November 23, 2024



रचनाओं में बसा पहाड़

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चारू तिवारी 


हमारे नीति-नियंताओं में इतनी समझ नहीं है कि वे अपनी आसपास की प्रतिभाओं को पहचान सकें।


असल में सत्ता प्रतिष्ठानों में जब तक सांस्कृतिक समझ वाले लोग नहीं जायेंगे तब तक समाज में बदलाव आ नहीं सकता। सांस्कृतिक चेतना ही नीतियों में संवेदनाओं का समावेश कर सकती है, तभी वह जनपक्षीय भी बन सकती है। ऐसी सांस्कृतिक और साहित्यिक चेतना का एक बड़ा आकाश पहाड़ में फैला है। उसे पहचानने की आवश्यकता है। उसे हमारे राजनीतिक लोगों ने हमेशा या तो उपेक्षित किया या वे उन्हें जानते नहीं हैं। जानने वाले होते तो उनकी प्रतिभा का उपयोग राज्य की बेहतरी के लिये किया जाता। बहुत सारे लोग हैं जो अपनी रचनात्मकता से देश के साहित्यिक जगत में महत्वपूर्ण स्थान बना रहे हैं उनमें सामाजिक बदलाव की चेतना है। उनके साहित्य और लेखन में यह दिखाई भी देता है। इनमें ज्यादातर उन स्कूलों में शिक्षक हैं जिन्हें सरकार लगातार बंद करने की साजिश में लगी है। इनमें कुछ नाम हैं। महावीर रंवाल्टा, महेश पुनेठा, दिनेश कर्नाटक मनोहर चमोली, कल्याण मनकोटी, प्रीतम अपछ्याण आदि। इन लोगों ने अपने स्तर पर भी जो प्रयोग किये हैं वे नीति-नियंताओं को रास्ता दिखाने वाले हैं। महावीर रवांल्टा हिन्दी के ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने अपने लेखन में पहाड़ को उतारा है। उन्होंने साहित्य की हर विधा पर लिखा है। सरकारी नौकरी में रहते हुये वे लगातार हमारी संवेदनाओं से जुड़े रहे। एक रचनाकार के रूप में उन्होंने उपन्यास, नाटक, कहानी संग्रह, लघु कहानी संग्रह तो लिखे ही हैं कविता संग्रह, बाल साहित्य और नाटकों में अपने समाज को प्रतिबिंबित किया है। महावीर रवांल्टा ने लोक साहित्य को जिस तरह से समृद्ध किया है वह उल्लेखनीय है। विद्यासागर नौटियाल की कहानियों में जहां हम टिहरी और उत्तरकाशी के पूरे सामाजिक ताने-बाने को समझ सकते हैं, वहीं महावीर रंवाल्टा ने हमें रंवाई, जौनसार से लेकर हिमालय की समृद्ध थाती से भी रूबरू कराया है। उसे हिन्दी साहित्य के माध्यम से बड़ा फलक प्रदान किया है। वे स्वास्थ्य विभाग में हैं।


महेश पुनेठा पिथौरागढ़ के हैं। शिक्षा विभाग में हैं। मूलतः शिक्षक महेश बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी हैं। उनकी देश-दुनिया के बदलावों पर सजग दृष्टि रहती है। अपने रचनाक्रम में उन्होेंने कभी भी आम आदमी के सरोकारों को छोड़ा नहीं। बहुत संवेदना के साथ उन्हें अपनी कविताओं में उतारा। उनकी कविताएं देश की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में तो प्रकाशित होती ही हैं, उनके समाज में चेतना के लिये अभिनय प्रयोग न केवल उत्तराखंड के लिये उपयोगी होते हैं, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी उनकी सराहना की जाती है। उन्होंने शिक्षा में विशेषकर बच्चों की रचनात्मकता को उभारने के लिये जो प्रयोग किये हैं वह अद्भुत हैं। उनके नेतृत्व में पहली बार ‘दीवार पत्रिका’ का विचार आया। इसके माध्यम से बच्चों को अपनी अभिव्यक्ति को आगे बढ़ाने में मदद मिली। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर ‘शैक्षिक दखल’ नाम से पत्रिका भी चलाई है। यह पत्रिका शिक्षा पर नये विचार और शोध का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वे कई सामाजिक और साहित्यिक संस्थाओं के साथ जुड़कर पहाड़ को अपनी दृष्टि से समझने और यहां की समस्याओं के समाधान के रास्ते तलाशते हैं। शिक्षकों में एक महत्वपूर्ण नाम है दिनेश कर्नाटक का। दिनेश कर्नाटक रानीबाग, नैनीताल में रहते हैं। राजकीय इंटर कालेज में प्रवक्ता हैं। बहुत छोटी उम्र में हिन्दी साहित्य के स्थापित नाम हैं। ‘काली कुमाऊं का शेरदा तथा अन्य कहानियों’ के अलावा ‘फिर वही सवाल’ और ‘ख्ंाडहर’ प्रकाशित हो चुके हैं। वे एक शिक्षक के अलावा सामाजिक बदलाव की धारा में चलने वाले हैं। वे शिक्षकों द्वारा निकाली जाने वाले पत्रिका ‘शैक्षिक दखल’ को चला रहे हैं। उन्होेंने अपने प्रयासों से पढ़ने का माहौल बनाने के लिये रानीबाग में एक सुन्दर पुस्तकालय भी चलाया है।

बाल साहित्य में हिन्दी जगत मे एक जाना-पहचाना नाम है मनोहर चमोली ‘मनु’ का। मनोहर चमोली ने बहुत कम उम्र में साहित्य जगत में अपने को स्थापित किया है। मूलतः शिक्षक मनोहर चमोली एक ऐसे रचनाकार हैं जिनकी देश की हर पत्र-पत्रिका में रचनायें प्रकाशित होती हैं। ‘ऐसे बदली नाक की नथ’, ‘पुछेरी’, ‘चांद का स्वेटर’, ‘बादल क्यों बरसता है’, ‘अंतरिक्ष से आगे बचपन’ जैसी महत्वपूर्ण कृतियां उन्होंने लिखीं। वे भले ही हिन्दी में लिखते हों, लेकिन उन्होंने जिस तरह अपनी रचनाओं में पहाड़ को शामिल किया है उससे पहाड़ की कई महत्वपूर्ण थाती से देश-दुनिया के लोग परिचित हुये हैं। एक और शिक्षक हैं कल्याण मनकोटी। उन्हें हम एक ऐसी शख्सियत के रूप में जानते हैं जिसके लिये शिक्षक का मतलब सिर्फ पढ़ाना नहीं है। वह समझते हैं कि जब तक हम चेतना का बड़ा मंच पीढ़ियों के लिये तैयार नहीं करते तब तक शिक्षा की सार्थकता नहीं है। वे बच्चों के बीच तो लोकप्रिय हैं ही साथ ही अपने क्षेत्र के सामाजिक सवालों को भी उठाते रहते हैं। उन्होंने समय-समय पर सामाजिक चेतना की बहुत सारी आवाजों का नेतृत्व किया है। पिछले वर्षों में जितनी भी आपदायें आयीं उनमें राहत कार्यों और प्रभावित परिवारों को मदद पहुंचाने में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कल्याण मनकोटी को शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिये राष्ट्रपति पुरस्कार मिल चुका है।


डाॅ. प्रीतम अपछ्याण भी शिक्षक हैं। पहले दूनागिरी में थे, आजकल चमोली जनपद में हैं। वे पहाड़ को जीते हैं। साहित्यकार हैं। साहित्य की कई विधाओं में उन्होंने अपनी कलम चलाई है। कहानियां लिखी हैं। कविताएं करते हैं। बाल साहित्य पर लिखा है। पहाड़ के पर्यावरण, साहित्य, भाषा, संस्कृति पर बहुत अच्छे लेख प्रकाशित हुये हैं। वे जहां भी गये साहित्य और सामाजिक-साहित्यिक चेतना का माहौल बना लेते हैं। डाॅ. अपछ्याण द्वाराहाट के आसपास होने वाली हर गतिविधि में शामिल रहते हैं। द्वाराहाट में ‘सृजन’ संस्था से भी जुड़े हैं। एक हमारे बहुत महत्वपूर्ण साथी हैं डाॅ. पंकज उप्रेती। पंकज इस समय खटीमा डिग्री काॅलेज में संगीत के एसोशिएट प्रोफेसर हैं। उनमें संगीत और सांस्कृतिक थातियों के प्रति अनुराग पंरापरागत है। उनके पिता आनंदबल्लभ उप्रेती ने अपना पूरा जीवन ही पहाड़ के सरोकारों में लगाया। डाॅ. उप्रेती पहाड़ की सांस्कृतिक विधाओं का अक्षुण्ण रखने के लिये शिद्दत के साथ लगे हैं। होली और रामलीला के संगीत पक्ष को जितने बेहतरीन तरीके से उन्होंने समझाने की कोशिश की है वह अद्भुत है। उन्होंने रामलीला के गायन पक्ष पर न केवल पुस्तक लिखी, बल्कि वह हमारे लोकनाट्य विधा को समझने की महत्वपूर्ण पुस्तक भी है। वे हल्द्वानी में प्रतिवर्ष होली में बहुत सुंदर बसंतोत्सव का आयोजन करते हैं। नई पीढ़ी में हमारी विधाओं के हस्तांतरण का वह भागीरथ काम कर रहे हैं।

कुछ शिक्षक साथियों के पास फिर आऊंगा फिलहाल इस कड़ी को समाप्त करते हुये कुछ ऐसे लोगों के बारे में जो लंबे समय से साहित्य, संगीत, कला और सामाजिक संदर्भों को उठाते रहे हैं। इनमें एक नाम है लोकेश नवानी का। लोकेश नवानी अच्छे कवि तो हैं ही सामाजिक विषयों पर भी उन्होंने अपना महत्वपूर्ण योगदान किया है। उन्होंने ‘धाद’ संस्था के माध्यम से सामाजिक, साहित्यिक के अलावा उत्तराखंड के ज्वलंत सवालों पर भी अपना दृष्टिकोण रखा है। उन्होंने लोकभाषाओं और लोकविधाओं के बारे में बातचीत और उनके संरक्षण-संवर्धन के लिये काम किया है वह अद्वितीय है। राज्य आंदोलन के दौरान उनके चर्चित पोस्टरों ने लोगों में एकजुट होने का संदेश दिया। उनकी कविताएं हमेशा आम आदमी के सवाल उठाती रही। कई कविता पोस्टरों से उन्होंने पहाड़ के संदर्भों को आमजन तक पहुंचाया है। अतुल शर्मा को हम सब लोग एक कवि-गीतकार के रूप में जानते हैं। लेकिन उन्होंने उपन्यास, नाटक और गद्य लिखे हैं। देहरादून में रहते हैं। बहुत सहज और सरल व्यक्तित्व वाले अतुल शर्मा ने अपने रचनाक्रम में जिस तरह पहाड़ को रखा है उसने बहुत से लोगों को रास्ता दिया। समझ दी है। मूल रूप से वे जनकवि हैं। राज्य आंदोलन के दौरान उनके गीत आंदोलन की अगुआई कर रहे थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में आमजन की पीड़ा, वेदना और उससे निकलने वाली प्रतिकार की आवाजों को शामिल किया है। ‘थकती नहीं कविता’, अब तो सड़क पर आओ, नदी तू बहती रहना और बिना दरवाजों का शहर जैसे उनके कविता संग्रह हैं जो अपने समय से मुठभेड़ करती हैं।




(युवाओं को जानने का यह क्रम जारी है। अगली बार कुछ और युवाओं के साथ….)

लेख़क चिन्तक और वरिष्ठ पत्रकार हैं 

फोटो – जे. पी. मेहता