अगस्त्यमुनि से दिनेशपुर (रुद्रपुर)
गजेन्द्र रौतेला
पढ़ने लिखने की संस्कृति के बहाने A Bike Ride वाया अगस्त्यमुनि रुद्रप्रयाग (9:45 AM) – गैरसैंण – भिकियासैंण – रामनगर – काशीपुर – APF संस्थान दिनेशपुर उधमसिंहनगर 7:30 PM । दिनांक: 21 जून 2018
कभी-कभी खुद से बातें करते हुए अपने आस-पास की चीजों को महसूस करते हुए Ride करना एक अलग एहसास देता है। गुजरते वक़्त हर जगह की सरसराती कहीं गर्म कहीं ठंडी हवा उस जगह के एहसास को भीतर तक महसूस करा लेती है। लगभग दो दशक बाद फिर से अगस्त्यमुनि से दिनेशपुर (रुद्रपुर) तक बाइक से गुजरने का मौका मिला। बहुत सी चीजों में बदलाव भी देखा तो राज्य बनने के बाद भी बहुत कुछ यथावत भी। लगभग 350 km की इस Bike Ride में गैरसैंण को राजधानी बनने की आस लगाए भी देखा तो बंजर होते खेत और खंडहर होते घर भी। बहुत कुछ झकझोर भी गया तो कुछ उम्मीदें बढ़ते प्रयोग भी। रामगंगा के किनारे बसा गणाई चौखुटिया के आस पास के रुपाई होते सेरे (खेत) आज भी यही बता रहे हैं कि जहाँ स्वाभाविक रूप से संसाधन उपलब्ध हैं वहाँ लोगों ने इनका भरपूर उपयोग भी किया है। तो वहीं दूसरी तरफ देवभूमि कहे जाने वाले राज्य में प्रसिद्ध प्राचीन शिव मंदिर वृद्ध केदार भगवान भी वैसे ही उपेक्षित हैं जैसे हमारे समाज में भी वृद्धजन उपेक्षित हैं यह अद्भुत साम्य है जहाँ इंसान और भगवान में कोई फर्क नहीं दिखता। भतरौजखान के आस-पास का इलाका राज्य बनने अट्ठारह वर्षों के बाद भी पानी के संकट से जूझ रहा है। महिलाएं और बच्चे अपनी दिनचार्य का एक बड़ा हिस्सा पानी की जद्दोजहद में लगा दे रहे हैं। पूरे रास्ते भर छोटे-बड़े डिब्बों के साथ बच्चे और महिलाएं पानी के लिए भटकते हुए दिख जाते हैं। जबकि भतरौजखान के आस-पास का पूरा इलाका गढ़वाल क्षेत्र के लगभग धनौल्टी जैसा ही है। यदि इसको भी एक टूरिस्ट प्लेस के रूप में विकसित किया जाता तो स्थानीय युवाओं के लिए रोजगार के अवसर भी विकसित होते। भतरौजखान और मोहान के बीच का क्षेत्र कुछ छिटपुट बदलाव के बावजूद आज भी वैसा ही दिखता है जैसा राज्य बनने से पहले था। हाँ कुछेक निजी पर्यटन व्यवसायियों द्वारा स्थापित कुछ अभिनव प्रयोग जरूर दिखाई दे जाते हैं। लेकिन दूसरी तरफ कभी उत्पादक रहे खेत और खंडहर होते घर हमारी आधुनिक जीवनशैली तथा पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं की कमी को बयां करती है। कभी अन्न उत्पन्न कर रहे इन बंजर खेतों में आज डिजिटल इंडिया के मोबाइल टावर उग आए हैं।यह नए उभरते भारत की एक बानगी भर है। यह भी सोचनीय है कि उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य की जो सांस्कृतिक पहचान स्थापित होनी चाहिए थी अफसोस है उसमें आज भी हम बहुत पीछे हैं। अब देखना यह है कि इन खोखली हो चुकी जड़ों के सहारे ये दरख़्त कब तक बची – खुची मिट्टी के सहारे अपना अस्तित्व बचाये रख सकते हैं यह एक बड़ा प्रश्न है।
लेखक शिक्षक और जन सरोकारों से जुड़े युवा हैं.