कोरोना काल: संकट में गुज्जर जनजाति
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भरत पटवाल
भारत प्राचीन काल से ही बहुधर्मी, बहुजातियों, उपजातियों, बहुभाषियों, सामाजिक समूहों,जनजातियों की समृद परम्परा वाला देश रहा है।
इन्हीं जनजातीय समूहों में से एक वन गुज्जर जनजाति जो की अपने घुमन्तु जीवन शैली के लिए जानी जाती हैं, बरसों से उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर के जंगलों में अपने मवेशियों के साथ विचरण करते रहते हैं। आजीविका यापन के लिए ये जनजाति अपने पशुओं विशेषकर भैंसों के झुंडों के साथ सर्दियों के 6 महिने तराई में और 6 महिने उच्च हिमालयी क्षेत्रों में निवास करती है। जंगल ही इनके और इनके पशुओं का प्राकृतिक वास और जीवन जीने का एकमात्र आधार है. सामान्यतः पशुओं से प्राप्त दूध और उस से बने उत्पादों को ये नजदीकी बाजारों में बेचकर अपना जीवन यापन करते हैं. देश में कोरोना के आहट के चलते मार्च में पूरे देश में लॉक डाउन कर दिया गया जो की इनके उच्च हिमालयी क्षेत्रों में प्रस्थान का आदर्श समय होता है।
लॉक डाउन के कारण ये जनजाति अपने विंटर हैबिटाट में फंसकर रह गयी. जंगलों में प्रत्येक गुज्जर परिवार को एक निश्चित भूभाग आवंटित होता है जिस से कि वे अपने पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था कर सकें। लगातार एक ही स्थान पर टिके रहने की वजह से पशुओं के लिए चारे की गंभीर समस्या खड़ी हो गयी, आखिर जंगल की भी अपनी निश्चित कैरिंग कैपेसिटी होती है। समुचित चारे के अभाव में पशुओं की उत्पादकता के साथ साथ गुज्जरों की आर्थिकी पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ना लाजमी था। अब जबकि लॉक डाउन में ढील दे दी गयी ताकि आर्थिक गतिविधियां शुरू हो सकें, गुज्जरों के सामने एक और नया संकट खड़ा हो गया। मई जून में गुज्जर परिवारों द्वारा उच्च हिमालयी बुग्यालों के लिए प्रस्थान करना आरम्भ ही किया था कि स्थानीय पहाड़ी निवासियों द्वारा कोरोना संक्रमण फैलने के डर से इनका विरोध किया जा रहा है तथा इनको अपने क्षेत्रों के चरागाहों में आने पपर प्रतिबंध लगाया जा रहा है।
अधिकांश गुज्जर परिवार पहाड़ के प्रवेश स्थलों पर डेरा डाले भुखमरी के कगार पर हैं. जहाँ न तो उनके पशुओं को पर्याप्त चारा ही मिल पा रहा है ना ही दुग्ध का उचित उत्पादन हो रहा। जंगलों के अपने मूल ठिकाने से बाहर होने के कारण न तो इनको सरकारी सस्ते राशन का ही लाभ ही मिल पा रहा ना नहीं सामाजिक संगठनों द्वारा वितरित सहायता का. गुज्जरों और स्थानीय पहाड़ी समुदायों के बीच ऐतिहासिक रूप से पारस्परिक सहायता /लाभ के गहरे रिश्ते रहे हैं। गावों से गुजरते भैंसों के झुण्ड स्थानीय कृषकों के खेतों की उर्वरा शक्ति बढाने हेतु गोबर रुपी अति आवश्यक संसाधन की मुफ्त में पूर्ति करते थे। जिस के कारण पहाड़ की महिलाओं का गोबर ढोने में लगने वाला श्रम/ कार्यबोझ भी हल्का होता था। बुग्यालों में पशुओं की उपस्थिति से वनस्पतियों/घास की वृद्धि/ उत्पादकता पर भी खासा प्रभाव देखने को मिलता था। साथ ही गुज्जर दूध दही मट्ठा बेचकर बदले में गांव वासियों से चारा खरीदते थे. इस प्रकार दोनों समुदायों के पारस्परिक हित जुड़े रहे हैं। किन्तु कोरोना ने न केवल सामाजिक दूरियां पैदा की बल्कि परस्पर आर्थिकी को भी भारी नुक्सान पहुंचाया है। जनजातियों की सुरक्षा और उनके अधिकारों का सरक्षंण हमारी सरकारों की संवैधानिक जिम्मेदारी है. सरकारों को निश्चित रूप से ऐसी रणनीति अपनानी होगी जिसके की समुदायों के परस्पर सामाजिक एवं आर्थिक हित बरक़रार रहें।
(लेखक मानव वैज्ञानिक व सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं)