काला कोढ़ !
व्योमेश जुगरान
सरकारी आपदा प्रबंधन को धता बताते हुए दावानल डंके की चोट पर आता है और हर साल सैकडों हेक्टेयर जंगल को ‘काले कोढ़’ में बदल बरसात में नहाकर चला जाता है।
उसकी प्रचंडता साल दर साल बढ़ती जाती है और उससे लड़ने का हमारा साहस उतना ही भौंथरा साबित होता है। कई मतर्बा दावानल सिर्फ जंगलों को नहीं, जिन्दगियों को भी लीलने लगता है। पर, हमारे नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता। वे ‘टिहरी झील विहार’ और ‘काफल पार्टी’ जैसे आयोजनों में मस्त रहते हैं। गांवों के नजदीक लहरने वाली बण-आग यानी ‘बणाग’ कब ‘वनाग्नि’ में बदल गई, उन्हें क्यों इलहाम होने लगा ! बणाग में गांव और आग के बीच एक फासला हुआ करता था जिसे हमारा जंगलात विभाग ‘फायर लाइन’ कहता है। इसे ग्रामीण खोदते थे ताकि आग गांव पर हमला न कर सके। यदि हालात खतरनाक हो जाएं तो मयार यानी ‘धै’ लगाकर सब आग बुझाने का उपक्रम करते। बणाग और फायर लाइन का पारंपरिक रिश्ता कहां गया?
एक पुराना वाकिया शायद कुछ राह दिखा सके-
वर्ष 1999 की गर्मियां में चमोली जिले का नंदाक इलाका खतरनाक वनाग्नि के कारण काले कोढ़ में बदल गया था। महीनों के इंतजार के बाद जब बारिश हुई तो जंगलों से बहकर आए कार्बन के चलते नंदाकिनी नदी को काले दरिया के रूप में देखकर ग्रामीण घबरा गए थे। उस साल अपने साथी ओमप्रकाश भट्ट के साथ रूपकुंड की ट्रैकिंग से लौटते हुए मैंने जो देखा, एक शौर्यकथा के रूप में उसकी प्रासंगिकता, धधक रहे पहाड़ों के लिए आज कहीं ज्यादा है. ऊपर पहाड़ की चोटी से काला गाढ़ा धुआं उठता देख गांव वालों को यह ताड़ते देर नहीं लगी कि आग जंगल को आगोश में ले चुकी है। चोटी से नीचे की ओर त्रिभुज की शक्ल में दायें-बाएं कई किलोमीटर तक फैले छतनार जंगल को छेड़ चुकी आग को रोकना जरूरी था वरना सारा जंगल भस्म हो जाता। पिछले कई माह से बारिश नहीं हुई थी और आसपास के अधिकांश जंगल सूखे के कारण सुलग रहे थे।
गांव में फौरन मयार ( एक परिवार से एक व्यक्ति का रिवाज ) लगाई गई । ग्रामीण तीन किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई नापकर जंगल पहुंचने लगे लेकिन आग की प्रचंडता के आगे उनकी संख्या और साधन कम पड़ गए। पर वे हिम्मत खोने वाले नहीं थे। गांव से बच्चा-बच्चा तक बुला लिया गया। सभी आग पर टूट पड़े। सबसे पहले फायर लाइनें खोद कर आग और आबादी के बीच दूरी बढ़ा दी गई। करीब दो किलोमीटर दूर से कनस्तरों और अन्य बरतन-भांडों में पानी भर-भर आग बुझाने के प्रयास किए जाने लगे। पर आग जितनी जमीन पर फैल रही थी, उससे कहीं अधिक पेड़ों की शाखा-प्रशाखाओं को लांघती जा रही थी। तब कुछ हिम्मती मर्दों को धधकते पेड़ों पर चढ़ाया गया और रस्सियों के सहारे पानी से भरे कनस्तर और मसक उन तक पहुंचाए गए। यह स्थिति हफ्ता भर चली। सारा गांव खाली होकर दावानल से जूझ रहा था। आखिरकार आग को हार माननी पड़ी और इस तरह ग्रामीणों ने सैकडाों हेक्टेयर जंगल भस्म होने से बचा लिया। इस घटना में कुछ लोग झुलसे भी, पर हरियाली बचाने की खुशी के आगे जख्म जैसे छूमंतर हो गए थे।
उत्तराखंड के जंगलों में पूरे तीन माह तक चले अभूतपूर्व दावानल के बीच चमोली जिले के कनोल गांव की यह साहस कथा तब मीडिया के लिए खबर नहीं बन सकी। शायद इसकी वजह यह थी कि यह गांव इस इलाके में मोटर मार्ग के अंतिम ठहराव से 20 किलोमीटर दूर करीब आठ हजार फीट की ऊंचाई पर था। मल्ला नंदाक क्षेत्र के इस अंतिम गांव से ट्री-लाइन खत्म होकर बुग्याल शुरू हो जाता है। कनोल में तब करीब दो सौ परिवार रहते थे और यहां के अधिकांश बच्चों और महिलाओं ने बस तक नहीं देखी थी। अपनी एक छोटी सी दुनिया और प्रकृति के बीच रहने की आदत के सिवाय उनके पास कोई अन्य पूंजी नहीं थी। जंगल बचाने के पीछे उनकी यही प्रकृति प्रदत्त मनोदशा थी। वरना इन्हीं पहाड़ों में मोटर मार्गों और साधनों की बहुतायत के बीच रहने वाले कथित जागरूक लोग और वनकर्मी तो धधकते जंगलों का बस हाथ पर हाथ धरे तमाशा देखते रहे।
कनोल से जैसे-जैसे हम नीचे उतरते गए, नंदाकिनी घाटी का यह वनाच्छादित इलाका एक काले कोढ़ में बदल गया नजर आया। देखकर हैरत हुई कि आग किस तरह गुलाड़ी, वादू्र, करफूना, लिटाला, सितेल और प्राणमती इत्यादि गांवों के सघन वनक्षेत्र से ऊपर ब्रह्मताल टॉप तक काले निशान छोड़ गई है। प्राणमती वन पंचायत में तो पूरे दो किलोमीटर के परिधि क्षेत्र का जंगल बिल्कुल नष्ट हो चुका था। चमोली जिले की नंदाकिनी, पिंडर और कैल घाटी का यह समूचा इलाका मध्य हिमालय का सर्वाधिक सघन वन्य क्षेत्र है। यहां कैल, सुरई, बांज, चीड़, देवदार, खर्सू, रागा और बुरांश के अलावा भोजपत्र व थुनेर जैसे बेशकीमती वृक्ष भी हैं। साथ ही, यह इलाका दुर्लभ जड़ी-बूटियों का भी खजाना है।
लोगों ने बताया कि आग से स्वाह हुए जंगलों में लंबे इंतजार के बाद जब मई के दूसरे पखवाड़े बादल बरसे तो जंगलों से बहकर आए कार्बन से नंदाकिनी नदी काले पानी के दरिया में बदल गई थी। नदियों में बहा यह कार्बन इस क्षेत्र की कितनी मूल्यवान वनोपज का अस्तित्व हमेशा के लिए मिटा गया होगा, इस पर वन विभाग ने ध्यान देने आवश्यकता समझी कि नहीं, कहना मुश्किल है। विभाग की हालत तो यह थी कि पांच कंपार्टमेंटों में लगी विनाशकारी आग में सिर्फ ढाई सौ पेड़ों के जलने की रिपोर्ट संबंधित फारेस्ट गार्ड ने विभाग को भेजी।
संपूर्ण उत्तराखंड में उस साल आग ने रिकार्ड वन क्षेत्र पर कहर ढाया। दावानल मार्च, अप्रैल और मई पूरे तीन माह प्रचंड रूप धारण किए रहा। ज्यादातर जंगलों में आग ऊपर से नीचे की ओर लहकी। ऐसी आग में वनस्पति को हुए नुकसान की भरपाई में सालों लग जाते हैं। यह स्थिति वन्य पारिस्थितिकी को कहीं अंदर तक भेद डालती है और भूस्खलन के खतरों को न्योता देती है। पहाड़ में जीवदायी पेड़ों की कई प्रजातियां हैं जो जमीन की जलग्रहण क्षमता की दृष्टि से पर्यावरण को सहेजने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। बांज इनमें एक है। इस पेड़ को हर साल आग से सबसे अधिक नुकसान पहुंचता है। काले कोढ़ के कारण अनेक इलाकों में यह आज भी नहीं पनप सका है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं