नंदा की चिंता – 5
महावीर सिंह जगवान
विशाल पीपल के दो वृक्ष जिनके नीचे नंदा और नैना बैठी हैं, आज कुछ अधिक ही ठंडी हवायें और झूमती लताऔं से आभास दिला रहे हैं कोई अपना उनके समीप है.
नंदा कहती है दीदी नैना आगे बढते हैं, नंदा दोनो पेड़ों को प्यार और असीम स्नैह भरा चुम्बन देती है, नैना भी नंदा को देखकर चुम्बन देती है, छोटे छोटे कदमो से आगे बढती नंदा और नैना, नंदा पीछे मुड़ती है और पीपल के पेड़ को देखकर मुस्कराते हुये बाय, मुँह के अंदर धीमे से दादा जी।आगे ढलान है रास्ता पूरा उखड़ा हुवा है, नंदा कहती नैना दीदी आराम से चलना, नैना कहती है नंदा इस रास्ते तो बड़े बूढे बच्चे भी चलते हैं लेकिन फिर भी यह ऐसा ही क्यों, नंदा कहती है, यह रास्ता कई बार बन चुका है इस पर बहुत रूपया खर्च हो गया, दादाजी को भी इस रास्ते की बड़ी चिंता रहती थी, दादा जी कहते थे, हमारी पारंपरिक भवन शैली मजबूत वातावरण के अनुकूल और आरोग्य थी, तब भवन पत्थर को तराशकर, पिसी हुई काली दाल मे चिपकाये जाते थे, लम्बें और मजबूत जोड़ से पत्थरों की चिनाई होती थी, भवन पर तीस से पचास फीसदी तक लकड़ी होती थी, छत की सबसे ऊपरी सतह पर पत्थर की चद्दर नुमा 2×2 के पतले और समतल टुकड़े होते थे जिसे लोकभाषा मे पठाल भी कहते हैं, उसके नीचे पानी मे गुंथी मिट्टी की सतह होती थी, फिर तीसरी सतह लकड़ी के खुरदरे टुकड़ों (क्वर्यो) की इनके सपोर्ट के लिये मजबूत लकड़ी के मोटे डंडे (बांसे) होते थे, फिर कमरे और छत के ऊपरी भाग को लकड़ी के तख्तों से सीलिंग की जाती थी, इस पैक हिस्से मे एक जगह से जाने के लिये छेद होता था, जिसमे कम प्रयोग मे आने वाली वस्तुऔं का स्टोर भी होता था, कमरे और छत के इस बीच वाले भाग को लोक भाषा मे ढेपुरू भी बोलते थे, इन मकानों की दीवारों पर चिकनी मिट्टी और लंबे रेसे के घास की कटाई कर उसके मिश्रण को मथकर दीवरों का प्लास्टर किया जाता था।
यह मुख्यत: भीतर से ही होता था, फर्स मे प्रति दिवस स्थानीय लाल मिट्टी गाय के गोबर और गोमूत्र के साथ पानी मिलाकर लेपण किया जाता था। दीवालों के लिये भी स्थानीय स्तर पर मिलने वाली सफेद मिट्टी जो दिखने मे भी चूने जैसा ही प्रतीत होता था उसे लोक भाषा मे कमेड़ा कहते थे उससे दीवलों की पुताई होती थी, घर के छत ढालदार होते थे, जब भी बरसात आती थी तो छतों का पानी चारों और जमीन पर गिरकर जमीन सोख लेती थी, दादा जी को एक चिंता थी सायद वह हर किसी से साझा भी नहीं कर पाते थे वह चिंता थी पहाड़ों मे पहले मिट्टी की सतह बहुत मोटी थी लेकिन धीरे धीरे वह पतली होती जा रही है, यदि पहाड़ों मे मिट्टी निरन्तर घटती रही तो जल संचय की प्राकृतिक प्रणाली बाधित होगी, साथ ही औषधि और कुदरत के दिये अनमोल वरदान नाना प्रकार की वनस्पतियों पर इनका विपरीत प्रभाव पड़ेगा, और भविष्य मे स्वर्गतुल्य पहाड़ वीरान होने का संकट बढेगा। दादा जी कहते थे, अब भवन शैली मैदानी आ गई है लोग छत के पानी की एक जगह निकासी बना रहे हैं अर उसे रास्ते की ओर छोड़ रहे हैं, आँगन और घर के चारों ओर सीमेंट पड़ गया है, फिर कई गुना पानी इकट्ठा होकर रास्तों की ओर बढ रहा है, सभी घरों से पानी इसी रास्ते से होकर आ रहा है, ऊपर से अब खेत बंजर हो गये हैं उनकी दीवालें टूटी हुई हैं, खेत यदि बंजर हो गये तो उनकी जल संरक्षण की शक्ति सबसे अधिक क्षीर्ण होती है, हाँ दादाजी कहते थे आबाद खेत सबसे अधिक जल सोखते हैं, घरों और बंजर खेतों का यह पानी बाढ का रूप लेता है और इस रास्ते को हर बार लील लेता है। एक बार शादी मे मैं यहाँ दादाजी के साथ आई थी तब इस रास्ते पर चलने से तीन बचों को चोट लगी थी, नैना कहती है हाँ तो यह तो खाई मे उतरना जैसा है। नंदा कहती है इस रास्ते ने गाँव के कई लोंगो को सेठ बना दिया है, हर बार इस रास्ते की खबर अखबार मे छपती है और रूपया मंजूर होता है, मिट्टी मे सीमेंट और गोल पत्थरों को चिपका कर इतिश्री की जाती है लेकिन पक्का कैसे होगा यह कोई सोचता ही नहीं, एक बार दादा जी ने इसका डिजाइन बनाया था लेकिन विभाग ने कहा लागत बढ जायेगी, जैसा बना रहे हैं बनने दो, बह जायेगा तो फिर बना लेंगे, लोंगो को रोजगार तो मिलता रहेगा, कम से कम ठेकेदार का तो घर बनेगा, दादा जी ने हँसते हुये कहा ठेकेदार को ही क्यों कहते हो तुम भी तो चोरी मे जुड़वा भाई हो। विभाग वाले मुस्कराकर जबाब दे गये, हम दो भाई जुड़वा नहीं, पाँच भाई हैं, पहली जनता, दूसरी नेता, तीसरी जहाँ से रूपया आता है, चौथे ठेकेदार और पाँचवें हम, दादाजी ने कहा ठीक ही बोले आप।
नन्हें नन्हें कदमो और सुरक्षित चलते हुये नंदा और नैना बढ रही हैं तभी बंदरो की एक टोली आती है जिनमे कुछ तो बीमार जैसे दिख रहे हैं, कुछ के पाँव टूटे हुये हैं कुछ के बाल निकले हुये हैं, कुछ स्वस्थ दिख रहे और कई बंदरो से उनके बच्चे चिपके हैं, बंदर के हाथों मे कुरकुरे के कवर हैं और वह उनको चाट रहें, आपस मे लड़ रहे हैं, घरों के कूड़े को बीन रहे हैं, नंदा निडर है इसलिये नैना को भी भय नहीं थोड़ा आगे बढते हैं नैना पूछती है, नंदा इन बंदरो की स्थिति तो ठीक नही है और जिस हिसाब से यह कूड़ा बीन रहे हैं और कुरकुरे के खाली कवर को चाट रहे हैं लगता है इनके भोजन का भी संकट है। नंदा कहती है दीदी जी पहले बहुत कम बंदर थे, दादा जी कहते थे जब से राज्य बना, सरकारें मानती हैं पहाड़ पर बहुत जंगल हैं और कभी हरिद्वार मे कुंभ हो या किसी भी शहर मे बंदरो का आतंक सरकार इन्हें पिंजरों मे पकड़कर पहाड़ पर छोड़ देती है, पहाड़ के जंगलो मे तो इनके लिये न तो सुरक्षित बसेरा है और न ही भोजन, मैदान की अपनी बस्तियों मे रहने वाली आदत के कारण यह गाँवों और कस्बों मे ही डेरा बना गये। दादा जी ने एक बार वन मंत्री से इसकी सिकायत की थी तब उनका जबाब था हम इन बंदरों को मैदान मे नहीं ले जा सकते, आबादी क्षेत्र मे रहने के कारण इन पर बीमारियों का खतरा है, यदि यह मैदान के जंगल मे छोड़े गये तो वहाँ के वन्य जीवन मे महामारी का खतरा फैल जायेगा। फिर दादा जी ने मुख्यमंत्री जी को पत्र लिखा था, वन महकमा बंदरों को मैदान से पहाड़ पर छोड़ रहा है, यहाँ उनके लिये भोजन नहीं है, लोंगो ने खेती करना छोड़ दिया है, जो कर रहे हैं उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है, विना भोजन और संघर्ष से बंदर कमजोर और बीमार हो रहे हैं, यदि इनमे बीमारी फैली तो पहाड़ के वन्यजीवन और मानवीय जीवन को खतरा होगा, दूसरी चिट्ठी वन्य जीव संरक्षण आयोग को भेजी, दादा जी कहा बंदर भूख से मर रहे हैं कृपया उत्तराखंड के पर्वतीय जनदों से बंदरों को उन स्थानों मे भेजा जाय जिन जगहों पर इनके लिये भोजन हो, भोजन की कमी के कारण यह शाकाहारी जीव मांसाहारी हो रहा है, बच्चों और वृद्धों पर हमले बढ रहे हैं, पच्छियों को निवाला बना रहा है, यह पच्छियों और छोटे वन्य जीवों के लिये बड़ा खतरा बन रहा है, साथ ही बीमारी के कारण यह पर्वतीय वन्य जीवन और मानव के लिये भी खतरे का संकेत है। दादा जी ने कई बार पत्र भेजे लेकिन कोई जबाब भेजता ही नहीं। नंदा कहती है सरकार सब जानती है लेकिन षडयंत्र के तहत बंदर और पर्वतीय जीवन के ऊपर जानबूझकर संकट बढा रही है।
नैना कहती है मैदान मे तो एक फोन पर नेता जी पहुँच जाते हैं, यदि मुहल्ले वालों को कोई परेशानी हुई तुरंत दौड़े आते हैं, अभी हम लोग जहाँ रहते हैं वहाँ तो पक्की रजिस्ट्री वाली जमीन है लेकिन उससे आगे नाले मे बहुत झुग्गी झोपड़ी बना कर रहते हैं जो सरासर अवैध है लेकिन पिछले चुनाव मे बड़े बड़े नेताऔं ने उनकी झोपड़ी की जगह उनके नाम कर दी और उन्हे पक्के घर देकर उनको उत्तराखंड की नागरिकता भी दे दी है अब उनके भाई बन्धु भी आ गये हैं उन्होने नाले के अधिक करीब झोपड़ी बना ली हैं सुना है वो भी इस चुनाव मे वैध हो जायेंगे उन्हें भी घर मिल जायेगा, नंदा कहती है वह देखो हमारे गाँव के फुर्क्या का घर है, वह तीस साल से उस टूटी छत वाले घर मे रहता है, फुर्क्या हमेशा चुनाव मे खुश रहता है, क्योंकि उसे एक प्लास्टिक का तिरपाल सांसद के चुनाव मे मिलता है, एक विधायक के चुनाव मे, एक जिलापंचायत के चुनाव मे, एक क्षेत्र पंचायत के चुनाव मे और एक प्रधान जी के चुनाव मे, दादा जी कहते थे फुर्क्या जैसे बहुत लोंगो के घर मे अभी आजादी की रोशनी नहीं पहुँची यदि पहुँची होती तो उसकी छत कब की पड़ चुकी होती। पहाड़ मे नेता तो आते हैं लेकिन उनके चाटुकारों की इतनी बड़ी जमात है वह कभी हकीकत से रूबरू नहीं हो पाता और उसे जरूरत भी क्या क्योंकि हर चुनाव को जिताने की जबाबदेही इन चाटुकारों की है, पांच साल मे एक बार यह अपने नेता के लिये खून पसीना बहाते हैं फिर पूरे पाँच साल विकास को गटक जाते हैं। नैना कहती है सच में कुछ तो सौतेला ब्यवहार होता है पहाड़ के लोंगो के साथ, नंदा कहती है यह सब सुनियोजित है जिसमे हमारे पहाड़ी भी खूब संलिप्त हैं, वह सोचते हैं पहाड़ी भोले होते हैं लेकिन दु:ख और चिंता तो इस बात की है अपने ही अपनो को ठगते हैं।
क्रमश:जारी