November 22, 2024



रामबाड़ा डायरी

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कल्याण सिंह रावत 


प्रकृति के इस क्रूर मजाक का उत्तर किसी के पास नहीं है। केदारनाथ त्रासदी में रामबाड़ा चट्टी का कही नामोनिशान नहीं बचा है।


इस त्रासदी में सबसे कड़वा घूंट जिस गावं ने पाया था वह था, रुद्रप्रयाग जनपद का दिउली भणी ग्राम जिस गाँव के 54 लोग दफ़न हो गए थे रामबाड़ा मे। जब मैं 4 अप्रैल को केदारनाथ एक टी वी चेनल टीम के साथ जा रहा रहा था तो देखा रामबाड़ा के चारों और प्रकृति दुल्हन की तरह हिमालयी बुरांस (Rhododendron campanulatum) जिसे लोकल भाषा में सुमेरु कहा जाता है सजी हुई थी, मुस्कुरा रही थी। जब कि इस वर्ष निम्न क्षेत्रो में खिलने वाला लाल बुरांश (Rhododendron arboreum) बहुत कम खिला या बेमौसम में छोटे फूल खिला कर शांत हो गया था। मैं सोच रहा था कि कही प्रकृति मुझे अप्रैल फूल तो नहीं बना रही है। क्या प्रकृति उन अभागों के आत्मा की शांति के लिए श्रदांजलि तो नहीं दे रही है? इस शांत घाटी में इस पहेली का उत्तर किसी के पास नहीं था। सोचा, जहाँ त्रासदी में लगे जख्मों को भरने का प्रयास किया जा रहा है।केदारनाथ धाम को नए सिरे से नये आकर्षक कलेवर के साथ पुनर्जीवित किया जा रहा है वहीँ उस गाँव के क्या हाल होगा जिस गाँव ने अपने 54 कमाऊ पुत्रों को इस त्रासदी में खो दिया था ? मन बनाया लौटते बक्त जरूर देउलि भणी ग्राम के लोगो के घरो में बसंत की आहट का जायजा लिया जाना जरूरी है। 


5 अप्रैल को गुप्तकाशी -घनसाली मोटर मार्ग पर स्थित नागजगाई से कुछ आगे चलकर हम मुख्य मार्ग से हट कर डेढ़ किलोमीटर की दुरी पर स्थित दिउली भणी गाँव पहुंचे। प्राकृतिक सुन्दरता का धनी व भूस्खलन, बाढ़ जैसे प्राकर्तिक आपदाओँ से कोसों दूर यह गाँव प्राकृतिक आपदा की सूची में सबसे ऊपर सूचीबद्ध होगा किसी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। बक्त किसी का इंतजार नहीं करता। हमें इस गाँव के प्रताप जी मिले जो अपने दो पुत्रों सहित होटल, जमीन, घोड़े सब गँवा चुके थे आज भी मदद के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनका कहना था घोषनाओ के मुताबिक कुछ भी नही मिला। पत्रकार प्रदीप कुमार ने भी अधिकांश लोगो को मुवावजा न मिलने की बात कही। हमने कई प्रभावित महिलाओं को एक स्थान में बुलाकर उनकी परेशानियों को सुना। अधिकांश के परिवार के कमाऊ मुखिया इस आपदा के भेंट चढ़ चुके थे। कई लोग आये रुमाल को आंसू में भीगा कर चले गये फिर रुमाल सूख जाने पर कभी नहीं आये। कुछ संस्थाओं ने दो तीन बुनकर केंद्र स्थापित कर यहाँ की बिधवा महिलाओं को रोजगार देने की पहल तो की है लेकिन उनकी हालत भी ठीक नहीं हैं। धनिता देवी सबसे कम उम्र की बिधवा हैं। इनकी दो बेटी व एक लड़का प्राथमिक विद्यालय सिरवानी में पढ़ते हैं वह मानरेगा कार्यक्रमों से कुछ कमा कर अपने बेटों की परवरिस करती हैएक बूढी सासू भी साथ में है। इनका पति रामवाडा में होटल चलाता था। केदारनाथ त्रासदी में पति काल का भाजन बना।

मैंने सिरवानी स्कूल में जाकर इनकी दो बेटियों से बात की। वे मुस्कुरा रही थी। जब मैंने उनके पिता के बारे में पूछा तो वे दोनों एक साथ बोल पड़े “रामबाड़ा में बह गये” मैंने पूछा तुमने रामबाड़ा देखा है? उन्होंने सर हिलाकर ना कह दिया। मैंने कहा रामबाड़ा की फोटो दिखाऊ तुम्हें? वे मुस्कुराकर हाँ बोल पड़े। मैंने अपने मोबाइल को खोलकर रामबाड़ा की बुरांश से लग दग बनी फोटो दिखा दी इस फोटो के पार्श्व मे रामबाड़ा का प्रभावित क्षेत्र भी दीख रहा था। फोटो देखते ही वे बोल पड़े “आहा! बुरांस” उनके चेहरे पर एक अजीब सी मुश्कान छलक पड़ी। फिर मैंने उन्हें बताया की यही वह जगह थी जहाँ मन्दाकिनी के प्रलय प्रवाह में कुछ भी शेष नहीं बचा था। मैंने दोनों बेटियों के हाथ से एक स्मृति पेड़ स्कूल परिसर में लगवाया। पास खड़े गुरु जी ने कहा “रीना तुम दोनों को इस पेड़ की देख भाल करनी है” अब की बार उनके चेहरे पर अपने जंगल में खिले बुरांश की जैसी सुर्ख मुश्कान थी।


प्रतिमा, श्यामा, घुंगरा, सुरेशी, चंपा, लीला, दर्शनी, गीता कई महिलाओं का दर्द एक ही जैसा था। कई लोग, संस्थाएं आये, आश्वासन दे गए फिर कभी नहीं आये। हमारी हालत जैसी की तैसी है। सरकार ने भी अपना धर्म सही तरह से नहीं निभाया। धोषणाएं तो बहुत हुयी लेकिन अमल में कुछ भी नहीं आया। थोडा बहुत पैसा तो मिला लेकिन वह इतना नहीं था कि हमारा परिवार चल सकता। आज हम मनरेगा व मजदूरी करके अपने परिवार को पाल रहे हैं। कई महिलाओं का दर्द आंसुओं में टपक कर सच्चाई को बयां कर रहा था। देहरादून में रह कर मैं सुनता रहा कि केदार घाटी के प्रभावितों को हर संभव मदद की जा रही है। उनके लिए रोजगार मुहया कराया जा रहा है, उनके लिए नौकरी, उनके बच्चों के लिए अछी शिक्षा आदि-आदि सुनने में लगा की उनके जीवन में शायद बसंत लौट गया है लेकिन आज हकीकत का पता चला कि बसंत तो यहाँ आया ही नहीं वह रामबाड़ा के ढलानों में ही पसरा हुवा है। जय केदार बाबा की।