गढ़वाल-कुमाऊं की साझी विरासत
अरुण कुकसाल
गढ़वाल-कुमाऊं की साझी विरासत है ‘दोसान्त’ इलाका, सड़क किनारे ‘समैया’ लिखा बोर्ड देखा तो सचमुच ‘मैय्या’ याद आ गई।
लगभग 10 किमी. के बीहड़ से बाहर आकर अब आयी हमारी जान पर जान। खुशी इतनी कि बोर्ड के साथ फोटो खिंचाने का मन हो रहा है। मैने कहा, गाड़ी थोड़ा रोको ! बहुगुणा जी, पर सब चुपचाप, मतलब मेरी ओर इशारा है कि चुपचाप बैठे रहो। मुसीबत से बाहर निकलने पर जरा रुक कर जश्न मनाना ही चाहिए, मैं फिर कहता हूं। पर मेरी बात मित्रों से खारिज ही समझो, चलो कोई बात नहीं। हल्के से मोड़ को पार करते ही सड़क के दोनों ओर ‘नीचे दुकान ऊपर मकान’ वाले स्टाइल के कुछ घर दिखाई दे रहे हैं। ऊबड़-खाबड़ सड़क के टेंशन से बाहर निकले तो अब भूख का अहसास भी हो रहा है। खाने को तो क्या मिलेगा, बस चबाने को मिल सकता है, याने नमकीन और बिस्कुट। पर भूख तो मुझे दाल-भात वाली लग रही है। अपन की विचारों की तरंग जारी है, अब तक रास्ते की घबराहट में भूख-प्यास नदारत थी, अब सब ठीक-ठाक दिखा तो पेट कुलबुलाने लगा है। आदमी को चैन किसी भी हालत में नहीं होता है। सड़क के ऊपरी छोर की दुकान बुर्जुग गंगादत्त पपनोई जी की है। पपनोई जी दुकान के एक कोने में रखी पटखाट पर आराम फरमा रहे हैं। दुकान के काउंटर पर उनकी पोती रुचि बैठी है। रुचि ने देघाट से इंटर की परीक्षा दी है और बीएससी वह अल्मोड़ा से करेगी। आपसी रामा-रामी होने के बाद बातों का सिलसिला चल पड़ा है। मित्रों की मांग है कि ठंडा पियेगें, और दुकान पर ‘ठंडा माने कोकोकोला’ ही है।
मजेदार बात यह है कि अभी हम गढ़वाल क्षेत्र में है परन्तु पपनोई जी की बोल-चाल पूरी तरह कुमाऊंनी है। यद्यपि उसमें गढ़वाली भाषा की लटक भी खूब है। अपने को कुमाऊंनी बोलने में भी महारथ है, इसलिए उनके और मेरे बीच ही मुख्य बातचीत हो पा रही है। बाकी साथियों का उसमें हां-हूं का ही योगदान है, बेचारे। पपनोई जी ने बताया कि यह क्षेत्र दोसान्त कहलाता है। (अब आप मन ही मन पूछ रहे होगें कि दोसान्त क्या है ? मैं बताता हूं। गढ़वाल-कुमाऊं की अलग-अलग जगहों की सीमा पर स्थित आर-पार बसे गांवों की सामुहिक पहचान का नाम ही दोसान्त है। रोजी-रोटी और बेटी के आपसी नजदीकी पारिवारिक रिश्तों के कारण दोसान्त इलाकों की बोली में ध्वनि, शब्द और व्याकरण का एक जैसा साम्य होना स्वाभाविक है। प्रसिद्ध भाषाविद गिर्यसन ने गढ़वाल-कुमाऊं के दोसान्त इलाके की इस साझी विरासत की भाषा को ‘मध्य पहाड़ी’ का नाम दिया था।)
पपनोई जी कहना है कि प्रशासनिक रूप में वे गढ़वाल क्षेत्र में हैं पर पौड़ी गढ़वाल तो उनके पीठ पीछे है। लिहाजा उनके सामने वाले जनपद अल्मोड़ा से ही उनका सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दोस्ताना है। ललित पूछते हैं कि उत्तराखंड की राजधानी गैरसैंण बनती है तो यह इलाका तरक्की करेगा। परन्तु पपनोई जी का मानना हैं कि राजधानी बनने और क्षेत्र के विकास का कोई सीधा सबंध नहीं है। राजधानी में तो चतुर और चालाक ही रह सकता है। मेरी मानो तो राजधानी को देहरादून से ले जाकर दिल्ली में पटक दो। क्या फर्क पड़ता है ? क्योंकि जब सब दिल्ली की हुकूमत ने ही कहना और करना है तो फिर देहरादून राजधानी का क्या औचित्य है। साहब, पहाड़ देखने में सुन्दर लगते हैं, परन्तु उनमें रहना उतना ही विकट होता है। बाहर से यहां रहने आने वाला हमेशा भिड़-भिड़ाहट ही करेगा। यहां हम जैसे लोग ही पहाड़ की विकटता के साथ-साथ खुश होकर रह सकते हैं। पपनोई जी ने बात तो पते की कही है।
पीठसैंण की पहाड़ी धार से लगभग 30 किमी. ढ़लकती-ढ़लकती यह सड़क अब समैया गांव से कुछ सीधी हुई लगती है। समैया से देघाट 9 किमी. है। गढ़वाल के इस दोसान्त इलाके से कुमाऊं क्षेत्र में प्रवेश करने का प्रथम ग्रामीण कस्बा है देघाट। पहाड़ की तलहटी में बसा देघाट क्षेत्र एक लम्बी-चौड़ी समतल घाटी है। पीछे छोड़ आये गढ़वाल में जहां कई किमी. तक आबादी नजर नहीं आ रही थी। वहां देघाट घाटी के चारों ओर पहाड़ियों में पास-पास चम-चम चमकते गांवों की झालर चहुंओर है। आज चैत्र मास की अष्टमी का मेला है। देघाट बाजार मेले से सजा-धजा है। रंग-बिरगें परिधानों में ग्रामीण महिलायें और बच्चे देवी मंदिर की ओर हैं। लगभग हर बच्चे के हाथ या मुहं में पिपरी बाजा है। आखों में रंगीन चश्मा और हाथ में बंदूक लिए नन्हें सलमान खान भी दिख रहे हैं। मेले में जगह-जगह लगे जलेबी के थालों का अपना जलवा जरूर है पर मेले को जीवंत तो बच्चों के पूं-पूं बाजे की इकहरी लम्बी आवाजें ही कर रही है। कम ही सही पर कई महिलायें पहाड़ी आभूषणों को पहन के आयी है। जेवर पहन कर बेफिक्री से बाजार में घूमने का साहसिक आनंद पहाड़ में ही संभव है।
देघाट से आगे की ओर अब अष्टमी के मेले की ही सर्वत्र धूम-धाम है। मुझे पिपरी बाजा खरीदना है पर हमारे ड्राईवर साहब हैं कि गाड़ी रोकते ही नहीं। पत्थरखोला, उरमरा, भकौड़ा के बाद आया स्यालदे। स्यालदे ब्लाक मुख्यालय है। देघाट से भी ज्यादा भीड़ मेले में यहां जुटी है। जहां देखो वहां जीपनुमा टैक्सी ही टैक्सी। उन दुष्टों और निर्दयी टैक्सियों के हार्न की ऊंची कर्कश पौं-पौं की आवाज के बीच मेले में आये बच्चों के पिपरी बाजे की पूं-पूं की आवाज के आंनद का बजूद कम होता नजर आ रहा है। घक्का-मुक्की वाली भीड़ से आगे और बाहर निकलने की सबकी कोशिश है। प्रशासन की ओर से मेले में व्यवस्था बनाये रखने के लिए कुछ होम गार्ड के जवान हैं। पर वो भाई लोग भी भीड़ को व्यवस्थित करने से ज्यादा खुद मेले का आनंद लेते दिख रहे हैं। शहरी क्षेत्रों में पुलिस के जवानों जैसा तनाव उनके चेहरों में लेशमात्र भी नहीं है। सड़क की मुंडेर पर आराम से बैठे होम गार्ड से चलते-चलते पूछा ‘भाई आप लोग मेला देखने आये हो या उसमें व्यवस्था बनाने’। उसका जबाब सटीक था कि ‘दाज्यू (बडे़ भाई), ये मेले की भीड़ अपनी व्यवस्था खुुद ज्यादा आसानी से बना लेगी। कोई बड़ा नेता और अधिकारी तो आ नहीं रहा है मेले में। उनके आने से ही तो अव्यवस्था होती है।’ अब यह बात सुनकर तो मन खुश ही हो सकता है।
स्यालदे के बाद सतरोटी और उसके बाद रामगंगा के तट पर है जैनल। देघाट से जैनल 21 किमी. है। हमारी ओर से आने वाली सड़क और उसके दांई ओर डोटियाल (मानिला के पास) से आने वाली सड़क जैनल पुल के किनारे आपस में मिलती है। रामगंगा नदी के ऊपर बने पुल को पार करने के बाद तिराहे के आस-पास खाने-पीने की दुकानें हैं। यहां से बांया वाला सीधा रास्ता चौखुटिया की ओर और दांये वाला भिकियासैंण की ओर है। दोपहर का खाना यहीं पर खाना है। रामगंगा नदी का फाट (किनारा) काफी चौड़ा है। लोग रामगंगा में नहाने तो कुछ-एक चोरी-छिपे मछली मारने में भी अपना हुनर दिखाते नजर आ रहे हैं।
जैनल से 5 किमी. चले तो भिकियासैंण पहुंचे। भिकियासैंण कुमांयूं के पाली पछाऊं वाले सांस्कृतिक क्षेत्र की एक महत्वपूर्ण जगह है। गगास और रामगंगा के संगम पर बसा भिकियासैंण शताब्दी पूर्व कुमाऊं से बद्रीनाथ और केदारनाथ जाने वाले रास्ते का प्रमुख पड़ाव था। यहां से रामनगर व्यावसायिक मंडी जाने का पैदल ऐतिहासिक पैदल मार्ग है। साल भर की चहल-पहल वाले इस स्थल पर कभी एक विख्यात औषधालय भी संचालित होता था।। संगम तट पर नीलेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर है। कभी कुमांयू का यह प्रमुख व्यवसायिक स्थल मिर्च और पशुओं के कारोबार के लिए भी जाना जाता था। कुमाऊं के सल्ट इलाके की मिर्च देश-दुनिया में मशहूर है। आज भी भिकियासैंण में मिर्च का लाखों में कारोबार करने वाले कई आढ़ती मौजूद हैं। भिकियासैंण से अब तीखी चढ़ाई वाली सड़क पर चलते हुए बटिया, सिनौड़ा, ह्वली गांव होते हुए 18 किमी. के बाद चनौलिया गांव है। चनौलिया में अल्मोड़ा जनपद का राजीव गांधी नवोदय विद्यालय है। चनौलिया के ठीक सामने मोहनरी गांव है। मोहनरी गांव विशेष इसलिए है कि यह उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री श्री हरीश रावत जी का पैतृक गांव है।
चनौलिया से 4 किमी. पर भतरौंजखान और उसके 20 किमी. आगे ताड़ीखेत है। ताड़ीखेत से रानीखेत 10 किमी. पर है। एकदम पहाड़ की चोटी पर बसे ताड़ीखेत में कभी ताड़ी (कच्ची/देसी दारू) बनती रही होगी क्या ? मुझे नहीं मालूम। इसे तो इस विषय के अनुभवी और विद्वत लोग ही बता पायेगें। जो इस समय मेरे साथ नहीं है। पर ताड़ीखेत है बड़ा खूबसूरत और हवादार। चीड़ के पेडों से आती शाम की फर-फर हवा में अच्छी-खासी ठंड है। गाड़ी की खिड़की खोलता हूं तो ‘सर्दी लग जायेगी’ की मित्रवत टोका-टोकी में रानीखेत की धार दिखाई देने लग गयी है।
यात्रा के साथी- अजय मोहन नेगी, सीताराम बहुगुणा और ललित मोहन कोठियाल
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