पुराणी टीरिवालों का टिरी बजार – जारी
राकेश मोहन थपलियाल
टेहरी का अहलकारी मोहल्ला – भाग 2
अब जब मिशन हॉस्पिटल और महिलाओं के बी.टी.सी स्कूल तक पहुँच ही गए हैं तो आगे की कहानी क्यों न यहीं से शुरू करें ?
इससे चंद कदम आगे चलते ही गंगा – भिलंगना, दोनों के ही दर्शन होने लगते थे स्कूल के नीचे एक चौड़ा कच्चा रास्ता था, जिस पर शहर के अंतिम दौर में रेत के ट्रक चला करते थे, जो कि, स्कूल के ऊपर बने बाड़े में एकत्र होती थी . हमारा नदी जाने का रास्ता यहीं से था, कुछ लोगों का स्कूल के आगे से तो कुछ का पीछे से ? यहीं कच्चे चौड़े रास्ते के ठीक नीचे , पीपल के पेड़ के पास , स्वच्छकार भाइयों की एक बस्ती थी, इसे हम वाल्मीकि कालोनी या क्वार्टर कहते थे और शायद इसे सरकार या नगरपालिका ने बनाया था ? ये मिट्टी और टीन से निर्मित छोटे –छोटे घर थे . उन्होंने वहां एक पक्का –छोटा मंदिर भी निर्मित किया था. एक साल बरसात में भिलंगना का पानी उनके काफी निकट तक पहुँच गया था
बीटीसी स्कूल के नीचे और वाल्मीकि बस्ती के ऊपर से गुजरने वाला यह रास्ता सेमल तप्पड़ से लेकर संगम रोड तक जाता था. यदि हम नदी की तरफ न जाकर अपने मोहल्ले की तरफ चलें तो रास्ते के ऊपर एक बड़ा बाड़ा था , जिसके उपरी छोर पर हमारे समय में सकलानियों का टूटा हुआ, मकान था. वो भगवती प्रसाद सकलानीजी का मकान था, भगवती प्रसादजी प्रताप कालेज के प्रिंसिपल रह चुके थे, वो शिक्षा विभाग में डी.डी.आर.के पद पर भी रहे और बाद में यू.पी. बोर्ड के सचिव भी रहे. उनके शायद एक भाई या चाचा, शोभाराम सकलानीजी लंदन में भी रहते थे और छोटे भाई पिताजी के मित्र थे व सरकारी प्रिंटिंग टेक्नोलाजी संस्थान, इलाहाबाद के प्रधानाचार्य भी रहे उनका नाम सुरेंद्रदत्त और दोनों भाइयों के शायद इलाहाबाद में मकान हैं . भगवती प्रसादजी के एक लड़के विपुल को कई बार सुशील भाई के मार्तंड होटल में देखा था. उनके दो भाई अतुल और मुकुल भी हैं , जिनमें एक गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर में प्रोफ़ेसर थे.
दोस्तों जो मै आपको बताता हूँ वो खाली देखी-सुनी बातें हैं . उनकी प्रमाणिकता की मैंने पुष्टि नहीं की है, न मै इंटरनेट में सर्च करके लिखता हूँ और न मुंबई में कोई पास पड़ोस में पूछने के लिए ही है ? अतः आप इसे किसी ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में न देखें बल्कि इसे खाली एक देखी –सुनी कहानी के रूप में लें . सकलानीजी के घर के आगे हमारी भट्टयाण दादी ने, हमारे समय में एक घर बनाया था और जमीन शायद सकलानी परिवार से खरीदी गई थी. दादी का असली नाम शायद सुरेशी देवी थपलियाल था और उनकी हल्की –फुल्की काया के कारण एक उपनाम चिड़िया भी दे दिया गया था और वो डाक्टर मोहन भट्ट की बुवा थी और पहले उनके ही साथ रहती थी ?
आजकल मै देखता हूँ कि, महिलाओं में अपने नाम के आगे मायके व पति दोनों की जाति/ उपजाति लिखने का प्रचलन है पर उस ज़माने में भी लोग कई महिलाओं को उनके मायके के नाम से ही संबोधित करते थे ? दादी के किराये में हमारे समय के डिग्री कालेज के बड़े बाबू सुधाकर थपलियालजी बीसों साल तक रहे, वो भूतपूर्व फौजी भी थे. उनके लड़के का नाम योगी व लड़की गुड्डी और मीना है . उनके बगल में कोटद्वार की तरफ के एक ए.डी.ओ. कालाजी भी दो –ढाई दशक तक वहां रहे. उनका एक लड़का गुड्डू व लड़की का नाम पिंकी था ? कई बच्चों के स्कूली नाम का अपने को पता ही नहीं है ? दादी के घर से बाहर ,नल की तरफ निकलते हुए किसी एक और मकान की आधी –आधी दीवारें नजर आती थी ,पता नहीं ये घर कभी किसका रहा होगा ? इसके के पीछे ही बाद में प्रताप कालेज के बड़े बाबू श्री. नन्दराम डोभालजी ने भी एक सुन्दर पक्का घर बनाया था. डोभालजी छमुंड के थे. उनके तीन लड़के और दो
लड़कियां हैं. जिनमे बड़ा भगवती हमारे साथ पढ़ा था . इन दोनों –तीनों घर में से किसी न किसी में हमारी माँ या दादी का अक्सर आना लगा रहता था . डोभालजी के सामने ही हमारा भी बाड़ा था, जिसमें कभी हमारे भुमडे रहे होंगे. बाद में हमने दूसरा ठिकाना बनाया था. ऐसा सुना था कि, यह जगह या घर हमने चांदपुरी परिवार से ली थी या फिर किसी और से ली हो ?
भट्टयाण दादी के घर से निकलते ही सड़क पर,एक पानी का एक एकमात्र सार्वजनिक नल था. सब वहीँ से पानी भरते थे और उसकी ही लाइन से हमें भी शायद मोहल्ले में पहला पानी का कनेक्सन मिला था. इस नल के बाजू से ही नदी का रास्ता था और दूसरी तरफ सेठजी का अमरुद का बगीचा था . नल की बगल में ही गणेश थपलियालजी का एक दुतल्ला टीन का घर था ,जिसमें कभी किरायदार रहते थे तो कभी खाली रहता था, यहाँ प्रख्यात कम्युनिस्ट लीडर विद्यासागरजी भी रहे थे ? यहाँ एक छोटा तिराहा था, जिससे हमारी गली, सेठजी के घर और भिलंगना जाते थे. यहाँ किसी ज़माने में एक लैम्प पोस्ट थी. जिसमें शाम को कांच का लैम्प जलाकर रखा जाता था. घरों के बरामदे में लालटेन या कांच के लैम्पों से रौशनी होती थी, चूल्हे के खादरे में टिन का छोटा गोल लैम्प रहता था तो कोई –कोई कांच की छोटी बोतलों के ढक्कन में छेद करके उसका भी भी लैम्प बना देते थे , इसीको ही जुगाड़ कहा जाता है और अंग्रेजों के लैम्प को हम लोग अपनी बोली में लम्पू बोलते थे ? घर के बाहर के खादरों में भी कोई – कोई लोग दिया जलाकर रखते थे “ तमसो माँ ज्योतिर्गमय ” ताकि राहगीरों को प्रकाश मिले और ठोकर न लगे ?
शाम, अँधेरा होने से पहले ही लैम्प या लालटेन की चिमनी पर जमा कालिख को साफ़ करना, उनकी बत्ती ठीक/ एडजस्ट करना, उनमें तेल भरना आदि भी रोजमर्रा के जीवन का एक अंग था. अँधेरे से लड़ने के लिए, उजाले में ही सभी व्यवस्था करना जरुरी था ? वर्ना दुश्मन सर पे आके खड़ा हो गया और तब आप बंदूक खोजोगे तो क्या होगा ? बोतल का मिट्टी तेल लम्पु में कम जायेगा और फर्श पर जादा खतेगा = गिरेगा और रनिंग लम्पु में तेल डालने में तो और भी खतरा होता था ,आग लगने का ? रोशनी का एक जरिया टॉर्च भी होती थी, अँधेरे में आने –जाने के लिए ? शुरू –शुरू में यह भी एक विलासिता जैसी चीज थी ? बाद में तो गांव में भी अनिवार्यता बन गई और स्ट्रीट –लाइट के अभाव में आज भी बदस्तूर चल रही है ? इसका एक उपनाम तब बैटरी भी था और बैटरी को सेल कहकर पुकारा जाता था , यह एक रेडीमेड रोशनी है, बटन दबाओ और काम शुरू . मोबाइल के बदले पहले इसे ही लोग सिरहाने रखकर सोते थे और अब तो यह मोबाइल में ही घुसादी गई है पर आज भी प्रासंगिक है ?
अच्छा आप यदि यह सोच रहे हैं कि, ईसवी सन 1960 के पूर्व गांव में लम्पु संस्कृति के साथ –साथ केड़ों और छिलकों का भी जमाना होता था तो भाई मेरे टेहरी में भी सबके बाड़ों में अंत समय तक भीमल के एक –दो पेड़ होते थे और घरों में तब भले ही गायों की जगह स्कूटर या बाईक ने लेली थी और गौशाला में किरायेदार रख दिया गया था लेकिन लम्पू युग तक अधिकतर घरों में गायें होती थी और फिर गाय के लंच या डिनर में भिम्मल के पत्ते खा लेने के बाद,उसकी लकड़ियों को भिलंगना में डुबाकर, उनसे सेलु निकाला जाता था और उससे दांवे बटे जाते थे और केड़ों से चुल्ले में आग सुलकाई जाती थी ,क्यों ? बाद में जब शहर और गलियों में बिजली आई तो लैम्प –पोस्ट की जगह पर खम्बों का कब्ज़ा हो गया. मेरी गली के मुहाने पर इसी बिजली के खंबे के सामने और गली व मेंन –रोड, दोनों सटा भाई वनमाली पैनु्लिजी का घर था, घर क्या था, एक बड़ी हवेली जैसा था वह , काफी पुराना और बड़ा मजबूत, क्या पता कहीं चूने और उरद दाल की पिट्ठी की चिनाई से चिना हुआ न रहा हो ,जिसमें सीमेंट की तरह दरार भी नहीं पड़ती थी. लगता था यह काफी पुराना था और शायद 19वीं सदी के शुरू का जो न रहा हो.
मैंने उनके दादाजी और पिताजी को तो नहीं देखा था पर उस घर के संदर्भ में ये सुना था कि इसमें उनके दादाजी श्री नरहरीदत्तजी और दादा के भाई भैरवदत्तजी रहते थे. नरहरीदत्तजी राजा के पुलिस महकमे से संबंधित थे और भैरवदत्तजी डिप्टी कलेक्टर थे . भैरवदत्तजी के शायद एक ही पुत्र थे , बलबीर प्रसादजी, जो मेरे बाल्यकाल में मसूरी रहते थे . बनमाली भाई के पिताजी का नाम श्री महावीर प्रसाद था और वो स्वास्थ्य विभाग में थे और भाईजी जब 9 वर्ष के थे तब उनके पिताजी का निधन हो गया था ? उनके चाचा श्री रघुवीर प्रसाद क्रन्तिकारी थे और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे और भारत आजाद होने के बाद वे उत्तर प्रदेश पुलिस में नियुक्त हो गए थे और टेहरी आते रहते थे और मै जब 10 वीं -11 वीं में रहा हूँगा तो उस वक्त वह श्रीनगर में 22वीं बटालियन पी.ए.सी. के कमांडेंट थे व छोटे चाचा सुरेन्द्र दत्तजी पूना में आर्डनेंस फैक्ट्री में थे .
बनमाली भाई से ये भी पता लगा कि और भी कई पैन्यूली लोग पहले दिवान रह चुके थे और उन लोगों का इतिहास लगभग 400 साल पुराना है और वो शायद इस पर कुछ प्रकाश डालने का भी विचार रखते हैं . उनसे यह भी पता लगा कि, सीताराम भाई लेख्वार गांव –भदुरा के थे . उनकी एक बुआ श्रीमती कादंबरी देवी टेहरी के प्रसिद्ध अधिवक्ता एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री बिरेंदर सकलानिजी की धर्मपत्नी थी और दूसरी बुआ प्रशिद्ध विद्वान व लेखक श्री भगवती प्रसाद पांथरीजी की धर्मपत्नी थी . पांथरीजी की दो पुस्तकें “ अधः पतन और भूतों की खोह ” मेरे संग्रह में थी . पांथरीजी काशी विद्यापीठ के कुलपति भी रह चुके थे और बनारस में ही बस गए थे . उनकी शायद एक बुआ और भी थी, जिनका नाम शायद रामी बुआ था . बनमाली भाई का लड़का फ़िलहाल लंदन में है और एक लड़की पूजा दून में अधिवक्ता है व छोटी ममता के पति कार्तिक एयरफ़ोर्स में विंग कमांडर थे. ममता ने उत्तराखंड आंदोलन में भी काफी बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था . भाभीजी हमारी प्राध्यापक थी और देवल के बडोनी परिवार से हैं .उनकी सास और हमारी बडीजी मायके से उनियाल थी और उनका मायका टिंगरी गांव में था .
इन तथ्यों में थोड़ा बहुत ऊपर –नीचे भी हो सकता है, क्योंकि ये सुनी –सुनाई बातों पर आधारित हैं . उनके घर के पीछे ही 4-5 फिट के अंतर पर मेरा घर था. मेरे दादा के बड़े भाई श्री ईश्वरी दत्तजी 1865 के आसपास टेहरी राजा की सेवा में अपनी माँ और छोटे भाई के साथ राजा की सेवा में आए थे .मेरे दादा तब 9-10 के रहे होंगे . उनके पिता कुमांऊ कमिश्नर के पेशकार थे .उनकी 3 पत्नियाँ थी और पिता के निधन के बाद पौड़ी कमिश्नरी की अप्रेंटिसशिप छोड़कर वो टेहरी आये थे व विभिन्न विभागों में काम करने के बाद महाराजा के निजी सचिव भी रहे थे .उनकी एक ही पुत्री श्रीमती सावित्री देवी थी जो निसंतान थी और जूनियर हाईस्कूल की हेडमिस्ट्रेस पद से सेवानिवृत हुई थी .उनकी ससुराल चौरास –श्रीनगर के पास थी. मेरे दादा हजूर कोर्ट में सिरेस्तेदार थे . मेरे पिता श्री रामप्रसाद थपलियाल अपने माता –पिता की एकमात्र संतान थे और नार्मल स्कूल टेहरी में अध्यापक व प्रधानाचार्य रहे व अंत में उत्तरकाशी से बेसिक शिक्षा अधिकारी के पद से 1982 में सेवानिवृत्त हुए हालाँकि उनका समस्त जीवन अध्यापन में ही बीता था . माँ श्रीमती चमेलीदेवी का मायका, कुजणी पट्टी के चौंपा में था पर उनका ननिहाल सत्येश्वर मोहल्ले के नौटियाल परिवार में था ,जो राजगुरु थे . इसलिए वो टेहरी में ही पलीबढ़ी और शहर के समस्त नौटियाल लोग उसके मै –मुमा थे . मेरे दो युवा भाइयों की मृत्यू भी टेहरी में हुई थी एक गिरीश मोहन बारहवीं में था और भिलंगना में तैरते हुए 1975 में बहा तो दूसरा एल.एल.बी. पास करने के बाद, करियप्पा फुटबाल के लिए खिलाड़ी लेकर आने के चक्कर में 1987 दिसंबर में बहादराबाद के पास जीप दुर्घटना में घायल होकर देहली के लोहिया अस्पताल में जनवरी 88 में दिवंगत हुआ .
मेरे घर के पश्चिम में सेठ खेमराजजी का बाड़ा था तो पूर्व में मौसाजी गिरधारीलाल डंगवालजी का घर था, जो पहले जन्नी भाई के घर के अहाते में रहते थे . मौसी वैसे तो थपलियालो की बेटी थी और पिताजी को भतीजा कहती थी पर हम उसे मौसी कहते थे और वो माँ को दिदी और मैं उनकी सास को दिदी कहता था . उनका नाम भी कलावती था और मेरी दादी का नाम भी ? दोनों डंगवाल थे ,दादी मायके से और दीदी ससुराल से . मेरी दादी का मायका अठूर के पजों में था और बाद में वो लोग राजगांव- सिराईं में बस गए थे . गिरधारी मौसाजी भी अपने परिवार की एकमेव संतान थे . उनके दो पुत्र मुन्ना व शिब्बू और 5 बेटियां ,माधुरी ,मंजू ( दिवंगत ),पुन्नी ,शांति व रेखा हैं . मौसाजी सार्वजनिक निर्माण विभाग में एकौंटेंट थे . उनके घर के आगे एक पतली गली के बाद मौसीजी की सगी बहन हर्षी पैन्युली बुआ का मकान था उनके पति महावीर प्रसाद थे और देवर का नाम नंदकिशोर था. दोनों भाइयों की बाद में अनबन के कारण उनका नया बना मकान, बिना पलस्तर व दरवाजे –खिडकियों के वैसे ही खड़े –खड़े सड़ गया. उसके आगे ही प्रदीप पैन्युली – मुस्सी भाई आदि का घर था. हमारे मोहल्ले की ये गलियां मुश्किल से एक-डेढ़ फिट चौड़ी थी ?
अब अगर हम फिर पीछे अपने लैम्प पोस्ट या बिजली के खंबे की ओर लौटें तो यह ही हमारी मेन –रोड थी, जिससे हम बाजार जाते थे . इसमें बनमाली भाई के घर का पिछला हिस्सा पड़ता था क्योंकि मकान का मुंह पूरब की ओर रखने का रिवाज था. उनके एक किरायेदार कंडारीजी थे . वो एक अच्छे इंसान थे . तो इस घर के सामने जाख के पास के जगदीश डोभालजी का घर था, वो अध्यापक थे. उसके आगे वनमाली भाई का एक छोटा बाड़ा था और उसके पीछे ही हमारा बाड़ा भी था . वनमाली भाई के घर का एक दरवाजा इस मुख्य सड़क पर उनके इस बाड़े के सामने ही खुलता था तो दूसरा मेरे घर के पीछे की गली में खुलता था. बड़ीजी और माँ का गंगा स्नान के लिए आना –जाना साथ में होता था और फिर दिन में एकाध चक्कर इधर –उधर का लगता ही था, अन्य सहेलियों की तरह उन दोनों के बीच भी कट्टी –बट्टी चलती रहती थी ? भाईजी के घर अंदर ही उनका एक बड़ा बाड़ा था, जिसमे एक चंपा का पेड़ भी था, जिस पर काफी बड़े मनमोहक सफ़ेद फूल खिलते थे और शायद शहर में अन्य कहीं इस फूल के पेड़ नहीं थे ? एक पत्तलवाला पेड़ भी था जिसके पत्तों से लोग शादी ब्याह में पुडखे –पत्तल बनाते थे . एक बेल /बेलपत्री का वृक्ष भी था, अमरुद व अंजीर का पेड़ भी था .
आगे बाहर सड़क पर एक पतली गली थी, जिसे गुरु कौंकी गली कहते थे . इसके अंदर घुसते ही एक अमरुद का पेड़ था, जिसके अमरुद तोड़ने में लोगों को इसलिए आसानी रहती थी क्योंकि मालिक की खोली थोड़ा अंदर की ओर थी और बंद रहती थी . वह नौटियाल परिवार का मकान था, जिसके मुखिया का नाम शायद श्री विद्यादत्त था और वे देहरादून में रहते थे लेकिन परिवार यहीं रहता था. बुढ्जी का नाम पूर्णा था और मामाओं के नाम रंभा, द्वारी, इंदु , कम्मू और राजू थे और मौसी का नाम मोहिनी बड़ोनी उर्फ़ मोनी था .वो यहीं गर्ल्स स्कूल में अध्यपिका थी और उनके पति समाजसेवी एवं पुराने कांग्रेसी थे और उनका कार्यक्षेत्र / ठिकाना, ऋषिकेश था. मौसी की दो बेटियां रेखा और प्रभा व एक बेटा अतुल है. मैंने मौसी को दादी को भी देखा था . मेरे बचपन में कम्मू और राजू मामा प्रताप कालेज में पढ़ते थे .कम्मू मामा फुटबाल के खिलाड़ी थे और मौका मिलने पर मारेडोना की तरह हाथ से गोल करने में भी नहीं चूकते थे ? उनके घर के नीचे ,पश्चिम में उनका एक बड़ा बाड़ा था ,जिसमे आंवले का एक पेड़ था और मोहल्ले की औरतें होली से पहले आंवला एकादशी की पूजा वहीँ करती थी . इस घर में उनके एक चाचाजी व बाकियों के शब्दों में पंडितजी विवा –गुरु भी रहते थे. वे विनय जैन की दुकान से संबंधित अंदर –बाहर के काम देखते थे व नवरात्रों में मोहल्ले के घरों में देवी की पूजा/ पाठ भी करते थे, बाकि वो कथा करना या वर्षफल लगाना आदि अन्य कोई कार्य नहीं करते थे .
उनके आगे एक खाली बड़ा बाड़ा था ,जिसमे बाद में बरकत मियांजी के बेटे शौकत मियां ने अपना घर बनाया था . उसके पीछे /बाजु में कांति भाईजी बहुगुणा का घर था, जिसका फ्रंट –फेज हमारे तप्पड़ में था. उनके पिताजी का नाम गरिबानंदजी था . कांति भाई के बड़े भाई बिल्लू भाई थे और दो बहनें शैला और सुशीला दीदी थी. सुशीला दीदी राजमाता कालेज में टीचर थी . उनके पति प्रोफ़ेसर और पडियार गांव के सकलानी थे .एक शायद जयपुर में रहती थी . बिल्लू भाई एस.एस .बी. में थे और कांति भाई पी.टी. आई थे व भाभी रामकौर टीचर . कांति भाई का नाम इसलिए भी लोकप्रिय है क्योंकि अनेक लड़के उनके पेड़ से चकोतरे, किम्पू और निम्बू चुराते थे और खटाई बनाकर खाते थे ? चकोतरे, और किम्पू भी बेचारे इतने सज्जन थे कि, बाड़े की छोटी सी दीवार पर और उसके बाहर लटके रहते थे . उनके घर से ये पेड़ काफी दूरी पर थे और घर की बौंडरी –वाल के अंदर होने के बावजूद भी बाहरवालों का जादा साथ देते थे . (जारी )
लेख़क मुंबई में कार्यरत हैं