ट्रैकिंग ब्यवसाय पर छाये बादल
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
अभी हाल ही में माननीय उच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि उत्तराखंड राज्य के बुग्यालों में पर्यटक व ट्रेकिंग पर जाने वाले रात को कैंप नहीं करेंगे.
बुग्यालों में जो भी ढांचे बने है उनको भी हटाया जाये. इसके अनुपालन से राज्य में ट्रैकिंग ब्यवसाय के चौपट होने की संभावना जतायी जा रही है. इधर सूचनायें हैं कि वन विभाग न्यायालय के आदेश का अनुपालन करने लगा है.
दरअसल उच्च न्यायालय के इस निर्णय के ब्यापक मायने है, कुछ दिन चर्चा के बाद जनहित की यह खबर दब गयी है. आज तक उत्तराखंड में जितनी भी सरकारें आयी सबने अपनी – अपनी सोच समझ के आधार पर ख़याली पुलाव पकाकर जनता को बरगलाने का काम किया है. जैविक प्रदेश, बिजली प्रदेश, आयुष प्रदेश, पर्यटन प्रदेश, योग प्रदेश, जड़ी बूटी प्रदेश लिस्ट बड़ी लम्बी है लेकिन नीतिया नहीं बनायी, आज भी सारे राज्य की ब्यस्था उत्तर प्रदेश की बनी नीतियों पर चल रही है. राज्य 18 सालों के बाद भी नीतियों के निर्माण में गरीबी झेल रहा है, यही वह मूल कारण है कि बार – बार चरमराती ब्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये उच्च न्यायालय, एन. जी. टी. को आदेश करने पड़ रहे हैं.
उलेखनीय है कि उत्तराखंड का लगभग 70 % भूभाग वनों के अधीन आता है. अंग्रेजों के जमाने में बने वन कानूनों से आज भी वन विभाग की प्रसासनिक व विधायी ब्यस्था चल रही है. इसमें परिवर्तन का अधिकार केवल संसद को है. पुरे देश में वन अधिकारों को लेकर अलग अलग प्रदेशों के लोग लड़ रहे है, उत्तराखंड में तो वन आन्दोलनों का लम्बा इतिहास रहा है. लेकिन आज राज्य की विचित्र स्थिति है कि जनता के हक हकुकों पर बात करने के लिये कोई सुगबुगाहट नहीं दिख रही.
लम्बे समय से वन अधिकारों व स्थानीय हक हकूकधारियों के लिये संघर्षरत रहने वाले हेम गैरोला कहते है कि, माननीय उच्च न्यायालय का बुग्यालों में कैम्पिंग का यह आदेश बहुत स्पस्ट नहीं है, वे कहते है कि मुझे अभी तक इस आदेस को अध्ययन करने का मौका नहीं मिला है, लेकिन समाचार पत्रों व अन्य सूचनाओं के आधार पर यह एक तरफ़ा निर्णय लग रहा है. इसमें अभी तक सदियों से बुग्यालों व चारागाहों, उच्च शिखरिय पर्यटन व भेड़ पालन पर निर्भर स्थानीय लोगों के हक हकुकों व आजीविका को लेकर स्पष्टता नहीं है, हेम कहते है कि सरकार को पुरे तथ्यों, अध्ययन व इस आदेश से पड़ने वाले प्रभावों को माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष रखना चाहिये.
माननीय उच्च न्यायालय के उपरोक्त आदेशों (याचिकाकर्ता स्वर्गीय पटवाल जी की याचिका पर न्यायलय के आदेश) का असर सिर्फ बेदिनी बुग्याल पर ही नहीं, बल्कि राज्य के सारे बुग्याली इलाकों पर पड़ने वाला है. लगभग 2500 मीटर की ऊँचाई से बुग्याल सुरु हो जाते है. हिमालय के ये बुग्याली क्षेत्र अति संवेदन शील इलाके है, जिन्हें प्रकृति प्रेमियों का स्वर्ग कहा जाता रहा है. निश्चित रूप से इन इलाकों में नियंत्रित पर्यटन की अनुमति स्वागत योग्य कदम है. वन विभाग बुग्यालों से निश्चित दूरी पर कैम्पिंग साईट विकसित कर सकता है, जिससे बुग्यालों को नुकसान न पहुँच सके, लेकिन इन बुग्यालों या इस के आस पास कैम्पिंग की अनुमति न होना ब्यवहारिक नहीं लगती. जरा सोचिये क्या रूप कुंड आदि की ट्रैकिंग में कोई एक दिन में बिना कैंप किये वापस आ सकता है? नहीं ! यही रुद्रनाथ, मद्महेश्वर सहित दर्जनों बुग्याली क्षेत्र है जहाँ कैंप करना मज़बूरी है. यदि माननीय उच्च न्यायालय के बुग्याली क्षेत्र में कैंप न करने, व पक्के ढांचों को तोड़ने के आदेश का अनुपालन किया जाये तो केदारनाथ, बदरीनाथ, पंचकेदार, जोशीमठ औली व पञ्च केदारों की यात्रा पर क्या फर्क पड़ने वाला है, इसकी कल्पना मात्र से ही पर्यटन प्रदेश का सपना व रोजगार चकना चूर्ण हो जायेगा. कीड़ा जड़ी निकालने के लिये जो ग्रामीण महीनों तक बुग्यालों में कैम्पिंग करते आये है उसके बारे में उच्च न्यायालय ने क्या सोचा होगा अभी पता नहीं है. माननीय उच्च न्यायालय के इस आदेश का अगला असर बुग्यालों पर निर्भर भेड़ पालकों व चरवाहों पर भी पड़ेगा, जिनको अपने भेड़ों के साथ महीनों तक बुग्यालों में कैंप करना पड़ता है. क्यूंकि ये सभी स्थान बुग्याल क्षेत्र की परिभाषा के अंतर्गत आते है.
उत्तराखंड में वन कानूनों व उससे पड़ने वाले असर के बारे में जन रूचि व जन जागरूकता की भारी कमी है. यही कारण है की अब एक – एक कर ये राज्य के लोगों की आजीविका, हक हकुकों व नयी परियोजनाओं के निर्माण में बाधायें बनती जा रही हैं. बाँध, सड़क, बिजली, पानी, राफ्टिंग, जल क्रीडा और अब ट्रैकिंग वन कानूनों की चपेट में आ चुका है. 30 प्रतिशत भूमि पर राजनीती करने वाले नेताओं की सोच भी उतनी ही छोटी है. और इस बची हुई भूमि के साल दर साल हो रहे घोटालों ने उत्तराखंड राज्य की परिकल्पना को ही ध्वस्त कर दिया है. 100 प्रतिशत उत्तराखंड राज्य के विकास का सपना चकना चूर होता नजर आ रहा है.
फोटो – सत्या रावत