बजट विमर्श – खोखली दरियादिली
वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
कभी – कभी बच्चों से मन के लडडू का खेल खेला जाता था। खिलाने वाला उनसे कहता था कि मान लो मैने तुम्हे इतने लडडू दिये।
अब इतने ही तुम अपनी तरफ से मिला दो। इनमें से इतने फलां फलां को दो और अब बताओ तुम्हारे पास कितने बचे आदि – आदि। क्रम इसी तरह आगे बढ़ता था। बीच में गुणा भाग जोड़ घटाओ की बात भी हो जाती थी। बच्चा जब समझाता था कि उसे फुसलाया जा रहा है तो वह कह देता था कि जाओ तुम मुझे ठगा रहे हो मैं नहीं खेलता। बच्चों में राजा को नंगा कहने का आहलाद भी होता है हठधर्मिता भी होती है व कभी – कभी मन भी होता है। लगभग ऐसी ही स्थिति देश में व अपने राज्य में बजट के मौसम है। जनता में भी बालहठ पैदा होने के खतरे हैं इसे समझ लिया जाना चाहिए। बात शुरू करें।
इस बार केन्द्रीय बजट की ये विशेषता रही कि धेले भर भी धेले जुटाने की चिंता किये बिना केवल जुमलेबाजी में ही सारे सब्ज बाग दिखा दिये गये। चुनावी माहौल में शायद यह जरूरी भी था। सरकार का एक पैसा भी न लगे और वाह वाही भी खूब मिले। गुणा भाग भी उसी पर केन्द्रित था। स्वास्थ्य योजना जिसे विश्व की सबसे बड़ी योजना कह अपनी पीठ थपथपाई जा रही है वह भी तब चलेगी जब राज्य सरकारें या बीमा कम्पनियां उस पर पैसा लगाने को तैयार हों। जी एस टी ने तो ऐसे ही उनकी राजस्व आमद कम कर दी है। राज्य सरकारों को जैसी उत्तराखंड की ही अपनी स्वास्थ्य सुरक्षा बीमा आधारित योजनायें ही या 108 एम्बुलेन्स जैसी सेवाओं को चलाना ही मुश्किल हो रहा हो। केन्द्र से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं का पैसा न आये तो लगता है कि स्वास्थ्य सेवा में कुछ हो ही नहीं रहा है। दो महिलाओं को एक बिस्तर पर लिटाना पड़ रहा है। दून के ही एक प्रमुख अस्पताल में यह कहने की भी नौबत आ गई कि औपरेशन करवाना है तो ऐनास्थिस्अ को ले आइये। एक बार बच्चों के मां बापों से इंजेक्शन मंगवाने की भी नौबत आई। ऐसे में प्राथमिकता अपने आवश्यकता के लिए खर्च जुटाने की होनी चाहिए। केन्द्र की योजनाओं के लिए राज्यों को धन जुटाना अक्सर होता है। जितनी बढ़ी योजना होती है राज्यों का अधिकांश योजनाओं में योगदान के अनुपातिक रूपये भी उतने ही बढ़ जाते हैं। मैचिंग ग्रांट के मामले या अगली किश्त के लिए यूटिलाइजेशन के मामले भी आसान नहीं होते हैं। फिर ब्लेम गेम शुरू हो जाता है। पहले ही खरा खरा कहना ठीक होता है – चाहे सरकारें अपने ही दल की हों। राजनेताओं को तो वाह वाही लेनी होती पैसा तो जनता का ही होता है। जेब तो जनता की ही कटती है। हां कुछ वायदे लगभग चार साल पहले ऐसे हुए थे कि जेब में लाखों रूपये आयेंगे। यह भी मन के लडडू का ही खेल सिध्द हुआ। इन्ही संदर्भों में पिंश्चम बंगाल ने तो अपने यहां प्रधान मंत्री की इस स्वास्थ्य योजना के लिए पैसा लगाने के लिए साफ इन्कार कर दिया है।
केन्द्र के बजट में किसान की आय दुगुना करने की बात को भी केवल बयान बाजी से ही आगे बढ़ाई गई है। फसल नुकसान का मुआवजा भी बीमा कम्पनियों के भरोसे है। राष्ट्रीयकृत सरकारी बैकों से सरकार का कुछ कहने का मुख भी नहीं रह गया है। लाखें – करोडों रूपयों की जो चोरी अभी सतही तौर पर ही सरकारी बैंकों में दिखी ही लगभग उतने ही पैसे से इस बार के केन्द्रीय बजट प्रविधान से सरकार बैंकों की माली हालात सुधारना चाहती थी। तो कुल मिला कर वह पैसा लगा भी दिया गया तो समझो केवल हिसाब चुकता हुआ। किसानों की मदद के लिए तिजोरी का मुंह अब शायद ही खुले। शिक्षा के लिए बजट की स्थिति यह है कि शिक्षा निजी पूंजी व इसके एवज में उनको लूट की छूट के साथ ही आगे बढ़ पा रही है। सरकारी रोजगार में तो खाली जगहें भी नहीं भरी जा रहीं हैं। हां व्यक्तिगत प्रयासों से जो कमायेगा उसका भी श्रेय सरकारे लेने से नहीं चूकेंगी। चाहे कोई प्रसाद बनाये चाहे चाय चाहे पकोड़े या बन टिकिया। हां मुफतखेर अपना हिस्सा लेने यहां भी पहुंच जायेगे। सरकार कुछ न भी करे तो घर चलाने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही होता है। यही तो स्किल इण्डिया। परन्तु यदि आप ऐसी विवशता में चाय बनाने वाले पकोड़े बनाने वाले व्यक्ति से पूछोगे तो शायद अधिकांश यही कहेंगे जब तक रोजगार नहीं मिला तब तक वह यह काम कर रहें हैं। वास्तव में ये लोग उद्यमियों की श्रेणी में आते हैं जो उनका स्तुत्य प्रयास है। किन्तु उनकी गणना अपने व्दारा सृजित किये गये रोजगार आंकड़ों में सरकार न जोड़े तो वास्तविक जगह श्रेय पहुंचेगा।
गरीबों के घर बिल्डरों के भरोसे हैं और कल्याणकारी योजनायें सी एस आर या भोले महाराज या मंगला देवी जैसे दानियों के भरोसे। किन्तु कुछ राज्यों की दिलदारी तो देखिये कि जेब में धेला नहीं। व जेब जब छनछनाती है तो दान अनुदान कर्जे या परियोजनाओं के पैसे से ही छनछनाती है फिर भी कहते हैं कि बजट पर सुझाव दीजिए। अलादीन का चिराग का मिलना और घी पी कर जीवन जीना व उस पर विश्वास करना अपने अपने मन की बात है। भुक्तभोगी जनता का तो अपने राज्य उत्तराखंड के बजट सुझाव पाने के हकदार मंत्री या मुख्यमंत्री जी से सामान्यतया शायद यही होगा कि कुछ ऐसा करिये कि अस्सी प्रतिशत के आस – पास का जो वेतन और प्रशाशकिय परिचालन ओवर हेड में खर्च होता है और ज्यादा से ज्यादा बीस पच्चीस प्रतिशत ही जनता के काम के लिए बचता है उसको उलटने की कोशिश करिए। चाहे धीरे – धीरे ही सही ये उपलब्धि होगी। परन्तु इसके लिए आंकड़ों का सटीक आधार चाहिए व बार – बार जनभागीदारी के लिए जनता के पास प्रबुध्द वर्ग के पास बजट के समय ही नहीं बार – बार जाना चाहिए। इस सहयेग में पक्ष विपक्ष में न विभेद हो न राजनैतिक बर्चस्व की लड़ाई हो।
प्रधान मंत्री अक्सर विपक्ष शाशित राज्यों में चुनावी भाषणों के लिए जाते हैं तो कहते हैं कि हम केन्द्र से इतने इतने पैसे इस राज्य में फलां – फलां काम के लिए भेजते हैं परन्तु यहां काम होता ही नहीं है। पैसे बेकार चले जाते हैं। वक्त है कि ये सवाल वे पैसे का रोना रोती उत्तराखंड सरकार से भी करें कि उसके भेजे पैसे के बाद काम क्यों नहीं होता है और क्यों पैसा लौटाना पड़ता। ग्राम पचायतें ये आरोप राज्य सरकार पर पिछले दिनों बार – बार लगाती रहीं कि पूर्वे वित्त आयोग की संस्तुतियों के अनुसार जो केन्द्र से आया हुआ धन ग्राम पंचायतों तक पहुंचना था वह उन तक न पहुचा व राज्य सरकार ने उसका उपयोग अपने लिए कर लिया।
जिस दिशा में राज्य अपने लिए राजस्व जुटाने के लिए बढ़ रहा है उसके समर्थन में सुझाव आदर्श उत्तराखंड की कल्पना करने वालों से शायद ही मिले। हांलांकि माफिया लौबी इससे कोई गुरेज नहीं करेगी। शराब , खनन नदी बिकवाली, गांवों और खेती को खत्म कर महानगरों में मिला राजस्व को बढ़ाने का समर्थन विश्वविद्यालयों व खुले चौपालों में मिलने से रहा। महिला समूहों से भी नहीं मिलेगा। हां वेतनभोगी या सरकारी सेवा से अवकाश प्राप्त पुनः नौकरी पाये भू. पू. आला बाबूओं से इस तरह के सुझाव मिल जाये। परन्तु हमे अभी भी चेतना चाहिए। हमारी प्राथमिकतायें यदि खनन शराब से राजस्व कमाने की होगी तो हममें ज्यादा शराब की दुकाने ज्यादा ठेके और नदियों में ज्यादा से ज्यादा खनन के स्थान चिन्हित करने होंगे। इन बुराइयों के साथ कई बुराइयां भी पनपती है। राज्य में देह व्यापार मानव तस्करी ढगगामार परिवहन ऐसे ही नहीं पनपा है। कहा जाता है जैसा अन्न वैसा मन वैसी सोच। देवभूमि की महिलायें जब स्थानीय उत्पाद से भगवान के प्रसाद और अपनी आय का प्रसार कर आदर्श स्थापित कर रहीं हैं तो एक विनम्र अनुरोध है कि एक बार महिला स्वयं सहायता समूहो से व उचित लगे तो चिन्हित आन्दोलनकारियों से और सरकारी कर्मचारी संगठनों से भी क्योंकि उनको दिये गये वित्तीय सरकारी अश्वासनों के न पूरे होने के कारण उन्हे बार – बार आन्दोलनरत होना पड़ता है पूछ लें राज्य की आय वृध्दि कैसे हो। किन व्ययों में कटौती हो व किन व्ययों में प्राथमिकता हो। फिलहाल तो साख बचाने का भी सवाल है पिछला वित्तिय वर्ष खत्म होने को है ठेकेदारों के भुगतान बाकी हैं। निजी स्कूलों को शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत बच्चों की फीस के भुगतान अस्पतालों में दवाई खरीद पिछले लिए गये कर्जो, ओवर ड्राफटों के भुगतान की भी चिन्ता स्वाभाविक है।
यह विश्वास जनता में जगाना किसी भी सरकार के लिए वांछित है कि सरकारी कामों में जनता से मिले धन का सदुपयोग इमानदारी से हो रहा है। इसमें कोई खास खर्च नहीं लगेगा यदि उत्तराखंड सरकार भी प्रति माह आधिकारिक वेबसाइट पर ही ये सार्वजनिक करने लगे कि प्रति सलाहकार पिछले माह क्या क्या सलाहें मिली और इस अवधि में सलाहकार महोदय पर जनता का कितना पैसा लगा। व उनकी सलाह पर सरकार ने क्या लाभ पाया। सरकारी खर्च पर रैबारी टाइप कार्यशालायें भ्रमण जितना कम हो उतना अच्छा है। स्वतःस्फूर्त जानकारी मिल जाये तो अच्छा ही है नही तो सूचना के अधिकार का रास्ता तो खुला ही है। निस्संदेह बधाई योग्य राज्य सरकार का तो यह कार्य है ही कि उसने दायित्वधारियों की नियुक्तियों से अब तक परहेज किया है। अश्वासनों की झड़ी भी वर्तमान मुख्यमंत्री ज्यादा नहीं लगा रहें हैं। साथ ही वह ट्रस्टों व सामाजिक संस्थाओं से सहयोग जुटाकर राज्य के वित्तिय बोझ भी काफी हल्का कर रहें हैं। यह दिशा यदि बनी रहेगी तो लाभकर होगा।
सायंकाल था। महान चाणक्य से मिलने एक अतिथि आये। वे जब पहुंचे चाणक्य चिराग की रोशनी में काम कर रहे थे। उनके पहुंचने पर कहते हैं चाणक्य चिराग बुझा कर उनको लेकर बाहर आये और वहीं उनसे बात करते रहे। चाणक्य का अतिथि से कहना था कि चिराग राजकीय व्यय से जल रहा था चूंकि मैं आपके साथ राजकीय प्रयोजन की नहीं बल्कि व्यक्तिगत बात कर रहा हूं। बाहर रोशनी है। अतः हम यहां खुले में बात कर राजकीय व्यय में बचत कर सकते हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक चिन्तक हैं.
फोटो – जेपी मेहता व गूगल