यात्रा – पार्कस्टेट व क्लाउड ऐण्ड मसूरी
विजय भट्ट
माउंट ऐवरेस्ट इस धरती का सबसे उंचा पर्वत शिखर है। इसका पुराना नाम सागरमाथा है।
भारत के प्रथम महासर्वेक्षक जार्ज एवरेस्ट की स्मृति में उनके उत्तराधिकारी एण्ड्रयू वाॅ के सुझाव पर सागरमाथा शिखर का नाम एवरेस्ट रखा गया। अब पूरी दुनिया इसे एवरेस्ट के नाम से जानती है। जार्ज एवरेस्ट का जन्म 4 जुलाई 1790 को इंग्लेण्ड के ग्रीनिच में हुआ था। वह सोलह साल की आयु में 1806 को ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी करने भारत आये थे फिर वो बंगाल आर्टलरी में सेकेण्ड लेफ्टिनेंट के पद पर भर्ती हो गये। गणित व खगोल विज्ञान में उनकी महारत को देखते हुए जावा के गर्वनर के कहने पर वे जावा द्वीप का सर्वे करने गये। वहां का सर्वे करने के बाद वह 1816 को बंगाल लौटे। वहां गंगा और हुगली पर ब्रिटिशर्स की जानकारी में इजाफाा किया तथा कलकत्ता से बनारस तक लगभग 400 मील का सीमोफेयर सर्वे का काम किया। इसी बीच दि ग्रेट टिगनोमेट्रिकल सर्वे आफ इण्डिया के तत्कालीन सुपरिन्टेंडेटं कर्नल विलियम लेम्बटन ने अपने सहायक से रूप में 1818 में हैदराबाद में नियुक्त किया।
भारत के प्रथम महासर्वेक्षक जार्ज एवरेस्ट की स्मृति में उनके उत्तराधिकारी एण्ड्रयू वाॅ के सुझाव पर सागरमाथा शिखर का नाम एवरेस्ट रखा गया। अब पूरी दुनिया इसे एवरेस्ट के नाम से जानती है। जार्ज एवरेस्ट का जन्म 4 जुलाई 1790 को इंग्लेण्ड के ग्रीनिच में हुआ था। वह सोलह साल की आयु में 1806 को ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी करने भारत आये थे फिर वो बंगाल आर्टलरी में सेकेण्ड लेफ्टिनेंट के पद पर भर्ती हो गये। गणित व खगोल विज्ञान में उनकी महारत को देखते हुए जावा के गर्वनर के कहने पर वे जावा द्वीप का सर्वे करने गये। वहां का सर्वे करने के बाद वह 1816 को बंगाल लौटे। वहां गंगा और हुगली पर ब्रिटिशर्स की जानकारी में इजाफाा किया तथा कलकत्ता से बनारस तक लगभग 400 मील का सीमोफेयर सर्वे का काम किया। इसी बीच दि ग्रेट टिगनोमेट्रिकल सर्वे आफ इण्डिया के तत्कालीन सुपरिन्टेंडेटं कर्नल विलियम लेम्बटन ने अपने सहायक से रूप में 1818 में हैदराबाद में नियुक्त किया।
1823 में लेम्बटन की मुत्यु के बाद जार्ज एवरेस्ट ने उनका कार्यभार संभाला। मसूरी में हाथीपांव के पास 1827 में ही उन्होंने अपना मकान बना लिया था। सन् 1830 में वे भारत के पहले महा सर्वेक्षक नियुूक्त होने पर 1832 को मसूरी आ गये। दिसम्बर 1832 को एवरेस्ट ने अपने मकान के पास ही लगभग दो सौ एकड़ क्षेत्रफल वाली पार्क स्टेट कर्नल व्हिश से खरीद ली। लम्बे समय तक उनका यह आवास खगोलीय प्रेक्षणशाला तथा त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण के काम का मुख्य केन्द्र रहा।जार्ज एवरेस्ट अपने साथ मध्य भारत से 500 मील उत्तर ग्रेट आर्क को भी हिमालय क्षेत्र में साथ ले आये थे। 1834 में एवरेस्ट ने देहरादून और आगरा को आधार रेखा मान कर महान चाप पर काम करना शुरू किया। आम लोग आम भाषा में एवरेस्ट का कम्पास वाला सहाब बोलते थे। लाख चाहने के बावजूद भी सरकार ने उन्हें मसूरी में स्थाई कार्यालय स्थापित करने की मंजूरी नही दी। तब देहरादून के ओल्डसर्वे रोड़ पर सर्वे.क्षण कार्यालय बना। जार्ज एवरेस्ट के साथ उनके सहयोगी कर्नल एण्ड्रयू वाॅ ने मिलकर सन् 1836 में ग्रेट आर्क के साथ चोटी संख्या 15 की उंचाई मापी थी जिसे उस समय सागरमाथा कहा जाता था। 1843 में वे सेवामुक्त हुये और उनका स्थान कर्नल वाॅ ने लिया। तथा एक साल बाद ही जार्ज एवरेस्ट इग्लेण्ड लौट गये जहां 1866 में उनकी मृत्यु हो गई। जिस महान खोजी गणितज्ञ भूगोलविद् घुमक्क्ड़ वैज्ञानिक के जार्ज एवरेस्ट की याद में इस दुनिया की सबसे उंची चोटी का नामकरण किया गया था उसका मसूरी व देहरा से गहरा संबन्ध रहा है।
पार्कस्टेट जाकर उस वैज्ञानिक के मकान को देखने की इच्छा मन में न जाने कब से थी पर जाकर देखने का अवसर ही नही मिला था। इस कोरोनाकाल में इन्द्रेश के साथ की जा रही घुमक्क्डी के दौरान वह दिन आ गया और हम 17 जुलाई को चल पड़े पार्क स्टेट हाथी पांव मसूरी के लिये। हम साढ़े दस बजे के लगभग मसूरी लाइब्रेरी पर पंहुंच चुके थे। यहां से हमारी बाइक पश्चिम दक्षिण दिशा की और क्लाउड एण्ड जाने वाली सड़क पर मुड़ गई। थोड़ा सा आगे चल कर दांये हाथ की तरफ फे्रन्च स्टाईल की खूबसूरत लाल रंग लिये एक महलनुमा कोठी दिखाई दी। हमने अपनी बाईक को साईड में खड़ा कर दिया और इस फ्रांसीसी वास्तुकला के आधार पर बने इस महल को निहारने लगे। यह कपुरथला पैलेस है जो कपुरथला के महाराजा जगजीत सिंह ने 1896 में बनवाना शुरू किया था। इसके बनने में तीन साल लगे। इस महल के अगले भाग में दो खूबसूरत से टर्रेट्स बने हैं और दो पीछे की तरफ है जो इसे फ्रेंच लुक के साथ बेहद खूबसूरत बना देते हैं। गेट बंद था। भीतर जा कर देखने की इच्छा पूरी नही हो पाई बाहर से फोटो खींच कर ही संतोष करना पड़ा।
फिर आगे निकले ही थे तो बाईं तरफ एक खंडर सा दिखाई दिया यह राधा स्टेट है। इसे बंगाल के किसी मारवाड़ी सेठ ने बनाया था जो आज खंडहर सा खड़ा है। हाथी पांव होते हुये हमारी पुरानी बाईक चढ़ाई चढ़ती रही। संकरी सड़क पर चढ़ाई चढ़ते हुये बाईक की सांस तो जरूर फूल रही थी पर बिना रूके आगे बढ़ रही थी। हम एक कुंए के पास पहंच गये। यह विशिंग वेल है। ऐसा कहा जाता है कि इसकी तरफ पीठ करके सिक्का उछालने पर यदि वह सिक्का कुऐं में गिर जाय तो इच्छा पुरी होती है। मनुष्य इस ढंग की धारणायें बनाने में माहिर तो है ही। जबकि मुझे लगता है कि कर्नल व्हिश के भूस्वामि होने के कारण इस कुंए को व्हिशिंग वेल कहा गया हो। इसके बाद हमने अपनी बाइक खड़ी कर दी और पैदल चल पड़े पार्क स्टेट के एवरेस्ट हाउस देखने। सड़क के साथ ही एक छोटा सा मकान था जिसमें एक युवक से हमने आगे का रास्ता मालूम किया। यह गोर्खाली परिवार था जो काफी पहले से लगभग साठ सालों से यहां रह रहा था। इस युवक का नाम प्रेम क्षेत्री है जो दिल्ली के पहाडगंज के होटल में काम करता है। आज कल कोरोना के चलते घर पर बेरोजगार है। यह काफी मिलनसार सह्रदयी परिवार था।
यहां से पगडंडी उपर पार्क स्टेट जाती है। हम प्रकृति को निहारते हुये आखिर कार अपने आज के गंत्वय तक पहुंच गये। यहां आज कल एवरेस्ट हाउस के जीर्णोद्धार का काम चल रहा है। अरूण कन्सट्रेक्शन कंपनी इस काम को कर रही है। यह जानकर खुशी हुर्ह कि इस हवेली के प्राचीन स्वरूप को बहाल करने के उद्देश्य से उसी पुरानी सुर्खी वाली तकनीक पर काम हो रहा है। इसकी मरम्मत के लिये दौसा राजस्थान से मजदूर लाये गये हैं जो सूर्खी चूना गुड़ मैथी व उडद दाल के मिक्सर को बनाकर मरम्मत का काम कर रहे हैं। इसके लिये पूरा साजो सामन वहां रखा हुआ है। कुछ समय वहां बीता कर हम वापिस प्रेम क्षेत्री के घर पर चले आये। हम अपने साथ टिफन लेकर चलते ही हैं तो प्रेम के आंगन में बैठ कर दोपहर का भोजन किया। प्रेम की आमा के हाथ की सुंदर कड़क चाय पीकर हम वहां निकल पड़े। शाम केे चार बज चुके थें। समय देखते हुये हम क्लाउड एंड के लिये चल पड़ें।
मेजर स्वेटेन्होम क्लाउड ऐण्ड का मालिक हुआ करता था जो लण्डोर के अशक्त गृह का कमाण्डेंट था। मेजर स्वेटेन्होम ने स्थानीय जमीदार की युवती से प्रेमविवाह कर लिया था यह जमीन उसे अपने ससुर से मिली थी। यहां रहने के लिये उसने मकान बनाया जिसका नाम क्लाउड ऐण्ड रखा गया। उसके वंशजों ने 1965 में इग्लेण्ड जाते समय यह स्टेट श्री दूर्गाराम अग्रवाल का रू0 37000/- में बेच दी थी। यह अग्रवाल कोलागढ़ टी स्टेट के अन्तिम प्रबन्धक रहे। यहां प्रकृति ने अपनी अमूलय छटा बिखेरी है। जंगली जानवरों के साथ नाना किस्म के जंगली पेड़ पोघे फलोरा फोना यह आप देख सकते हैं। इस जगह का आकर्षण आपको रूक कर पैदल विचरण करने को बाध्य कर देता है। मसूरी में इससे सुंदर जगह शायद ओर कोई नही है। कुछ देर पैदल चलकर हमने यहां प्रकृति का आनंद लिया। यहां से आगे का रास्ता भदराज को जाता है। आगे जाने का समय नही बचा था। दुबारा आने की बात सोचकर हम वापिस देहरादून लोट आये। आज की यात्रा भी अन्य यात्राओं की तरह मजेदार रही।
(विजय भट्ट) साथ में इन्द्रेश नोटियाल
17 जुलाई 2020
जानकारी का स्रोत: देवकी नंदन पांडेजी की गौरव शाली देहरादून व प्रेम हरिहर लाल जी की किताब दून घाटी की गाथा।