November 22, 2024



चेतना की चैपाल है ‘चाख’

Spread the love

चारू तिवारी 


‘चाख’ हमारी चेतना की चैपाल है। ‘चाख’ से हमने बहुत कुछ सीखा। ‘इगदरी’ (खिड़की) से आने वाली सूर्य की पहली किरण हो या दिन ढलते ‘गौधूलि’ की बेला, ‘चाख’ ही था जो अपनी रेलिंग लगी ‘इगदरी’ (खिड़की) से हमें दुनिया दिखाता।


कहता तोड़ दो इन बेडियों को जो आपको उन्मुक्त होने से रोकती है। प्रकृति के बीच बसे गांव की ‘चाख’ में हमारे बहुत सारे आयाम हैं। जीवन के। जीवन दर्शन के। अपने सामाजिक ताने-बाने के। चेतना के। सहकारिता के। साथ आगे बढ़ने के। जीवन संघर्ष में भी और खुशियों में भी। एक ‘चाख’ ही था जो पूरी बाखली (घरों का समूह) को लोगों को अपने में समा देता। पूरी रातें निकल जाती थी। इन ‘चाखों’ में होती अपने दुख-सुख की बातें। एक-दूसरे को समझने की। आपस में संवाद करने की। जाड़ों में खेती के काम से फुर्सत रहती थी। लंबी रातें। कड़कती ठंड। साधनों का अभाव। इन सबको अपने आगोश में लेकर ‘चाख’ ही था जो जाड़ों की सर्द रातों में ‘कांण-काथ’ के लिये लोगों को इकट्ठा करता। जीवन का अर्थ और रचनात्मकता की पाठशाला बनता। यहां हम उन अनपढ़ मानी जाने वाली अपनी आमाओं से कहानियां सुनते। ‘हुंगरा’ लगातेे। वहीं हुंगरा लगाते-लगाते नींद भी आ जाती। ‘चाख’ में सुनी कहानियां आज भी हमें वैसे ही याद हैं। आज जब जीवन की वास्तविकता से टकराते हैं तो उस अनुभवजन्य ज्ञान से ही रास्ता निकालते हैं। दिनभर धूप में सुखाये गये ‘गदुये’ की बीजों और जंगल से लाये गये ‘दामों’ को ‘ठुंगने’ का काम भी इसी ‘चाख’ में होता था। छोटे बच्चों के लिये ‘चाख’ को लांगने का मतलब जीवन के एक पड़ाव को पार करना। जब दिन में महिलायें खेतों में काम करने जाती तो अपने बच्चों को इसी चाख की इगदरी (खिड़की) में छोड़ जाती। कई बच्चों के पांव भी बांध दिये जाते थे। वह खिड़की से आते-जाते लोगों से बातचीत करने की कोशिश करता। शायद यही कहता कि मुझे भी बाहर निकालो। यही ‘पांव बंधे’ बच्चे बाद में अपने-अपने क्षेत्रों में बड़ा नाम कमाने निकल गये।


लंबे समय बाद ‘चाख’ में बैठने का मौका मिला। अब ‘चाख’ रहे भी नहीं। गैरसैंण आंदोलन के दौरान दो बार चैखुटिया में पीसी दा (उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पीसी तिवारी) के गांव गुंगोली (बसभीड़ा) में रहने का मौका मिला। पुराना घर। बहुत तरीके से सजा हुआ। दो ‘चाखों’ वाला। थोड़ा परिवर्तन करने के बाद भी घर की परिभाषा नहीं बदली। पीसी दा के साथ हैं तो बातें समाप्त ही नहीं होंगी। उन्हें बताना पड़ता है कि रात के दो-तीन बज गये हैं। नहीं बतायेंगे तो बातों-बातों में रात निकल जायेगी। सुबह फिर उठकर बागेश्वर जाना है, किसी मुकदमे के सिलसिले में। नैनीताल में मीटिंग भी रखी है। एक काम के सिलसिले में देहरादून भी जाना हैं। दिल्ली में भी आंदोलनों को लेकर कोई सेमिनार है। गैरसैंण तो है ही, डांडा-कांड़ा है। अभी नानीसार में जमीन को लेकर आंदोलन के मुकदमे निपटे नहीं हैं। अल्मोड़ा में किसी समस्या को लेकर कब कोई धरना-प्रदर्शन करना पड़े कहा नहीं जा सकता। बहुत मोर्चे खोले हैं पीसी दा ने। मोर्चा खोलना उनकी पुरानी आदत है। कह सकते हैं प्रकृति प्रदत्त है। या कह सकंते हैं कि बिना मोर्चे के चैन नहीं मिलता। इसी ‘चाख’ से मोर्चे बने। अब भी इस ‘चाख’ से मोह नहीं छूटा। जिस दिन ‘चाख’ से मोह छूट जायेगा उसी चेतना का रास्ता भी बंद हो जायेगा। एक लंबा सिलसिला है ‘इगदरी’ में ‘बंधे पांवों’ की रस्सी के खुलने का। एक बार खुला तो फिर कोई बंधन नहीं रहा। बंधन या गलत के साथ तो खड़े हो ही नहीं सकते।

खैर, सल्ट नरेश हमारे साथी, जिला पंचायत सदस्य और छोटे भाई नारायणसिंह रावत, हमारे साथ गैरसैंण आंदोलन से जुड़े बनारसी बाबू प्रवीण भी मेरे साथ आज इस ‘चाख’ में हैं। कई सारी बातें वैसी होने लगी जैसे कभी ‘चाख’ में हुआ करती थी। पीसी दा ने ‘पाल’ में बिस्तर सजा दिया। आखिर यह ‘चाख’ आज भी वैसा ही कैसे रह पाया पूछने पर पीसी दा बताते हैं- ‘पिताजी का अपना एक दर्शन था। बहुत कर्मठ और रचनात्मक व्यक्ति थे। सरकारी सेवा में रहते हुये भी कभी गांव से नाता नहीं टूटा। मेरा बचपन इसी ‘चाख’ और चाख के संदर्भोंं के साथ गुजरा। ‘चाख’ तो किसी एक का होता नहीं। सामूहिक होता है। सभी लोग किसी के भी ‘चाख’ में बैठकर सामाजिक बातें कर सकते हैं। शायद यही चेतना का प्रस्तान बिन्दु भी रहा हो। असल में मुझे बहुत बचपन से गांव से प्यार था। मैं उस मिट्टी की सुगंध से दुर नहीं रह सकता। आज भी। मैंने अपनी कक्षा चार तक की पढ़ाई चैखुटिया से की। पांचवीं में पिताजी के साथ चनौदा चला गया। छठी-सातवीं फिर महाकालेश्वर (गांव के पास) से की। वापस घर आना हो गया। हाईस्कूल भी द्वाराहाट से किया। कुछ समय के लिये बरेली गया वहां से इंटरमीडिएट किया। फिर बाद में अल्मोड़ा से पढ़ा। इस प्रकार मेरा अपने गांव से कभी नाता नहीं टूटा। यह बात सत्तर के दशक के प्रारंभ की है। 1972 से 1978 तक की। हम लोग गांव में थे। खेती-बाड़ी काम। हम सभी भाई खेती का सारा काम करते थे। घास का काटने से लेकर ‘लुट’ लगाने तक। पानी सारने से लेकर लकड़ी फाड़ने तक। घट पीसने से लेकर धान कूटने तक। सारे काम मैंने किये। यही वजह है कि मेरा गांव से, अपने घर से, अपने समाज से ऐसा मोह बना रहा जो आज भी मुझे अपनी मिट्टी से अलग नहीं कर सकता। जब आपने ‘चाख की चेतना’ की बात कही है तो मैं समझता हूं यह आप तभी समझ सकते हैं जब आप उसे आत्मसात करते हैं। मेरा सौभाग्य रहा है कि मैं उसी गांव की चेतना में बड़ा हुआ। एक बात और बताऊं आप जो कुछ सीखते हैं गांव से सीखते हैं, अपने परिवेश से सीखते हैं। प्रकृति सबसे बड़ी शिक्षक है। शहर हमारे सीखे का दोहन करते हैं। हमारी चेतना की दिशा भ्रमित भी करते हैं। इसलिये मुझे हमेशा अपनी जमीन पर खड़ा होकर दुनिया को समझने का रास्ता मिलता है। ‘चाख’ ने मेरी इस चेतना को गढ़ा है। मजबूत किया है। जब हम लोग हाईस्कूल में थे तो तभी दूनागिरी, पांडुखोली और भटकोट की यात्रायें कर चुके थे। हिसालु, काफल, किलमोड़ों ने हमें प्रकृति के सहअस्तित्व को समझाया। हमारे गांव में पास से निकलने वाले गधेरे के ‘खाव’ (तालाब) में हमने छलांग लगाने का साहस सीखा। महाकालेश्वर का ‘खाव’ उससे बड़ा था, उसमें तैरना सीखा। रामगंगा जब उफान पर होती थी तो उसे ‘तारने’ (पार) करने का (दुः) साहस हमने कई बार किया। एक बार मैं डूब भी गया था। इस तरह प्रकृति से हमने सच के साथ खड़े होने का साहस भी प्राप्त किया। कह सकते हैं कि शोषण और दमन के खिलाफ लड़ने को प्रकृति हमेशा प्रेरणा देती है। इसी का हिस्सा मेरे घर का यह ‘चाख’ है जो प्रतिकार की हर लड़ाई में हम लोगों को संबल बना रहेगा। मेरे लिये इसका यही मतलब है।’


यह आलेख पीसी तिवारी जी के बारे में नहीं है। उस चेतना का है जो समतामूलक, जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की परिकल्पना करता है। उस चेतना से कई बार हमें व्यक्तियों से साक्षात्कार करने का मौका मिलता है। उन्हें नये सिरे से जानने का अवसर मिलता है। यह समझ भी बनती है कि मूल्यों के साथ खड़े होने का कोई सरल रास्ता नहीं है। पीसी दा जैसे लोगों के बारे में एक लेख में तो लिखना संभव नहीं है, हां, कुछ बातें हैं जो बताती हैं कि अपनी जड़ों के जुड़े रहने का मतलब है एक उद्देश्यपूर्ण जीवन यात्रा के साथ चलना। पीसी तिवारी उस दौर में बड़े हो रहे थे जब देश और पहाड़ में युवा चेतना नई करवट ले रही थी। देश में इंदिरा गांधी के ताकतवर होने और उससे उपजी तानाशाही एक रूप ले रही थी। उसका प्रतिकार भी शुरू होने लगा था। देश में छात्र-युवा आंदोलनों में शामिल होने लगे थे। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में नया राजनीतिक धु्रवीकरण भी होने लगा। इमरजेंसी भी लग गई। इंदिरा गांधी को सत्ता से भी हटा दिया गया। ढाई साल में जनता पार्टी की सरकार भी गिर गई। बदलाव की इस लड़ाई के परिणामों से सभी को निराशा थी। उत्तराखंड में उस समय छात्र-युवा यहां जंगलों की बेतहाशा लूट के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे। जो नई पीढ़ी सामाजिक-राजनीतिक जीवन में आ रही थी, उसके सामने जल, जंगल और जमीन के सवाल बहुत ताकत के साथ खंड़े थे। छात्र आंदोलत थे। पीसी तिवारी ऐसे समय में 1978 में कुमाऊं विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के छात्र संघ अध्यक्ष बने। छात्रों के हितों अलावा उन्होंने सामाजिक-राजनीतिक सवालों को भी प्रखरता के साथ उठाया। उस समय छात्र संघ की अगुआई में छात्रों ने गांवों में लोगों के साथ न केवल संवाद किया, बल्कि उनके साथ श्रमदान से कई काम भी किये। छात्र संघ का उद्घाटन भी एक दलित सफाई कर्मचारी से कराया। उस समय की प्रतिष्ठित समाचार पत्रिका ‘दिनमान’ ने पहाड़ की युवा चेतना को प्रमुखता से छपा। इस दौर में वन आंदोलन और चिपको आंदोलन चरम पर था। इसमें पीसी तिवारी ने प्रमुखता से भाग लिया। कई बार जेल गये। नौजवानों ने मिलकर ‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’ के संस्थापकों में रहे। अस्सी का पूरा दशक ही नौजवानों के आंदोलनों का रहा। ताड़ीखेत में मजदूरों के पक्ष में 1984 में ब्रोंज फैक्टरी प्रबंधन के खिलाफ बड़ा आंदोलन किया। 1984 में ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन की शुरुआत अपने ही गांव भसभीड़ा से की। उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व में लगमड़ा विकास खंड से भ्रष्टाचार के प्रतीक ‘कनकटे बैल’ को दिल्ली बोट क्लब तक लाये। तराई में कोटखर्रा में भूमिहीनों के हक की लंबी लड़ाई लड़ी। पतंनगर और महतोड़ मोड़ कांड, हिमालयन कार रैली रोकने से लेकर जितने भी जनांदोलन हुये उनमें भागीदारी रही। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के अलावा देशभर में श्रमिक, मजदूर और सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में वे शामिल रहे हैं। राज्य बनने के बाद उन्होंने कई मोर्चो पर आंदोलन की अगुआई की है। अपनी अलग राहनीतिक पार्टी उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के माध्यम से वे राज्य के ज्वलंत सवालों पर हमेशा भिड़ते दिखाई देते हैं।

पीसी दा की ‘चाख’ में बैठकर आंदोलनों की एक परंपरा को सुनना अपने आप में उन ‘आंण-कांथों’ की तरह है जो कभी हम अपने बुर्जुगों से सुना करते थे। वे कहानियां हमें जीवन का दर्शन बताती। आगे चलने का रास्ता सुझाती। विवेक और चेतना के साथ आगे बढ़ने की ऊर्जा देती। सबसे बड़ी बात कि वह हमें दुनियां को खुली आंखों से देखना सिखाती। पीसी दा या उन जैसे लोगों से कई सारी असहमतियां हो सकती हैं। संघर्षो के एक लंबे काल समय के बाद कहा जा सकता है कि परिवर्तन की जिस धारा का वह प्रतिनिधित्व करते हैं वह अपने मुकाम तक पहुंच नहीं पायी, लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि जिन लोगों और जिस व्यवस्था के खिलाफ यह लड़ाई है वह अभी भी उसी ताकत के साथ लड़ी जानी चाहिये। उत्तराखंड में राज्य बनने के इन 18 सालों बाद जिस तरह की लूट-घसोट हुई है उसके लिये नई चेतना का कोई बिन्दु तो ढूंढना ही होगा। संवेदनहीन होती सत्ता के लिये जितना महत्वपूर्ण हमारे संसाधनों का सौदा करना है, हमारे लिये उतनी ही महत्वपूर्ण है उनके खिलाफ लड़ने के लिये ‘चाख’ से निकली चेतना है।




लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं