March 9, 2025



पहाड़ करवट ले रहा है

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चारू तिवारी 


जब पहाड़ को व्यापक दृष्टि से समझने की बात आती है तो कुछ नाम और साथी ऐसे हैं जिन्होंने बहुत गंभीरता से पहाड़ के सवालों को अलग-अलग मंचों से उठाया है।


इन लोगों में वे लोग हैं जो अब एक मुकाम हासिल कर चुके हैं, लेकिन पीछे मुड़कर पहाड़ को देखने की उनकी समझ साफ है। इनमें मेरे करीबी मित्र सुशील बहुगुणा, हृदयेश जोशी, योगेश भट्ट, रतनसिंह असवाल और सुभाष तराण हैं। सुशील बहुगुणा एनडीटीवी में हैं। पिछले दो दशक से वे लगातार पत्रकारिता के माध्यम से पहाड़ के सवालों को बहुत संजीदगी से उठा रहे हैं। उन्होंने कई ऐसी महत्वपूर्ण रिपोर्ट उत्तराखंड पर की हैं जो वहां के संकटों को समझने का दस्तावेज हैं। उन्होंने बहुत संवेदनशीलता के साथ अपनी खबरों को अपने काम तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसमें वहां की पीड़ा को बखूबी बयां किया। उनकी पहाड़ की नीतियों के बारे में साफ समझ है। यही वजह है कि जब भी वे वहां के विषय उठाते हैं उसमें आम आदमी अपनी तकलीफों को देखा जा सकता है। सुशील दो दशक से पत्रकारिता में हैं। कई बड़े मीडिया संस्थानों में काम करने के बाद वे लंबे समय से एनडीटीवी में हैं। उनकी रुचि हमेशा पहाड़ को और गहराई से जानने की होती है। जब भी मौका लगता है वह राष्ट्रीय मीडिया में पहाड़ के लिये जगह तलाश लेते हैं। बहुत बेचैन भी रहते हैं पहाड़ को लेकर। मंचों में या किसी प्रेस वार्ता में कभी यह बेचैनी फूट भी पड़ती है। पत्रकारिता के लिये उन्हें देश का प्रतिष्ठित ‘रामनाथ गोयनका’ पत्रकारिता पुरस्कार मिल चुका है। वे बहुत सहज और मिलनसार इंसान के अलावा लोगों से अधिक से अधिक संवाद बनाने की कोशिश करते हैं।


हृदयेश जोशी एक सजग पत्रकार हैं। एनडीटीवी में उनकी रिपोर्टिग को जो भी देखता है उनकी विषय पर पकड़ और समस्या की तह में जाने तक की कला का कायल हो जाता है। उन्होंने अपने को जिस तरह मुख्यधारा की पत्रकारिता में स्थापित किया है वह उनकी काम के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कई विषयों पर उनकी बहुत सारी महत्वपूर्ण रिपार्ट हैं। देश का कोई हिस्सा नहीं छूटा होगा जहां से हृदयेश ने रिपोर्टिंग न की हो। उन्होंने नक्सली इलाकों की समस्याओं पर बहुत शोध के साथ खबरें की हैं। कई बार वे इन क्षेत्रों में गये। मजदूरों, दलितों, आदिवासी क्षेत्रों की समस्याओं को उन्होंने बहुत गहराई से समझते हुये उठाया है। उत्तराखंड के बांधों, जंगल की आग और जमीनों के सवाल पर उन्होंने बहुत खबरें की हैं। वर्ष 2013 में केदारनाथ में आई आपदा पर जितनी संवेदनशील और आम जनता के कष्टों को उन्होंने रखा वह पत्रकारिता में बहुत कम देखने को मिलती है। जब चैनलों ‘कौन सबसे पहले केदारनाथ पहुंचा’ की होड़ लगी थी तब हृदयेश गांवों में लोग के मौजूं सवालों को उठा रहे थे। वे बहुत समय तक इस क्षेत्र में रहे। केदारनाथ पर ‘तुम चुप क्यों रहे केदार’ नाम से उनकी एक महत्वूपर्ण पुस्तक भी आई। यह पुस्तक न केवल केदारनाथ की त्रासदी का दस्तावेज है, बल्कि उत्तराखंड में आज तक आई आपदाओं को जानने का ग्रंथ भी है। इसका अंग्रेजी संस्करण पेंग्विन ने छापा। बाद में उन्होंने कश्मीर और नेपाल की आपदाओं पर भी बहुत गंभीरता से अपनी रिपोर्टिंग की। नक्सल प्रभावित आदिवासी क्षेत्र पर लिखा गया उनका उपन्यास ‘लाल लकीर’ हिन्दी साहित्य में बहुत चर्चित हुआ। हृदयेश बहुत शांत तरीके से बेहतर काम करने वाले इंसान हैं। कई पुरस्कारों के साथ उन्हें दो बार प्रतिष्ठित ‘रामनाथ गोयनका’ पुरस्कार मिल चुका है।

वे आपको जहां मिल जायें एक ही बात कहेंगे मिरचोड़ा आना। यह उनका तकिया कलाम है। वहीं ‘चिंतन कुटीर’ बनाई है। कौन है जो वहां नहीं गया। ठेठ गढ़वाली अंदाज में दिये इस निमंत्रण को टालने की किसमें हिम्मत है। मौका लगे तो खाने का मीनू भी बात दें। पौड़ी जनपद के अस्वालस्यूं पट्टी के इस थोकदार का भी अपना जलवा है। अब रतनसिंह असवाल का नाम भी बताना पड़ेगा क्या? बहुत जिंदादिल इस इंसान में एक पहाड़ बसता है। इसी पहाड़ की पीड़ा ने उन्हें लगातार पहाड़ के सवालों को उठाने की ऊर्जा प्रदान की। वे ‘पलायन एक चिंतन’ के नाम से वर्षो से एक अभियान चला रहे हैं। इसके माध्यम से उन्होंने संवाद का एक बड़ा मंच तैयार कर दिया है। एक तरह से बहुत सारे क्षेत्रोें के लोग एक साथ खड़े दिखाई देने लगे हैं। कभी मल्टीनेशनल कंपनी में अच्छे पद पर कार्य करने वाले असवाल ने अब अपने को पूरी तरह समाजिक कार्यो में लगा दिया है। वे हमेशा उत्तराखंड की बेहतरी के बारे में सोचते हैं। योगेश भट्ट जनपक्षीय पत्रकारिता का एक जाना-पहचाना नाम है। उन्होंने जिस मजबूती के साथ अपनी पत्रकारिता में आमजन के सवालों को रखा है। वे कई मीडिया हाउसों में काम कर चुके हैं, लेकिन उन्होंने जिस तरह से अपनी पत्रकारिता में आमजन की बातों को रखा है उससे वह अपनी अलग पहचान रखते हैं। उन्होंने सच के साथ खड़े रहने के लिये किसी बात की परवाह नहीं की। यही वजह है कि जब कभी वे तथ्यों के साथ लिखते है तो उसमें तल्खी भी आ जाती है।


सुभाष तराण हमारे बीच में एक ऐसे युवा हैं जिन्होंने लेखन की अलग-अलग विधाओं में अपने को स्थापित किया है। लोकसभा में कार्यरत सुभाष आपको जहंा मिल जायें ऊर्जा का एक स्त्रोत फूट पड़ता है। उन्होंने जौनसार और रवांई क्षेत्र से हम लोगों को बहुत तरीके से परिचित कराया है। उनके यात्रा वृतांत तो महत्वपूर्ण हैं ही कहानी और कविताओं में भी उन्होंने आम आदमी के जनजीवन को उतारा है। घुमक्कड़ी से उन्होंने पूरे पहाड़ को नाप लिया है। घुमक्कड़ी को उन्होंने पहाड़ को जानने-समझने का आधार बनाया। बहुत खूबसूरती से उन्होंने उसे अपने रचनाक्रम में उकेरा भी है। सुभाष हमेशा पहाड़ की बेहतरी के लिये सोचने वाले युवा हैं। अखिलेश डिमरी लंबे समय से पहाड़ के सरोकारों से जुड़े ऐसे युवा हैं जिनमें पहाड़ के प्रति छटपटाहट है। वे सोशल मीडिया के माध्यम से पहाड़ की आवाज लोगों तक पहुंचाते हैं। कपिल डोभाल लंबे समय से उत्तराखंड में चकबंदी को लेकर आंदोलित हैं। उन्होंने पहाड़ में चकबंदी के नारे को जिस तरह से आम लोगों के साथ जोड़ा है वह बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरह से पहाड़ में चकबंदी को ही अपना मिशन बनाया है। एक और महत्वपूर्ण नाम है तन्मय ममंगाईं का। तन्मय सरकारी सेवा में रहते हुये भी जिस तरह पहाड़ के सवालों से जुड़े हैं वह अद्भुत है। ‘धाद’ संस्था के साथ जुड़कर उन्होंने जिस तरह उत्तराखंड की संस्कृति, साहित्य, भाषा, गीत-संगीत, नीति-नियोजन और उससे बड़ा जनचेतना का काम किया है उसने हमारे पहाड़ीपन को बनाये रखा है।

इस कड़ी को समाप्त करने से पहले उन तीन लोगों को सलाम जो इस पीढ़ी से थोड़ा आगे से पहाड़ को अपने साथ लेकर चल रहे थे। उनमें कमला पंत, गीता गैरोला और मुकेश बहुगुणा हैं। कमला पंत ने पहाड़ को जितने शिद्दत के साथ जिया है वह वहां की सामातिक-राजनीतिक चेतना का बड़ा रास्ता खोलता है। अस्सी के दशक से वह लगातार उत्तराखड़ के सवालों को लेकर सत्ता प्रतिष्ठानों के साथ होने वाली मुठभेड़ में शामिल रही हैं। कौन सा आंदोलन, कौन सा जनचेतना को पड़ाव ऐसा है जिसमें कमला दी शामिल नहीं रही हैं। एक समय था जब उत्तराखंड में युवा चेतना नई करवट ले रही थी तब कमला दी थी जिन्होंने उसे संकल्पों के साथ आगे बढ़ाया। उन्होंने पहाड़ की महिलाओं मे लड़ने को जज्बा पैदा किया वह आज भी हमें हर आंदालन में दिखाई देता है। उनके बारे में लिखूंगा तो लिखता चला जाऊंगा, फिलहाल इतना की वह हमारी चेतना की ज्योतिपुंज हैं। ‘महिला मंच’ के माध्यम से पहाड़ के सवालों पर संघर्षरत हैं। सभी संघर्षशील ताकतों के साथ हमेशा खड़ी मिलती हैं। गीता गैरोला लिखते ही एक प्रफुल्लित चेहरा मेरे सामने आ जाता है जिसमें मानवीय संवेदनाओं और किसी भी जंग को जीतने की जिजीविषा दिखाई देती है। गीता गैरोला हमारी पीढ़ी की उन शख्सियतों में हैं जिन्होंने जीवन के हर पहलू को बहुत तरीके आमजन के सरोकारों से जोड़ा। मूलतः वे एक बहुत अच्छी साहित्यकार हैं। कविता, कहानियों और अन्य विधाओं पर उन्होेंने जिस तरह लिखा है वह अद्भुत है। उनके रचनाक्रम के केन्द्र में हमेशा आम आदमी के सरोकार रहे हैं। पहाड़ या समाज के बदलाव की कोई भी छटपटाहट ऐसी नहीं है, जिसमें गीता गैरोला शामिल न हों। एक सामाजिक कार्यकर्ता के नाते भी उनका काम बहुत फैला हुआ है। उस पर फिर कभी बात होगी। अन्त में उस व्यक्ति की बात जो अपने आप में एक चलता-फिरता ज्ञानकोश है। मुकेश बहुगुणा सरकारी नौकरी करते हैं। पौड़ी जनपद के मुंडनेश्वर में प्रवक्ता हैं। पहले वायुसेना में थे। उत्तराखंड का हर कोना छान मारा है। पहाड़ को जिस तरह से उन्होंने समझा है वह हम सबके लिये बहुत लाभप्रद रहता है। उनका लेखन, पहाड़ के सवालों को समझने और उनके समाधान की दृष्टि उनके पास है। व्यंग्य लेखन में तो उनका जबाव नहीं। उनके यात्रा संस्मरण पहाड़ को समझने के दस्तावेज हैं। सोशल मीडिया में सक्रिय रहते हुये उन्होंने हर विषय को बहुत गहराई रखा है। प्रवक्ता बनने से पहले उत्तराखंड ही नहीं देश के मानवाधिकार एवं कई आंदोलनों में शामिल रहे।




(युवाओं को जानने का यह क्रम जारी है। अगली बार कुछ और युवाओं के साथ….)

लेखक पहाड़ के विचारक और वरिष्ठ पत्रकार हैं.