December 3, 2024



एक ढांगा की आत्मकथा

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अरुण कुकसाल


‘हिमवन्तवासी’ की रचना ‘एक ढांगा की आत्मकथा’ याने उत्तराखंड में आज के पहाड़ी आदमी की ‘व्यथा’


गढ़वाली और हिन्दी के कालजीवी कहानीकार स्वर्गीय भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवन्तवासी’ का जन्म सन् 1927 में जोश्याणा, पैडुलस्यूं, पौड़ी (गढ़वाल) में हुआ। ‘हिमवन्तवासी’ सरकारी अधिकारी रहे और जीवन भर स्वतत्र लेखन करते रहे। बचपन में लिखी कहानी ‘कुणाल’ को शाबासी मिली तो युवा अवस्था में ‘धना’ कहानी को सन् 1945 में ‘मुंशी प्रेमचन्द कहानी सम्मान’ मिला। उसके बाद प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं यथा- ‘सरस्वती’, ‘धर्मयुग’, ‘कादम्बिनी’, ‘माधुरी’, ‘मनोहर कहानियां’, ‘हमारी बात’, ‘स्त्री-भूषण’, ‘सेवाग्राम’ और ‘हंस’ नेशनल हेरल्ड, हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स में कविता, कहानी और लेख प्रकाशित होने का लम्बा सिलसिला चला।


भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवन्तवासी’ की गढ़वाली भाषा में कहानी-संग्रह ‘एक ढांगा की आत्मकथा’ (वर्ष-1988) और खण्ड-काव्य ‘सीता बणवास’ (वर्ष-2002) चर्चित रचनायें हैं। ‘हिमवन्तवासी’ जी की लिखी ‘हेड मास्टर हिरदैराम’ और ‘एक ढांगा की आत्मकथा’ गढ़वाली भाषा की अनमोल और सर्वोत्तम कहानियों में शामिल है। यदि आपने अभी तक ये कहानियां नहीं पढ़ी हैं तो मेरी सलाह पर पढ़ने के बाद आप मुझे धन्यवाद अवश्य देगें।

कहानी संग्रह ‘एक ढांगा की आत्मकथा’ में सात कहानियां विराजमान हैं। ‘हेड मास्टर हिरदैराम’, ‘भूत कू चुफ्फा हाथ’ ‘कुकुट्टध्वज’, ‘एक ढांगा की आत्मकथा’, ‘तीन त्रिगट’, ‘शिब्बा बोडी अर गूंगा’, ‘नौन्याल’ और ‘हाय रे मनिआर्डर’। चालीस से साठ के दशक के गढ़वाली जन-जीवन की रोचक अभिव्यक्त्ति इन कहानियों में हुई है। ये कहानियां गढ़वाल गद्य साहित्य की समृद्धता और संवेदनशीलता को बताती हैं। गढ़वाली मुहावरों, कहावतों और किस्से-कहानियों का दिलचस्प प्रवाह इन कहानियों में है। साथ ही पहाड़ी जीवन की विकटता और विडम्बना को इन कहानियों के माध्यम से आज पचास साल बाद भी महसूस किया जा सकता है। पहाड़ के कुछ दृश्य बदलें होगें पर सामान्य परिदृश्य आज भी इन कहानियों में वर्णित जैसा ही है।


‘हेडमास्टर हिरदैराम’ का यह कथन कि ‘कु द्यखुद साब ए जमाना मा योग्यता ? अब त सरकमणि ही सरकला ऐंच अर हीरामणि डले जाला के अंधेरा कूंणा !’ आज उत्तराखंड में और प्रभावी तौर पर जन आचरण में विद्यमान है। इसी तरह ‘एक ढांगा की आत्मकथा’ कहानी में उत्तराखंड की आज की राजनीति हू ब हू कुलांचे मारती दिखती है। ‘अरे बल बारा बरस दिल्ली रया, पर भाड़ ही झोंके ! ब्वा रे हमरा नन्दी अर ब्वा रे तेरी बल्द-बुद्धि ! क्य करे तिन अर क्य करे तेरा पशुपतिनाथ ना हमरी खातिर ? अरे डौर बजावा डौर।’. हिमवन्तवासी’ जी के यशस्वी सुपुत्र जागेश्वर जोशी भी लोकप्रिय शिक्षक और प्रसिद्ध व्यंग्य चित्रकार है।