November 22, 2024



नीति आयोग से इतर

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महावीर सिंह जगवान 


मोदी सरकार अपने पाँच साल के कार्यकाल के नजदीक बढ रही है, सीधे शब्दों मे कहें अब बहुत कम समय है जब नई योजनाऔं और परियोजनाऔं का सीधा लाभ आम जनता तक इन आठ दस महीनो मे पहुँचे।


इसके इतर 2019 के चुनाव की रणनीतियों को अमली जामा पहनाने हेतु बड़ी घोषणा का वक्त तो है ही साथ ही, एनडीए के घटक दलों और भविष्य के साझेदारों को लुभाने का वक्त तो है ही। उत्तराखंड को मिले दो बड़े तोहफे ऑल वेदर रोड और चार धाम रेल परियोजना के साथ पर्वतीय क्षेत्र मे रेलवे के नेटवर्क का विस्तार वाकई बड़ी सौगात थी, लेकिन जिस लेटलतीफी और भारी लापरवाही और कम गुणवत्ता से यह परियोजनायें बढ रही हैं लगता है एक दशक का इंतजार तो करना ही होगा। लक्ष्य प्राप्ति का समय से परियोजनाऔं की लागत बढेगी जो सरकारों की साख के लिये चुनौती तो हैं ही, परियोजनाऔं का विस्तार मुख्य रूप से सामरिक दृष्टि को मध्यनजर रखते हुये हो रहा है, यानि परियोजनाऔं मे लाभ की अपेक्षा राष्ट्र हित जुड़ा है, सीधे शब्दों मे कहें इन पर निवेश की संभावनायें क्षीर्ण हैं, सरकारों को अपने खजाने से ही इनकी भरपाई करनी होगी, दूसरी ओर सरकार भारी ब्यय की घोषणा तो कर रही है लेकिन खजाने से आहरण और जमीनी प्रगति का मूल्याकन बहुत ही धीमी गति से है ऊपर से गुणवत्ता नाम की कोई जबाबदेही दिखती नहीं।


नीति आयोग द्वारा आयोजित चौथी बैठक मे शामिल हुये श्री त्रिवेन्द्र रावत मुख्यमंत्री उत्तराखंड सरकार आज भी जिन चार बिन्दुऔं को रख रहे हैं उन्हे जरा गौर से समझियेगा, उत्तराखंड की सरकारें काफी समय एक बात बड़े जोर शोर से कह रही हैं हिमालयी राज्यों के लिये अलग मंत्रालय बने, ताकि अन्य राज्यों की अपेक्षा इन हिमालयी राज्यों के लिये नीति नियोजन और फडिंग पैटर्न अलग होना चाहिये, सायद सभी उत्तराखंडी इस बात के पक्षधर होंगे, लेकिन हमारा मानना है जिस राज्य की माली हालात इतनी खराब है हर महीने दो महीने मे 300 करोड़ रूपये से लेकर 600 करोड़ रूपये का कर्ज लेकर वेतन भत्तों को चुका रहा है उसके पास कतई यह समय नही है वह अपनी ऊर्जा को वहाँ खपा दे जिससे उसके हित तो सधते ही नहीं। उत्तराखंड अपनी राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप नीतियाँ बनाने मे असफल है वह हिमालयी राज्यों की वकालात मे बहुत कुछ कर पायेगे यह तो दूर दूर तक नहीं दिखता। आपके पास कोई ऐसा रोल माॅडल नहीं जिससे अपेक्षा की जा सकती है इस मंत्रालय के गठन के बाद आपके यहाँ खुशियाँ बढेंगी, यह ऐसी पैरवी है जिसका हित कश्मीर शिमला गंगटोक को हो सकता है लेकिन दून फिर भी फिसड्डी ही साबित होगा। यह सरकारों और थिंक टैंक की पैरवी नही है यह उस जमात की पैरवी है जिसने उत्तराखंड का भला कर दिया और अब अन्य हिमालयी राज्यों के हित की बात कर रहा है, उन्हें अपने विस्तार के लिये प्लेटफार्म चाहिये। अच्छा होता सरकार इस ताकत और समय को यहाँ लगाती, जैसे 1964 से अभी उत्तराखंड मे भूमि बंदोबस्त नहीं हुआ उसके लिये ठोस पहल हो सकती थी, वन कानून, वन भूमि और उत्तराखंडी लोगों के हकहकूक की समस्याऔं पर जोरदार पहल होती, तेलंगाना की सरकार से कुछ सबक लेकर बड़ी पहल कर सकती थी।

पर्यावरणीय सेवाऔं के पीछे विशेष पैकेज, 63 फीसदी वनो की वजह से उत्तराखंड 40 हजार करोड़ रूपये की पर्यावरणीय सेवा दे रहा है, इन पर्यावरणीय सेवाऔं के एवज मे सरकार कम से कम 4000 करोड़ रूपये के अनटाइड फंड की मांग कर रही है। यह वाजिब मांग है लेकिन भारत सरकार इसे सरलता से मानने वाली नहीं दिखती इससे तो पूरे देश मे नई बहस और नई मांग उठेगी, अच्छा होता सरकार अपने राज्य के सीमान्त और छोटे किसानों को फारेस्ट लैण्ड का दस फीसदी पट्टे पर देने के लिये आवंटन को मंजूरी दिलाती, लोग स्वरोजगार से जुड़ते सात देशों से आयातित सेब और अन्य फलों को विकसित करने की बात रखती, वनोउपज के साथ काष्ठ कृषि को बरीयता देती जिससे रोजगार और हर साल जलते जंगलों से मुक्ति मिलती। 4000 करोड़ का फंड तो केवल वनो की अग्नि से सुरक्षा के लिये मिल सकता है।


2013 की केदारनाथ आपदा के बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर गठित कमेटी की संस्तुति के बाद 23 जल विद्युत परियोजनाऔं पर रोक लगी है, सरकार मे बड़ी बैचेनी है इन परियोजनाऔं की शुरूआत हेतु, उत्तराखंड सरकार इस रोक को हटाने की भी बड़ी जद्दोजहद नीति आयोग और भारत सरकार के सम्मुख कर रही है, सरकार का मानना है इन परियोजनाऔं से सालाना दो हजार करोड़ का राजस्व लाभ हो सकता है। जबकि उत्तराखंड मे जो भी जल विद्युत परियोजनायें चल रही हैं इनका लक्ष्य के अनुपात लाभांश कम है, दूसरी ओर राज्य बंटवारे मे बरती गई उतावली की परिणति राज्य को मिलने वाला लाभ प्रतिशत भी नगण्य है, ऊपर से गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारे और चोटियों मे बसे गाँव मे साठ फीसदी के आस पास भारी जल संकट है, साथ ही निरंतर नदियों का जल स्तर घट रहा है। कई जल विद्युत परियोजनाऔं का निर्माण करने वाली कंपनियाँ करोड़ों डकारकर दीवालिया घोषित हो चुकी हैं। वर्तमान मे बहुत बड़ी लाॅबियाँ मोटा पैंसा काटने के लिये इन परियोजनाऔं पर नजर गढाये हैं। आप भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील जोन पाँच की बात कह रहे हैं, गंगा और सहायक नदियों को जीवित मानव का दर्जा है, मूल निवासियों को नदियों से दो सौ मीटर के दायरे मे निर्माण हेतु अनुमति की बात है। फिर भी बड़े बाँधो का लालच मंशा मे खोट के शिवा क्या हो सकता है। उत्तराखंड की नहरें, छोटी गाड और गदेरे छोटी विद्युत परियोजनाऔं के लिये मुफीद हैं आप इसे क्यों नजअंदाज कर रहे हैं यह समझ से परे है।

निश्चित रूप से भारत सरकार के पास मात्र चुनावी प्रबंधन का समय ही शेष है, जबकि भारतीय जनतापार्टी शाषित अधिशंख्य राज्यों पर भारत सरकार की योजनाऔं का घर घर प्रचार करने का दबाव, चिंता तो इस बात की है राज्यों की जो स्वायतता है वह धूमिल हुई है, राज्य अपनी भौगोलिक परिस्थिति के अनुरूप निर्णय नहीं ले पा रहें, कर्ज तले दबते राज्य, जनता के लिये अवसर नहीं जुटा पा रहे हैं, राज्य जी सर वाली नीति से उत्पादक और समृद्ध नही हो सकते। राज्यो को पिछड़ना राष्ट्रीय प्रगति मे बाधक है। भारत सरकार की महत्वाकाँक्षी योजना है किसानो की आय दुगना करना इसके लिये तमाम ब्यवस्थायें सुविधायें जुटाई जा रही हैं, हम हजारों किसानो को देख रहे हैं आय तो दूर की बीज और श्रम का दसवाँ अंश भी नही मिलता। जरूरत है ईमानदारी से जमीनी पड़ताल करने की राज्य का किसान, युवा, मातृ शक्ति, बच्चे और वृद्ध की वास्तविक स्थिति क्या है, गाँव खेत खलिहान और पीने के पानी के साथ सिंचाई की पड़ताल हो, कौशल विकास और स्वरोजगार के लक्ष्य कहीं खानापूर्ति तो नहीं, सरकारों की नीतियाँ जनता के द्वार खुशियाँ बनकर पहुँचनी चाहिये, उसके लिये जमीनी पड़ताल जरूरी है। आदरणीय त्रिवेन्द्र जी के पास समय है वह जल्द से जल्द भारत सरकार से राज्य के हित मे बड़े निर्णय लेनी की पैरवी करें, अपनी सरकार की मंशा और विकास जन जन तक पहुँचायें, अन्यथा समय निकल रहा है राजनैतिक गलियारों मे नई बहस पैदा हो रही है, जैसा कि उत्तराखंड का दुर्भाग्य रहा यहाँ राज्य के मुखिया की आधी से अधिक शक्ति अपनी कुर्सी पर ब्यय होती है और वह फिर भी नहीं बचती।




लेखक सामाजिक चिन्तक और विचारक है.