चीड़ ने खाया बांज
कल्याण सिंह रावत
हमारे गाँव के पूर्वजों ने बड़ी मेहनत से खूबसूरत बांज का जंगल तैयार करके हमें विरासत में सौंपा था।
वन बिभाग इस जंगल में बनीकरण कार्यक्रम के अंतर्गत चीड का रोपण किया था 1986 में हमारे गाँव की महिलाओ ने आन्दोलन करके इसका बिरोध किया था। काम तो रुक गया लेकिन जो पेड़ लगे थे वे आज इतने फ़ैल गए हैं कि पूरा बांज का जंगल समाप्ति के कगार पर है।इसका असर अब जल स्रोतों पर भी दिखने लगा है। बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो गयी है। बांज के जंगल तो पहाड़ की आर्थिकी की रीड है। उत्तराखंड के समस्त बांज के जंगल खत्म होने के कगार पर है। कुछ जंगल परजीबी बाँदा के जबरदस्त चपेट में हैं। सब चुप हैं। 18 साल में कितने बांज के पेड़ लगे हैं कोई बताये तो सही। बांज के कितने जंगल सरकार ने तैयार किये हैं कुछ जगहों के नाम तो बताएं हम भी देखना चाहते है? तीन दर्जन बांज के जंगल मैं गिना सकता हूँ जिनके बांज के सारे पेड़ परजीबी बाँदा द्वारा खत्म होने के कगार पर हैं। तो मेरे उत्तराखंड वासियों 20 साल बाद बांज नाम की कोई चीज नहीं बच जाएगी। तब पानी और शुद्ध हवा कौन देगी। मजाक मत समझिये पहाड़ आकर एक बांज के जंगल में घुस कर असलियत देखो तो सही। चौंक जाओगे, इंटर नेट की और भौतिक सुख के आनंद को छोड़ कर दोस्तों जीवन रेखा कहलाये जाने वाले इन बांज के जंगलों की चिंता करो। सारे बांज के जंगलो से सरकर चीड के पेड़ो को हटवाए साथ ही बांज के पेड़ो को परजीवी से मुक्त कराने की योजना बनाये अन्यथा मैती भाई अपने पहाड़ के भविष्य के खातिर धरने पर बैठ सकता है।
लेखक मैती आन्दोलन के जनक हैं.