October 9, 2025



दाराशिकोह का उत्तराखंड कन्नेक्सन

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आलोक प्रभाकर


मुगल बादशाह शाहजहाँ और बेगम मुमताज महल के बेटे शहजादा दारा शिकोह में बड़ी सम्भावनाएँ थीं। वह बहुत कुछ अपने प्रपितामह अकबर की तरह था। उसे हिन्दू दर्शन में दिलचस्पी थी। उसने उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया था। वह हिन्दू संतों से मिल कर उनको जानने-समझने की कोशिश करता था। सितम्बर 1658 में सम्राट शाहजहाँ बीमार हुआ तो उसके पुत्रों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध छिड़ गया। सामूगढ़ के युद्व में औरंगजेब और मुराद की शामिल फौज से हार कर दारा शिकोह लाहौर की तरफ भाग निकला। उन दिनों दारा शिकोह का 25 वर्षीय पुत्र सुलेमान शिकोह भी उससे मिलने के लिए इलाहाबाद से हरिद्वार पहुंचा, लेकिन उसकी सेना उसे छोड़ कर औरंगजेब से मिल गयी। उधर दारा शिकोह भी औरंगजेब का मुकाबला न कर सका। उसके एक विश्वासपात्र अफ़गान सरदार ने विश्वासघात करके उसे औरंगजेब के हवाले कर दिया। 30 अगस्त 1659 को दारा शिकोह के सिर को काट कर मार डाला गया और इस तरह बड़ी सम्भावनाओं का अन्त हो गया। औरंगजेब अब सुलेमान शिकोह को भी मारना चाहता था।

शाहजादे सलमान शिकोह को श्रीनगर गढवाल के राजा पृथ्वी पतिशाह ने शरण दे दी थी। शाहजादा जब श्रीनगर पहुंचा तो, राजा ने उस पर बड़ी दया दिखायी। राजा ने उसकी सुख-सुविधा पर विशेष ध्यान दिया और अपनी विपत्ति और हानि की चिन्ता न करके उसकी रक्षा का आश्वासन दिया। दो वर्ष पहले दारा शिकोह ने शाहजहाँ से कहकर पृथ्वीपति शाह को शाही कोप से बचाया था, इसलिए कृतज्ञ राजा ने दारा शिकोह के पुत्र की रक्षा करने का हर सम्भव प्रयास किया था। उधर औरंगजेब ने राजा जयसिंह को आदेश दिया कि वह साम, दाम, दण्ड भेद से श्रीनगर के राजा को बाध्य करे कि, वह सुलेमान शिकोह को उसे सौंप दे। जय सिंह ने बहुत कोशिश की लेकिन राजा ने कहा- “चाहे मेरा राज्य छिन जाये, तो भी मुझे दुःख नहीं होगा शिवा शरणागत को छोड़ने के विचार से होगा।”


आखिरकार औरंगजेब ने पृ‌थ्वीपतिशाह के राज्य पर आक्रमण करने का फरमान सिरमौर के राजा सौभाग्य प्रकाश को दिया। जिसने कुमाऊँ के राजा से मिल कर श्रीनगर के राजा पर आक्रमण कर दिया। सिरमौर की सेना आज के टिहरी नगर के पास मालीदेवल तक आ पहुंची, लेकिन गढ़वाली सेना ने उसे पराजित कर यमुना के पार खदेड़ दिया। गढ़वाली सेना ने कुमाऊं की सेनाओं को भी मार भगाया। उधर औरंगज़ेब की शाही सेना ने दून और भाबर पर अधिकार कर लिया। राजकुमार मेदिनीशाह ने गढ़वाल राज्य को विपत्ति से बचाने के लिये गढ़वाल की राजसत्ता पर अधिकार कर दिया। उसने शाहजादा सुलेमान शिकोह को बाद‌शाह औरंगजेब को सौंपने का भी फैसला किया और 27 दिसम्बर 1660 के दिन शाहजादे को जय सिंह के पुत्र राम सिंह को सौंप दिया। 2 जनवरी 1661 में राम सिंह, तरबियत खां और दूसरे मनसबदार शाहजादे को लेकर दिल्ली पहुंचे। मेदिनीशाह भी उनके साथ गया । बादशाह ने जय सिंह के कहने पर गढवाल नरेश पृथ्वी पतिशाह के सारे अपराध माफ़ कर दिए। गढ़वाल के राजा पृथ्वी पतिशाह की यह शरणागत वत्सलता गढ़वाल के इतिहास में दर्ज है। हिंदी के श्रेष्ठ आलोचक डॉ० राम विलास शर्मा ने दारा शिकोह पर कविता लिखी थी, जिसे में प्रस्तुत कर रहा हूँ।


दारा शिकोह

दिल्ली में उमड़ आया क्षुब्ध जन-पारावार,


राहुग्रस्त चन्द्र को भी देख कर उठा ज्वार;

दीन मदहीन एक हाथी पर राज्यहीन,




शाहंशाह भारत का दाराशुको’ था सवार ।

छत्रहीन शीश पर आग-सा दुसह घाम;

पीठ पर मौत-सा औरंगजेब का गुलाम;

चारों ओर त्रस्त जन-पारावार निस्सहाय, –

रुद्ध जनकण्ठ में था अस्फुट-सा रामनाम ।

तीर लिये, तेग़ लिये, हाथ में लिये कमान,

सैनिक थे, शासक थे- हिन्दू और मुसलमान,

लोहे के-से पींजरे में फ़ारस की बुलबुल-सा

दारा वहाँ बैठा था अनाथ शिशु के समान !

मस्तक मुकुटहीन, हाथ मणिबन्धहीन,

कण्ठ में पराजय का हार एक द्युतिहीन;

पाँव में जंजीर और बन्दी पिता शाहजहाँ,

सम्राट् औरंगजेब-दारा ऐसा भाग्यहीन !

टूटा कुफ़ दारा का, अजेय रहा मुसलमान ।

विजय के साथ एक बाँदी मिली रूपवान् ।

भारत के, बाबर के तख्त पर, भाइयों के

रक्त से लिखी गयी औरंगजेब की कुरान ।

सोने का-सा देश वह गोलकुण्डा, जहाँ शाह;

शाहों का-कुबेर-सा-था शासक कुतुबशाह;

सोना वहाँ देवता था, क़ाफ़िरों का कुतुब का :

आया वहाँ ग़ाज़ी, किया गोलकुण्डा को तबाह ।

धर्मरत दारा, प्रिय पिता, पुत्र शीलवान

भारत के साधु और सूफ़ियों में ज्ञानवान

सेवक ही बना रहा-रोगी पिता शाहजहाँ;

दक्षिण से जब चढ़ा आता था मुसलमान ।

समूगढ़ ! भारत-सौभाग्य का कराल काल-

राजा रासिंह और हाड़ापति छत्रसाल

खेत रहे, जहाँ एक बाग़ो खलोउल्ला ने

दारा का नमक देशद्रोह से किया हलाल ।

‘धन्य हिन्दू ! स्वर्ग में भो पाये पिता जलदान !

प्यासा रहे मुसलमान शाहंशाह बेजुबान !’

आगरे में बोला बन्दी प्यासा पिता शाहजहाँ,

‘घन्य हो सपूत ! तुम्हीं पैदा हुए मुसलमान !’

आगरा, लाहौर और सखर से सेहबान;

दारा, और नादिरा ने छान डाले बियाबान;

कहा अन्त समय प्रिय पति से ये’ नादिरा ने

‘प्यारे ! मुझे मिले पाक वही खाक हिन्दुस्तान !’

दारा जैसे मित्र से भी घात और दुर्व्यवहार,

मालिक के जीवन को लानत हजार बार ।

क़ैद हुआ दारा, उसे ले चला बहादुर खाँ,

सोती रही नादिरा, न टूटा ख्वाब एक बार ।

और अब दिल्ली में अनाथ दारा, राज्यहीन,

बैठने को धूलि-भरा हाथी मिला दोन-होन;

चारों ओर सैनिक हैं तेग़ लिये, तीर लिये,

बीच में है त्रस्त बलि-पशु दारा भाग्यहीन !

रोते थे ग़रीब, दारा बैठा था झुकाये माथ,

बोला यों भिखारी एक- ‘आज हो गये अनाथ !

दाता ! दोनों हाथ से लुटाते थे भिखारियों को,

आज ही क्या एक बार चला जाऊँ खाली हाथ ?’

बैठा रहा दारा वहीं नीचे को झुकाये माथ,

ऊपर की ओर बिना देखे ही उठाया हाथ,

आखिरी निशानो एक चादर थी नादिरा की,

फेंक दो अनाथ ने, भिखारी को किया सनाथ ।

व्यर्थ है पुकार और व्यर्थ है यह कुहराम,

खुदा को पुकारना है व्यर्थ लेना राम-नाम;

घूमती है लाश अभी नगर में चारों ओर

किन्तु इतिहास में है दारा का अमर नाम ।

शान्त हुई दिल्ली और शान्त जन-पारावार;

दक्षिण में किन्तु उठा झंझावात दुर्निवार;

धूलि से दिशाएँ ढकों, धूलि-भरा आसमान;

दिल्ली पर छा गया प्रलय का-सा अन्धकार ।

काँप उठा सिंहासन, काँप उठा शाहंशाह,

फूट पड़ा ज्वालामुखी जहाँ उसे मिलो राह !

काँप उठी भाइयों के रक्त में रंगी कटार

जागी प्रतिहिंसा और शासन को नयी चाह !

उत्तर से उठी घटा, काला हुआ आसमान;

दासी-पुत्र बना राजद्रोही पिता के समान,

टूटे चूर शासन के; दारा का रुधिर लिये

प्रेत-सा जगाता रहा ‘ग़ाज़ी’ दिल्ली का मसान।

रामविलास शर्मा