पर्यावरण संरक्षण में मानवीय मूल्यों का योगदान
डॉ सुनील नौटियाल
पर्यावरण आज के वैज्ञानिक युग में एक सामान्य सा कहा जाने वाला शब्द है जिसे हर कोई वक्त-बेवक्त अपने-अपने ढगं से परिभाषित कर रहा है,
साथ ही साथ पपर्यावरण संरक्षण हेतु सुझाव व पर्यावरण असंतुलन हेतु दुष्चिन्ताओं पर दृष्टिपात कर रहा है। पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है परिआवरण। परि का शाब्दिक अर्थ है अच्छी तरह और आवरण का अर्थ है आच्छादन। अर्थात अपने चारों ओर का आवरण जो जीवन को सकारात्मक व नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। यदि वर्तमान परिपेक्ष्य में देखा जाय तो क्या पर्यावरण ऐसा शब्द है जो आज के युग में विकृत रूप धारण कर स्वयं दृष्टिगोचर हो रहा है, या सही मायनों में देखा जाय तो कहीं ऐसा तो नहीं कि पर्यावरण तथा सभी जायज दुष्चिन्ताओं के प्रति आधुनिक मानव स्वयं ही जिम्मेदार है। वस्तुतः यदि देखा जाय तो पर्यावरण संरक्षण में मानव मूल्यों का जो योगदान रहा है, उनमें कमी आयी है। और परिणामतः पर्यावरण विभीत्स रूप में आज सबके सम्मुख खड़ा है।पर्यावरण का इसोपनिषद में उल्लेख है कि ’’ईषावष्यमिदं सर्व यात्किंच जगत्यां जगत्’’ अर्थात ईष्वर की सृष्टि में जो कुछ भी है वह पर्यावरण है। परिस्थितिकविद् ’’हर्सकोविट्स’’ के अनुसार पर्यावरण ’’सम्पूर्ण वाह्य परिस्थितियों और उनका जीवधारियों पर पड़ने वाला प्रभाव है’’, जो जैविक जगत के जीवन चक्र का नियामक है। पर्यावरण को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।1- प्राकृतिक पर्यावरण 2- सामाजिक पर्यावरण, सामाजिक पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है समाज का वातावरण एवं प्रभाव जो समाज को उत्कृष्ट दिषा देते है। और प्राकृतिक पर्यावरण, प्राकृतिक परिदृष्यों, नदी, पहाड़, भूमि, जलवायु इत्यादि सभी आते है। वस्तुतः यदि समन्वित दृष्टिकोण से देखा जाय तो पर्यावरण के उपरोक्त दोनों घटक एक ही हैं, किन्तु वर्तमान परिपेक्ष्य में प्राकृतिक पर्यावरण धीरे-धीरे ह्रास होता जा रहा है। कारण मानव के जो कर्तव्य है। या पर्यावरण संरक्षण की दिशा में थे उनमें स्वाभाविक रूप से कमी आती जा रही है. विश्व पर्यावरण आयोग 1987 के अनुसार प्रति वर्ष विश्व में 110 लाख हेक्टेयर वन नष्ट हुये जा रहे हैं। वहीं वृक्ष (वन के अवयव को) को कठोपनिषद में निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया गया है।
शनिदवे अभिष्टों आपो भवन्तु न पिवते, मलू.
ब्रह्मा त्वचा विष्णु शाखायाम् तु शंकरम्,
पत्रे-पत्रे देवानाम् वृक्ष राज नमस्तुते।
वन, एवं वृक्ष को देवता मानकर हमारी सांस्कृतिक मान्यता पर्यावरण संरक्षण का वैज्ञानिक आधार देती है। और आज अधिकांष पवित्र वृक्ष, पवित्र वन इसी कारण मानव हित हेतु जगह-जगह संरक्षित हैं, व स्वतः ही आज भी उनके प्रति आज के मानव का भी ममत्व भाव है। साथ ही साथ विश्व पर्यावरण आयोग (1987) यह भी चिन्ह्ति करता है कि 60 लाख हेक्टेयर उपजाऊ युक्त भूमि अनुपयोगी होती जा रही है। जबकि आज तक मानव ने अपना अमूल्य योगदान भूमि के प्रबन्धन हेतु भी दिया है व जिसे उपक्षित किया जा रहा है यथाः उचित भूमि प्रबन्धन, फसल चक्रो, ऋतु चक्र, इत्यादि। प्रकृति में जहां-जहां भी जैव विविधता का भण्डार है और साथ ही वह क्षेत्र संवेदनशील भी है वहां भी सरल प्रयासों से पारिस्थितिक तन्त्र को संरक्षित किया जा रहा है। उदा0 पर्वत पूजा। पर्वतों के संसाधनों का उपयोग एक निष्चित समय सीमा के अन्दर ही इत्यादि।
मानवीय सोच एवं पर्यावरण संरक्षण
देववनः संसार भर में विद्यमान किसी भी वन भूमि/सामुदायिक भूमि को देव वन घोषित करने के पीछे हमारे पूर्वजों की जो सोच थी वह मनुष्य के मन में प्रकृति के प्रति प्यार, त्याग एवं निष्ठा की भावना पैदा कर सामाजिक नियम कानूनों एवं परम्परागत विष्वासों द्वारा आसानी से प्राकृतिक अधिवासों को संरक्षित करना था। और उसके परिणाम आज भी सामने है, जहां-जहां देव वन विद्यमान हैं, वहां के निवासियों के मन में उन वनों के प्रति कोई भी वैमनस्य/मनमुटाव का भाव नहीं है, किन्तु आज जहाँ भी संरक्षित क्षेत्र (जिसे कि देव वन की अवधारणा को ही आधार मानकर वैज्ञानिक रूप में स्थापित किया जा रहा है) वहां के निवासियों का उस संरक्षित क्षेत्र की तरफ कोई सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं है। और न ही ऐसे संरक्षित क्षेत्र सफल कहे जा रहे हैं। अतः आज का समाज भी उन्हीं मूल्यों का ऋणी है जिन्हें पूर्वजों ने चुकाया था।
मध्य हिमालय का ऐतिहासिक महाकुम्भः जिसमें कि प्रकृति एवं संस्कृति को साथ लेकर आज भी पर्यावरण संरक्षण के प्रति सच्ची निष्ठा दृष्टिगोचर होती है। नन्दा राजजात के गहन अध्ययन से उसके सांस्कृतिक महत्व के साथ-साथ विराट पर्यावरणीय महत्व भी दृष्टिगोचर होता है। यदि नन्दा राजजात का केवल सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखा जाय तो उसे निम्न प्रकार चित्रित किया जा सकता है। यदि परम्परागत ज्ञान को महत्व देते हुए उसे पारिस्थितिक परिपेक्ष्य में देखा जाय तो उसका महत्व बरबस ही वर्तमान में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा की तरफ ध्यान आकृष्ट कर देता है।
सांस्कृतिक विविधता एवं जैविक विविधता, प्राकृतिक आवास एवं संस्कृति, सांस्कृतिक पहचान एवं हिमालयी महाकुम्भ पारिस्थितिक चित्रण रीति-रिवाज एवं प्रकृति एवं प्राकृतिक सम्पदा का संरक्षण उपयोगी वनस्पतियों को पवित्र मानकर पूजन एवं उपयोग हेतु निश्चित पारिस्थितिक तंत्रों के बीच स्वस्थ पारस्परिक सम्बन्ध सत्तत विकास हेतु आवश्यक कारक हैं। धार्मिक मान्यताओं द्वारा पर्यावरणीय नीतियों का निर्धारण एवं मनुष्य के ब्यवहार को प्राकृतिक संसाधनों के उचित उपयोग हेतु प्रेरित करना। पशुधन प्रतीक चार सींग वाला भेड़, पहाड़ों के आर्थिक प्रवहन तंत्र की महत्वपूर्ण इकाई है। समय के संकेत – उद्देश्य भविष्य की पीढ़ियों के लिए अमूल्य धरोहर संजोकर रखना। अतः यह न केवल एक सांकेतिक पहलू है जो लोगों को सामुहिक सांस्कृतिक एकता में खींचता है, वरन पर्यावरणीय नीतियों का निर्धारण भी है, जो स्थानीय निवासियों के जीवकोपार्जन से भी सम्बन्धित है।
पर्वतपूजा मध्य हिमालय में कहीं-कहीं पर्वत शिखरों की प्रति वर्ष पूजा की जाती है व पर्वतों से बेमौसम जड़ी-बूटियां निकालना पाप समझा जाता है। ऐसा करने से प्राकृतिक आपदायें आ सकती है। गांव के लोग प्राकृतिक आपदाओं के लिए बेमौसम जड़ी-बूटी लाने वालों को कोसते है। इसके पीछे भी मानव जाति के कल्याण हेतु पर्यावरण का संरक्षण ही निहित है। हो सकता है, पर्वत से जड़ी बूटियों को संरक्षित करने की यह उनकी अपनी एक विशेष प्रकार की परम्परागत संरक्षण की पद्यति हो। क्षेत्र के निवासियों के अनुभवी और दूर दृष्टि वाले पूर्वजों को यह आभास जरूर रहा होगा कि भविष्य में मानव अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए प्रकृति के साथ क्रूर व्यवहार भी कर सकता है और पर्यावरण असंतुलित हो सकता है। इसलिए हम कैसे इस क्षेत्र की सम्पदा को जिसे हम अपने पसीने से सींचते आ रहे है बचायें.
किसी को भी जंगली पादपों के दोहन पर सितम्बर के आखिरी सप्ताह से पहले सख्त मनाही होती थी और उस पर भी उन्हें सबसे पहले अपने देवालयों में चढ़ाया जाता रहा है। कारन क्योंकि तब तक सभी पादप लगभग परिपक्वता पर पहुँच चुके होते हैं और बीजों का प्रकीर्णन भी होना शुरू हो जाता है और साथ ही साथ बीजों को एकत्र कर भविष्य के लिए भी सुरक्षित रखा जा सकता है। चटकीले, रंगीन वस्त्रों को पहनकर बुग्यालों में जाने पर सख्त मनाही-यदि र्काइे पालन नहीं करेगा तो चेतावनी स्वरुप परियां (स्थानीय भाषा में आछरी) प्राण हर लेंगी। इसके पीछे छिपा तथ्य यह है कि चटकीले रंग परागण करने वाले कीटों को बाधा पहुंचा सकते है जो कि वुग्यालों में पहले ही बहुत न्यून संख्या में होते है। शोर पर सख्त मनाही यहाँ तक कि ढोल, दमाऊ (परम्परागत वाद्य यन्त्रों) का उपयोग भी नहीं कर सकते यह परागण करने वाले कीटों को हानि एवं परगन में बाधा पहुंचा सकते है। यह दुर्लभ पारिस्थितिक तंत्रों के पर्यावरण को संरक्षित करने के आसान उपाय थे।
पारम्परिक कृषि वह भी हिमालय की (जो कि फसल चक्रो को) उचित प्रबन्धन द्वारा मृदा की उर्वरता को बनाये रखने हेतु आज भी बदस्तूर जारी है, कहीं-कहीं पर (शोध द्वारा प्रमाणित है) जहां कि परम्परागत कृषि की अवहेलना की गयी, व फसल चक्रों के साथ अनावष्यक छेड़-छाड़ की गयी वहां पर मृदा के आत्मघाती असंतुलन पैदा हो गया। कृषि में पारम्परिक उपज प्रजातियों का महत्वपूर्ण योगदान है अर्थात जो उपज प्रजातियॅां जहां उगायी जा रही हैं वे वहीं उगे क्योंकि उन प्रजातियों में उस स्थान विशेष की जलवायु/ पर्यावरण के अनुसार अनुकूल क्षमता आ जाती है। और फिर उन्हीं में से कुछ महत्वपूर्ण उपज प्रजातियों का पवित्र मानकर भगवान के भोजन हेतु उगाना, जिन्हें कि स्थानीय निवासी किंन्चित कारणवश कम मात्रा में उगाते है। क्योंकि ईष्वर के नाम पर उन प्रजातियों का अस्तित्व विद्यमान रहेगा। सम्पूर्ण भारत वर्ष में केवल धान की ही 30,000 उपज प्रजातियां थी, किन्तु आज 200-250 ही उपज प्रजातियां उगायी जा रही है। फलस्वरूप कृषि तंत्र पर गहरा संकट पैदा होना शुरू हो गया है। और स्थानीय भाषा में सभी जगह प्रायः सभी उपज प्रजातियो के नाम महिलाओं के नाम पर ही रखे जाते थे। यथा मध्य हिमालय में ही तो झमुरी, बिन्दलु, जिरूली, नन्दिनी, राजमति इत्यादि धान की प्रजातियों का नाम को महिला रूप मेंसंबोधित करने के पीछे कारण यह था कि किसी भी प्रजाति को बहू-बेटी के रूप में मानकर उसकी गुणवत्ता बनाये रखना व सत्त उपज के लिए प्रयासरत रहना। किन्तु आज इस पुरातन मानवीय विचार धाराओं का आधुनिक मानव अवहेलना कर स्वंय ही जाल में फंसता चला जा रहा है। और इसी का परिणाम है कि प्रति वर्ष विष्व भर में 60 लाख हेक्टेयर उपजाऊ भूमि मरूस्थल में बदलती जा रही है।
देवालयों में हवनः
मन्दिरों में हवन करना व ’’ॐ वनस्पतिः शान्तिः’’ फिर स्वाहा कहना अर्थात वनस्पतियों के कल्याण हेतु स्वास्तिवाचन, यदि जो भी हम मन्दिरों मैं हवन कुंड मैं अर्पित करते हैं उसका तात्पर्य यह है कि इसके अग्नि में जलने के पष्चात जो वायु, वायुमंडल की तरफ जाये वह भी वनस्पतियों के कल्याण हेतु जाये व उत्पन्न कार्बन डाइआक्साइड को पेड़-पौधे ग्रहण कर पर्यावरण को समृद्धि दे।
मांसाहार पर प्रतिबन्ध और पोषक कुछ तथ्य
माघ (फरवरी-मार्च) एवं सावन (अगस्त-सितम्बर) के महिनों में मासांहार बर्जित- कारण बहुत से पशु-पक्षियों (जलचर/स्थलचर) में क्रमषः गर्भाधान एवं सन्तति उत्पन्न करने का समय होता है। यदि इन महिनों में मासांहार पर रोक न लगायी जाय तो पशु तंत्र के अस्तित्व पर संकट पैदा हो सकता है और पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हो सकता है। अतः इन विचारधाराओं को समाज में लागू किया गया। किसी भी वन क्षेत्र, चारागाह एवं सामुहिक भूमि की पोषक क्षमता के प्रबन्धन हेतु मन्दिरों में पशुओं का बलिदान एवं उनमें भी नर पशु यथाः बकरा, भेड़ा, भैंसा इत्यादि को ही आज भी मुख्यतः देवालयों में चढ़ाया जाता है व मादा को नहीं। क्योंकि अधिक संख्या में नर पशु जिनको कि सन्तति उत्पन्न करने के अतिरिक्त अन्य उपयोग में नहीं लाया जा सकता है उन्हीं का बलिदान, भूमि की पोषक क्षमता पर अतिरिक्त दबाव न पड़े इसलिये किया जाता रहा है।
चिपको आन्दोलन की परिकल्पना एवं वर्तमान प्राकृतिक दुर्घटनायें
उत्तराखंड के रैनी ग्राम में जन्मा बहुचर्चित चिपको आन्दोलन केवल पेड़ों को काटने से ही रोकना नहीं था, वरन एक उत्कृष्ठ विचार भी था जिसका सार्वभौमिक परिणाम भविष्य की पीढ़ियों को प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण करना था व साथ ही साथ इसमें संवेदनशील स्थानों का संरक्षण एवं चिरस्थाई सुरक्षा सम्बन्धी जीवंत बिचार भी समाहित थे। किन्तु आज हिमालयवर्ती क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों का निहित स्वार्थ हेतु अंधाधुंध दोहन से कई पर्यावरणीय समस्यायें सामने आ रही है। बहुत दूर न जाकर निकट पूर्व में हुए मालपा, उखीमठ और केदारनाथ के भयावह भूस्खलन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन्हीं मौलिक मूल्यों के ह्रास से ही घटित हुई है। समुद्रतटीय भागों में भयकंर चक्रवात की आवृति शने – शने बढती जा रही है और अपूर्ण क्षति होती जा रही है। इसका कारण वहां पर मैगूव्र वनस्पतियों का तीव्रता से दोहन होना है। इस प्रकार की दुर्घटनाओं को केवल एक उत्कृष्ठ मानवीय सोच द्वारा ही रोका जा सकता है।
निष्कर्ष
आज के इस वैज्ञानिक युग में जहां संस्कृति, परम्परागत ज्ञान-विज्ञान एवं प्रकृति-मानव अन्र्तसम्बन्धों में जहां लोगों के सामाजिक सांस्कृतिक एवं आर्थिक परिवेश में हो रहे परिवर्तनों से धीरे-धीरे अमूल्य मानवीय मूल्यों का जो कि प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से मानवहित हेतु ही निर्धारित किए गये थे, धीरे-धीरे ह्रास होता चला जा रहा है। आज हर जगह जहां सरकारी तत्रं अपनी भागीदारी स्वयं ही सुनिष्चित कर लोगों को उदासीनता की ओर अग्रसर कर रहे हैं, वहीं पर्यावरण संरक्षण की अमूल्य बिचारधाराओं को नजरअंदाज किया जा रहा है। पर्यावरण संरक्षण हेतु ऐसा नहीं कि सरकारी तंत्र द्वारा जो भी क्रिया-कलाप किये जा रहे है, वह मानवहित में न हो, सोच वहां पर भी मानव एवं उसके सम्पूर्ण पर्यावरण का ही हित है।
(लेखक – पारिस्थितिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर और हिमालयन पारिस्थितिक तन्त्र के विशेषज्ञ हैं)