मैं उत्तराखण्ड का वन हूँ, तिल तिल कर मर रहा हूँ
महावीर सिंह जगवाण
मैं उत्तराखण्ड का वन हूँ, पल पल हर पल तिल तिल कर मर रहा हूँ.
सरकारों के संरक्षण मे जो मेरी दुर्गति हुई है वह किसी से छिपी नहीं, अब बस और बस एक ही विकल्प बचता है, मै संवाद करना चाहता हूँ उत्तराखण्ड के जन मानस से, जिनके पित्रों और पूर्वजों की अनुकम्पा मे मेरा रक्षण हुआ, जिनके लिये मै पुत्र समान था. यहाँ तक मुझे वन देवता स्वरूप मे पूजा भी जाता था. मै आप सबके पूर्वजों के संग हर्षित पुलकित था. मेरे वन उपवन मे नाना प्रकार के कीट पतंग मधुमक्खी, विभिन्न पच्छी, शूक्ष्म से लेकर विशालकाय जीव जन्तु, औषधि से युक्त अनमोल वनस्पतियाँ कंद मूल फल फूल थे. मेरी ढलानो पर बसे मुस्कराते फलते फूलते गाँव,पशुधन से सम्मपन्न और सीढी नुमा खेत, जिनपर मोटी परत बिछी होती थी गोबर की खाद रूप मे, मिट्टी उर्वरा होती और वर्षा जल का अवशोषण करती भरपूर, फिर दूर कहीं तलहटी पर मोती सदृश रिसती बूँदे अमृत का अहसास दिलाती।मानव एक पीड़ी से दूसरी पीड़ी बढता गया. मै जिनकी पहली किलकारी सुनता था दशकों बाद दीर्घायु संग वेदना भरी विदायी का साक्षी भी हूँ,अहसान हैं मुझ पर तुम्हारे पूर्वजों के मुझे पनपाने और संजोकर रखने मे इनका बड़ा अनमोल योगदान रहा सदा. एक बार नहीं कई बार लालची भेड़िये मेरा वजूद मिटाने आये, लेकिन मातृ शक्ति ने डटकर किया मुकाबला. मै मैदान तक फैला था, मानव की महत्वाकाँक्षा ने मुझे काट काट कर खेत खलिहान बनाये. वहाँ तो मेरा वजूद ही मिट गया है जैसे, लेकिन मै तुम पहाड़ के लोंगो का अहसान मंद हूँ जो चाहते तो मेरा वजूद मिटा देते, लेकिन तुम्हारे पूर्वज युगद्रष्टा थे. ज्ञान और विज्ञान के ज्ञाता थे उन्हे पक्की तरह पता था मानव और वन का एक दूसरे से ही वजूद है और रहेगा. लेकिन सायद नये जमाने की जात और जमात यह समझने से कतरा रही है।
सरकारों के संरक्षण मे जो मेरी दुर्गति हुई है वह किसी से छिपी नहीं, अब बस और बस एक ही विकल्प बचता है, मै संवाद करना चाहता हूँ उत्तराखण्ड के जन मानस से, जिनके पित्रों और पूर्वजों की अनुकम्पा मे मेरा रक्षण हुआ, जिनके लिये मै पुत्र समान था. यहाँ तक मुझे वन देवता स्वरूप मे पूजा भी जाता था. मै आप सबके पूर्वजों के संग हर्षित पुलकित था. मेरे वन उपवन मे नाना प्रकार के कीट पतंग मधुमक्खी, विभिन्न पच्छी, शूक्ष्म से लेकर विशालकाय जीव जन्तु, औषधि से युक्त अनमोल वनस्पतियाँ कंद मूल फल फूल थे. मेरी ढलानो पर बसे मुस्कराते फलते फूलते गाँव,पशुधन से सम्मपन्न और सीढी नुमा खेत, जिनपर मोटी परत बिछी होती थी गोबर की खाद रूप मे, मिट्टी उर्वरा होती और वर्षा जल का अवशोषण करती भरपूर, फिर दूर कहीं तलहटी पर मोती सदृश रिसती बूँदे अमृत का अहसास दिलाती।मानव एक पीड़ी से दूसरी पीड़ी बढता गया. मै जिनकी पहली किलकारी सुनता था दशकों बाद दीर्घायु संग वेदना भरी विदायी का साक्षी भी हूँ,अहसान हैं मुझ पर तुम्हारे पूर्वजों के मुझे पनपाने और संजोकर रखने मे इनका बड़ा अनमोल योगदान रहा सदा. एक बार नहीं कई बार लालची भेड़िये मेरा वजूद मिटाने आये, लेकिन मातृ शक्ति ने डटकर किया मुकाबला. मै मैदान तक फैला था, मानव की महत्वाकाँक्षा ने मुझे काट काट कर खेत खलिहान बनाये. वहाँ तो मेरा वजूद ही मिट गया है जैसे, लेकिन मै तुम पहाड़ के लोंगो का अहसान मंद हूँ जो चाहते तो मेरा वजूद मिटा देते, लेकिन तुम्हारे पूर्वज युगद्रष्टा थे. ज्ञान और विज्ञान के ज्ञाता थे उन्हे पक्की तरह पता था मानव और वन का एक दूसरे से ही वजूद है और रहेगा. लेकिन सायद नये जमाने की जात और जमात यह समझने से कतरा रही है।
मै साल दर साल बार बार जलाया जा रहा हूँ. हर बार पनपने की शक्ति को खो रहा हूँ, जिनकी जबाबदेही है मेरी रक्षा करने की वह तो मेरे वजूद के मिटने का इंतजार कर रहे हैं. हर बरस अरबों पेड़ लगाते हैं कागजों मे वृक्षारोपण और पर्यावरण के नाम पर जबकि कड़वी सच्चाई है कुछ सैकड़ा या हजार दो हजार विना जड़ के पेड़ रोपे जाते हैं. ऐसे जैसे मानो अहसान हो, हजारों मील दीवालें लगती हैं वृक्षारोपण के बचाव और वनाग्नि से सुरक्षा के नाम पर लेकिन आज तो दशकों पुराने दीवालें भी लापता हैं. चाल खाल के नाम पर करोड़ों डुबाकर अपनी सेहत खूब चमकाई है मातहतों ने और तो और मेरे अंग अंग और रोम रोम के जलने की भी कीमत अपने लाडलों पर लगा रहे हैं. आखिर मेरी हाय की जबाबदेही कहाँ रूकेगी।
मै मौन हूँ, बर्फ से लकदक हिमालय की वजह से, जीवनदायिनी गंगा की वजह से, सम्मपन्न जैवविवधता की वजह से, मेरी हिम्मत का टूटना इन अमर अस्तित्वों को धराशायी कर देगा. मेरे राख मे तब्दील होते ही यहाँ तो वियवान मरूस्थल बन जायेगा. आखिर कैंसे और कब तक बार बार पुनर्जन्म की जिद्द के सहारे जीने की क्षमता बटोर पाऊँगा। मै भी भावुक हूँ कीट पतंग के संग वन्य जीवन और वनस्पतियों हवाऔं झरनो माटी और वादियों से बेइन्तहा मुहब्बत और ममता है मुझे जिनके हजार बार जलने मरने तड़पने के वावजूद फिर लौट जाता हूँ। मै दशकों से वह खेल देख रहा हूँ जो मेरे अपने थे. जो मुझे समझते थे, जिनमे ताकत थी मरहम लगाने की वो तो अब दिखते नहीं, पराये अपने हो सकते नहीं इसी लिये तो वजूद है मेरा खतरे में।
हे धर्म कर्म ज्ञान विज्ञान पर इठराने वाले लोगो मेरी दशा पर दया करो मेरे वजूद की रक्षा करो मै सदियों से तुम्हारे लिये अपना सर्वस्य अर्पण करता आया हूँ. विश्वास दिलाता हूँ सदियों तक तुम्हारी संतत्तियों की रक्षा करता रहूँगा। अपने पूर्वजों की मान्यताऔं का स्मरण कर मेरे अनमोल मोल को पहिचानो।
दश कूप: सम: वापी:
दश वापी: सम: हृद:
दश हृद: सम: पुत्र:
दश पुत्र: सम: द्रुम:
यानी दस कुओं से बड़ा पुण्य छोटे से तालाब से अर्जित होता है. कुआँ मानव मात्र के ही हित मे है जबकि छोटा तालाब जिसे लोकभाषा मे चौंरा या खाल कहते हैं यह मानव के साथ अन्य पशु पच्छियों के लिये भी हितकारी है। ऐसी ही दस छोटे छोटे तालाब की अपेक्षा एक बड़ा तालाब निर्मित करने से अनगिनत पशु पच्छियों और मानव को लाभ मिलता है जो पुण्य दायी और हितकारी है। ऐसे दस बड़े तालाबों की रचना से जो हर्ष और पुण्य मिलता है वह एक सन्तान की उत्पति से प्राप्त होता है और दस सन्तानो सदृश सुख आनन्द पुण्य एक वृक्ष को लगाने से मिलता है। फिर हे मानव तुम्ही बताऔं हर दिन वनाग्नि से मेरे वन उपवन के कितने वृक्ष नष्ट हो रहे हैं और यह सब देखकर भी तुम्हारे रोंगटे खड़े नही हो रहे, तुम भय मुक्त बने हो, मै धू धू कर जल रहा हूँ। मेरे अस्तित्व के बिना तुम कितने दिन जी पाऔगे जरूर चिंतन मनन करना।
ज्ञान विज्ञान और रसूख के साथ सालों जीने की ख्वाहिश पाले हे मानव तू जिस प्रगति पर इठराता है वह बनावटी है. आज भी मै जल कर टूटकर फिर भी तुम्हारी और तुम्हारे शहर की पूरी कार्वन सोख रहा हूँ और तुम्हें जीवनदान देने के लिये खरबो टन ऑक्सीजन दे रहा हूँ,मेरे जो अपने थे जिनके पूर्वजों के लिये मै सन्तान सदृश था. जिनका मै वन देवता था वो न जाने दुनियाँ के मेले मे कहाँ खो गये,आखिर आखर पढकर वो जान गये थे. अब तक सरकारें विकास का उजाला गाँव तक नहीं पहुँचा पाये तो खाक उनके पास जमाने का उजाला आयेगा वैसे भी पीढियों की छोटी जोत वाली खेती उनके लिये पेट भरने मे असमर्थ है. पारम्परिक नस्ल के पशुधन और बीज इस करेंसी के युग मे उन्हें आगे बढाने की अपेक्षा धक्का ही देंगे। वैसे भी मेरे वन मे शाकाहारी जीवों और मांसाहारी जीवों की शंख्या मे प्रकृति मे और पारिस्थितिकी मे भारी अंतर की परिणति अब गाँव गली तक आदमखोर जानवरों की पहुँच ने दहशत बढा दी है। शियार और गिद्ध की कमी ने वन सूकरों की शंख्या मे इतना इजाफा कर दिया है वह तो सबकुछ बर्बाद कर रहे हैं. गाँव गली मुहल्लों मे यहाँ की प्रकृति और प्रवृत्ति से भिन्न वानरों की टोलियों ने जीना दूभर कर रखा है. अब तो सदाबहार पानी के धारे नोले गाड गदेरे भी विलुप्त हो रहे हैं, न हाथ को काम है और न ही दाम की गारन्टी फिर कैसे रूकेगा मेरा कोई इस देवभूमि मे।
लेकिन बहुत सोच विचार कर मुझे न जाने क्यों आस अब बस अपने उन लोंगो से ही है जिनका ताना बाना और बचपन जुड़ा है मेरी यादों से। हाँ और हाँ मेरी रक्षा सिर्फ और सिर्फ उत्तराखण्डी ही कर सकते हैं। इनके विना नर्क जैसा जीवन हो गया है मेरा। मै साल के दस महीने जल रहा हूँ, वर्षा मे चीथड़े उड़ रहे हैं, जो वर्षा की बूँद कभी सीढीनुमा खेतो मे संचित होती थी वह आज बंजर ऊसर है. उसमे पानी की बूँद भी नहीं रिसती, जैसे बरसता है पानी मेरे भू भाग से सोने जैसी मिट्टी को अपने संग लेकर गाद के रूप मे गाड गदेरों से होकर पावन जीवन दायिनी नदियों मे बहजाता है और सड़ने के लिये मानव की महत्वाकाँक्षा के बाधों की तलहटी पर मोक्ष की आकाँक्षा मे इकट्ठा होकर सड़ता है. प्रदूषित कर देता है गंगा के अमृत सदृश जल को भी, मेरी तपन से मखमली बुग्याल झुलस रहे हैं, पिघल और दरक रहे हैं ग्लेशियर मुझे राख का ढेर बनने से बचाऔ, ऐ मेरे अपनो मेरा करूण रून्दन तो सुनो भले करना अपने मन की।
हे पहाड़ों की जड़ो से जुड़े होने का दंभ भरने वालो मेरे कराह पर चिंतन करो,मै कब तक जलूँगा, आखिर सायद तुम समय पर नही जागे तो एक सभ्यता एक युग का अंत के निकट होने मे कोई संदेह नही। तुम सबने मुझे सरकारों के हवाले कर लावारिस बना दिया, मेरे बत्तीस हजार वर्ग किलोमीटर के संरक्षित वन और ग्यारह हजार वर्ग किलोमीटर के वन पंचायत अधीन का भू भाग, इस पूरे का आधा से भी अधिक भाग महीनो से जल रहा है. मेरी चीख जापान से लेकर अमेरिका तक सुन रहा है लेकिन तुम आँख मे पट्टी और कानो मे रूई रखे हो, क्या तुम्हारी नाक भौंह की घ्राण और संवेदनता की शक्ति का भी क्षय हो गया। कभी कहते हो पृथ्वी दिवस,कभी जैव विवधता दिवस, अब कुछ दिन बाद विश्व पर्यावरणदिवस पर चिल्लाओगे। कभी रिस्पना के पुर्नजीवन की बात कभी गंगा के जीवन पर चिंता मनन करते हो लेकिन मेरे जलने पर सदा मौन रहने वाली ब्यवस्था एक दिन नियति सम्मुख मै भी मौन रहकर सबकुछ देखूँगा।
हे मेरे अपने लोगो तुमने तो अब दुनियाँ देख ली, तुम अब पढलिखकर सबकुछ जान गये होंगे, उठो जागो मेरे आधे से भी बड़े हिस्से पर बाग बगीचे वन उपवन लगाऔ मै वादा करता हूँ, जिस दिन तुम सब यह शुरू कर चुके होंगे उस दिन से मुझे आग की वेदना से मुक्ति मिलेगी, मै भी अपनी जैवविवधता से तुम्हारी मेहनत की रक्षा करूँगा, हाथ मे विज्ञान लेकर गंगा के आधे पानी को चोटियों तक पहुँचाऔ, फिर देखना तुम्हारी पीढियाँ सम्मपन्न होंगी, हिमालय सम्मपन्न होगा, भारत माँ गर्वित होगी तुम्हारी सम्मपन्नता पर, सदा सदा के लिये मुझे अग्नि रूपी दानव से मुक्ति मिलेगी। मेरा भाग्य तुम्हारे हाथों है, मै वन तुमसे जीवन की भीख माँगता हूँ, मेरे ऊपर उपकार करो। मुझे कहाँ अपने वजूद की चिन्ता मूझे तो अंतिम सांसो तक कुदरत की हर रचना की रक्षा करनी है, मुझे तो सूक्ष्म कीट पतंग मधुमक्खी से लेकर पशुपच्छी और नाना प्रकार की वनस्पतियों के संग जीवन रूपी जल और विवेक रूपी मानव की रक्षा का जिम्मा है, जिसका वफादारी से निर्वहन मै अंतिम सांसो तक करता रहूँगा।
मै वन हूँ अपनी सुरक्षा का जिम्मा फिर से अपने हक हकूक धारियों को देता हूँ, सरकारों से विनती करता हूँ आधे से भी अधिक बड़े हिस्से को मेरे हक हकूक धारियों को दे दो, ये वहाँ बाग बगीचे लगायेंगे, इन्हें सहयोग करो ,अब इनके शिवा कोई भी विकल्प नहीं। मै दशकों से जलता घुटता वन दया की भीख माँगता हूँ अपनो से और अपनी सरकारों से अब मुझे मेरे हाल पर छोड़ने की चूक कभी न करना।फिर तो मै सदा के लिये विदा ले लूँगा।
लेख़क पर्वतीय चिन्तक व सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं
फोटो सौजन्य – अजय रावत