वालमार्ट का फैलता सम्राज्य
महावीर सिंह जगवान
भारत के खुदरा ब्यापार के लिये और ब्यापारियों के लिये आँधी की तरह संकट है वालमार्ट।
वालमार्ट की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है, इसका विस्तार अट्ठाइस देशों मे ग्यारह हजार से अधिक स्टोरों के साथ है। 100फीसदी एफ डी आई की मंजूरी के तहत थोक कैश एण्ड कैरी की पाॅलिसी के तहत वालमार्ट ने भारत की सबसे बड़ी ई-काॅमर्स कंपनी फ्लिपकार्ट की 77%हिस्सेदारी को 16अरब डाॅलर मे खरीद लिया है।
भारत मे औसतन 650 अरब डाॅलर (43500अरब रूपये) का खुदरा बाजार है, नब्बे फीसदी बाजार पर असंघठित रिटेल कारोबारियों का ही कब्जा है, वालमार्ट की भारतीय रिटेल बाजार पर अक्रामक निवेश रूप मे बढने की नीति से रिटेल सैक्टर की असंघठित संस्थायें भयभीत हैं, होना भी चाहिये, वालमार्ट आर्थिक रूप से इतनी शक्तिशाली कंपनी है वह भारत मे अरबों रूपये के रिटेल कारोबार मे भारी विस्तार कर सरलता से बड़े हिस्से को अपने कब्जे मे ले लेगी। नीति आयोग इतने बड़े निवेश से गदगद है जबकि भारतीय ब्वसायिक खुदरा संरचना के लिये यह एक बड़ी चुनौती से कतई कम नहीं।
लगभग दो दशक पहले आसाम के कई गाँवों को नजदीक से देखने का अवसर मिला, वहाँ गरीबी और अशांति के वावजूद मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया वहाँ के अंतिम पंक्ति पर खड़े परिवार द्वारा स्वयं के लिये कपड़े बनाने की पारंपरिक पद्धति ने, महात्मा गाँधी की उस बात का “हम स्वयं के लिये अभाव के वावजूद भी वस्त्र बना सकते हैं, यह सब आपके स्वाभिमान सम्मान और कर्म को दर्शाता है” मै स्वयं उत्तराखण्ड से हूँ यह बचपन से सुनता आया हूँ, बाबा की वेतन तिरसठ रूपये और परिवार के कपड़ो के लिये सालभर की तनख्वाह भी पूरी नही पड़ती थी, लेकिन यहाँ तो न रूपया है न ही अन्न धन्न इसके वावजूद इतनी बड़ी परेशानी का समाधान हर घर के लोंगो के हाथ में। आज के संदर्भ मे यह सब अजनवी सा लगता होगा उस भारत की आज की पीढियाँ, अपने लिये बाहरी और अंत्रवस्त्र ब्राण्ड और टैग देखकर खरीदती हैं, यह सब जानकर यह भी न समझा जाय भारत विलायत बन गया है, भारत अभाव के युग की सम्मन्नता को खोकर आधुनिक युग की चकचौंध की गिरफ्त मे आ रहा है, जहाँ अन्न वस्त्र मकान, विकास, रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, रक्षा, भविष्य सबकुछ विदेशी निवेश कहें या साफ शब्दों मे विदेशों और विदेशियों की गिरफ्त मे फँसने का चमचमाता आभासी आकर्षण।
एक छोटे से उदाहरण के तौर पर समझें भारत मे औसत तीन करोड़ कपड़े सिलने वाले दर्जी हैं, सिलाई से संबधित मेटिरियल और कपड़ा बनाने वाले बेचने वाले से लेकर सभी दस करोड़ बड़े से लेकर छोटे और फेरी वाले लोग हैं, यह औसतन तेरह करोड़ लोग हैं जो श्रम मेहनत जोखिम और बैंको से छोटा बड़ा कर्ज लेकर अपना स्वरोजगार करते हैं, इनसे प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष दो करोड़ लोंगों को लाभ मिलता है, यह औसत पंद्रह करोड़ नागरिक हो गये, लेकिन सरकारों को लगता हैं इनसे हमे कोई टैक्स नही देता है और जो देता भी है वह इतना कम है मानो सरकारों की महत्वाकाँक्षायें पूरी नहीं होती, जबकि यह भी सौ फीसदी सच है इन सबका योगदान टैक्स के रूप मे हो या उत्पादन के रूप मे, एक से दो फीसदी जीडीपी मे इनका अनमोल योगदान है।
भारत के परिदृष्य मे राजीव गाँधी की सरकार के बाद द्रुत गति से सरकार यह समझने लगी, सार्वजनिक ढाँचे और स्वदेशी की मंशा से देश तरक्की नही कर सकता, जबकि यह कड़वा सच है सत्ताऔं की लाचारी और स्वदेशी की अनदेखी से स्थितियाँ गड़बड़ा तो गई थी साथ ही वैश्विक परिदृष्य मे विश्वब्यापार संघटन की संरचना प्रभावी हो रही थी, विकसित देश एक नई नीति की ओर बढ रहे थे जिनके दो बड़े काम थे हथियार गोला बारूद और दवाई का ब्यापार, वह अब सब सभी क्षेत्रों मे ब्यापार पर कब्जा करने को आतुर थे, परिणति निवेश और विनिवेश ने नयें आर्थिक समीकरणों को जन्म दिया। जब भी सरकारें सत्ता मे आई उनके ऊपर सबसे बड़ा दबाव रहा रोजगार का, और सरकारों को चलाने के लिये पर्याप्त खजाने का।
अब सरकारें अनुउत्पादक हो गयी हैं, सरकारें जितना धन भी कर से प्राप्त कर रही हैं, वह वेतन और सुखसुविधाऔं साथ देनदारी मे ब्यय हो जाता है। रोजगार और नया कुछ करने के दबाव मे छटपटाती सरकारें निवेश को ही एक विकल्प मानती है, इस मजबूरी को कोई भी औद्योगिक और ब्यवसायिक संस्था भली प्रकार से समझती बूझती है और अपनी शर्तों के साथ लाभाँश के उच्च सूचकांक के लिये सरकारों को मजबूर करती है। अब विश्व मे अपनी टाँगो पर खड़े रहना और बढते रहने की शक्ति अधिकतर राष्ट्र खो रहे हैं, औसतन सभी निवेश के मकड़जाल मे फँसते नजर आ रहे हैं। निवेश से कितना लाभ होगा इसकी कल्पना इसी से लगाइये जब सरकारें दिल्ली से एक रूपये गाँव के विकास के लिये भेज रही हैं और दस पैंसा भी नहीं पहुँच रहा है, यह तो खुद सरकार के मुखिया ने माना है, न्यूर्याक से आ रहे निवेश से राष्ट्र अर्थ क्षेत्र मे कितनी बड़ी फतह कर लेगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ठीक है यदि यही विकल्प है तो इतनी जबावदेही सरकार की भी है स्वरोजगार के बलबूते नब्बे फीसदी बाजार का प्रबधंन कर रहे कुशल नागरिकों के हितों की गारन्टी सुनिश्चित हो। सरकारों का इकबाल ईमानदारी पारदर्शिता और अवसरों के रूप मे अंतिम छोर के नागरिक तक पहुँचे तभी तो निवेश विनिवेश का लाभ राष्ट्र को मिलेगा।
सैम वैल्टन की कहानी
मै (सैम वैल्टन) अमेरिका के एक साधारण किसान के घर मे पैदा हुआ था। मेरे चारों ओर हर आदमी एक एक रूपये के लिये मौहताज था क्योंकि यह दौर महामंदी का था। मैने घरों मे अखबार डालने का काम किया, पत्रिकायें बेची और दूध दुहने के बाद उसे बाजार मे बेचा। इस सबका लाभ यह हुआ छोटी सी उम्र मे ही मुझे मेहनत, ईमानदारी और पैंसे के मोल का पता चल गया। इसी बीच मैने अर्थशास्त्र मे ग्रेजुएशन किया। कुछ दिनो तक सेना मे रहने के बाद मै रिटेल मैनेजमेंट के कारोबार मे आ गया। मैने ग्रामीण इलाकों मे बड़े बड़े स्टोर खोलकर ग्राहकों को डिस्काउण्ट रेट पर सामान देने के बारे मे सोचा, ताकि वैरायटी स्टोर की साख बढे। पर बैन फ्रैंकलिन के अधिकारी मुझसे सहमत नहीं थे। नतीजतन उससे अलग होकर 1962 मे मैने वाॅल मार्ट की स्थापना की। मै उत्पादकों से सीधे, कम दाम मे सामान खरीदता और ग्राहकों को भी कम कीमत मे बेचता। इसी से खुदरा कारोबार के क्षेत्र मे दुनिया भर मे वाॅल मार्ट की छवि और साख बनी।
जो भी मेरी कंपनी मे नौकरी के लिये आता था मै उससे बेहद विनम्रता से उसकी पिछली कंपनियों की खासियतों के बारे मे पूछता था। इस तरह मै तमाम कंपनियों की कार्यसंस्कृति के बारे मे पता करता था और उनमे से अच्छी चीजें अपने यहाँ लागू करता था। इस तरह बेहद विनम्रता से मै सफलता की सीढियाँ चढता गया। मेरा मानना है महान विचार चारों ओर से आते हैं बस उन्हें सुनने और उन पर अमल करने की जरूरत है। मै हमेशा इस धारणा पर विश्वास करता हूँ कारोबार कर्मचारियों की मेहनत से चलता है। इसलिये मैने अपनी कंपनी के एच आर डिपार्टमेन्ट को द पीपल्स डिवीजन नाम दिया। मेरा मानना है पेशेवर सफलता के लिये आदमी को हमेशा लक्ष्य बेहद ऊँचे रखने चाहिये। इसी तरह मै हर आदमी से चाहे वह मेरा ग्राहक हो, सहायक हो, आपूर्तिकर्ता हो या मेरी कंपनी का कर्मचारी, सम्मानजनक तरीके से पेश आने मे विश्वास करता हूँ। मेरा एक स्पष्ट शिद्धान्त है मै सामने वाले के साथ उतने ही सम्मान से पेश आऊँगा, जितने सम्मान की अपेक्षा मै खुद सामने से करता हूँ। सफलता की बहुमूल्य कड़ी विनम्रता भी है तो ऊँचे लक्ष्य के साथ दूसरों को उतना ही सम्मान देना चाहिये, जितने की अपेक्षा खुद हम करते हैं।