलेस्क रहते थे तो हमें हास-परिहास से जुड़े कई दिलचस्प किस्से सुनाया करते थे। बाद में वह समाचार संपादक बने। इससे जूनियरों को बड़ी सहूतियत हुई। उन दिनों नभाटा में अतिरिक्त समय काम करने पर 25 रुपये की पर्ची फूड अलांउस के नाम पर मिलती थी। तब पत्रकारों की तनख्वाह बहुत कम होती थी, इसलिए कई साथी इस पर्ची के लिए लालायित रहते थे। बर्त्वालजी अक्सर जूनियर पत्रकारों को खुद ही इस मद में मदद पहुंचाते रहते थे। जब भी किसी साथी को छुट्टी की दरकार होती, वे निराश नहीं होने देते। कभी कभी तो छुट्टी लेने को खुद ही कहते, बशर्ते उन्हें पता चल जाए कि फलां साथी के घर-परिवार में कोई परेशानी चल रही है। कहते- ‘दफ्तर में तो काम चल जाएगा लेकिन अपने घर की दिक्कत तो तुम ही दूर करोगे।’ उनकी इस दरियादिली से कई बार दफ्तर में मुसीबत खड़ी हो जाती, पर वे इसे स्वयं झेल लेते थे। रिटायर होने के बाद भी उन्हें साथी पत्रकारों की बहुत फिक्र रहती थी। जब भी कोई उनसे मिलता तो हर किसी के बारे में पूछते रहते। सबकी कुशल क्षेम और सहायता को लालायित वीरेंद्र बर्त्वाल आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन एक सौम्य और हमदर्द इनसान के रूप में हम सबके जेहन में वे हमेशा जीवित हैं। उन्हें शत-शत नमन।

लेख़क वरिष्ट पत्रकार हैं उन्हीं की फेसबुक वाल से साभार