गढ़वाली के अभिलेखों की रूप रचना
वीरेन्द्र पँवार
उपयोगी दस्तावेज है ‘ गढ़वाली के अभिलेखों की रूप रचना ‘
गढ़वाली भाषा आज भले ही अपने अस्तित्व को लेकर संकट का सामना कर रही है,परन्तु भाषाविद और साहित्यकार इस भाषा को बचाये रखने के हर सम्भव प्रयास जारी रखे हुए हैं। डॉ० ख्यात सिंह चौहान ख्याली की पुस्तक ‘गढ़वाली के अभिलेखों की रूप रचना’ इसी प्रयास का एक हिस्सा है। यह पुस्तक गढ़वाली भाषा के रूप को अलग कोण से देखने की कोशिस का महत्वपूर्ण उपकरण साबित हो सकती है। पुस्तक एक ओर शिलालेखों और ताम्रपत्रों में मौज़ूद गढ़वाली भाषा के रूप विवेचन प्रस्तुत कर गढ़वाली भाषा की प्राचीनता सम्बन्धी स्थापना को मजबूत आधार प्रदान करती है तो दूसरी ओर पुस्तक इस विचारधारा को भी पुष्ट करती दिखती है कि गढ़वाली में सम्प्पूर्ण भाषा के गुण मौजूद हैं।
पुस्तक में गढ़वाली भाषा के मूल के सम्बन्ध में प्राप्त मतों की समीक्षा की गयी है फिर भी गढ़वाली की उत्पत्ति कहाँ से और कैसे हुई, इस बारे में विद्वानों के स्पष्ट मत नहीं हैं। गढ़वाली भाषा के मूल के सम्बन्ध में पूर्व स्थापित अवधारणाओं को ही पुनर्स्थापित किया गया है। अधिकतर वैज्ञानिको ने गढ़वाली भाषा को शौरसैनी अपभ्रंश की भाषाओँ के अन्तर्गत माना है। भाषा की उत्पति के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है।पुस्तक में पूर्वस्थापित मतैक्य को ही उद्धृत किया गया है।
इस पुस्तक में गढ़वाली के अभिलेखों की रूप रचना के अध्ययन से गढ़वाली भाषा का सहज प्रकृति वैभव देखते ही बनता है। गढ़वाली भाषा का एक बड़ा गुण है इस भाषा का लचीलापन। इस भाषा की पाचन शक्ति बृहद है। पुस्तक में उधृत अभिलेखो की भाव ब्यंजना, शब्दावली तथा लयात्मकता में भी गढ़वाली भाषा की स्वतंत्र प्रकृति या निजत्व प्रकाशमान है। गढ़वाली भाषा के यही गुण और यही प्रवृतियाँ गढ़वाली भाषा को औरों से अलग करती हैं। गढ़वाली भाषा की प्रकृति तत्व के दर्शन प्राचीन गढ़वाली में भी परिलक्षित होते हैं।
सम्वत 1512 (तदनुसार ईस्वी सन 1455 ) के दान पत्र में प्रयुक्त का निजत्व और प्रभाव को दानपत्र में उल्लिखित भाषा के इस वाक्य (पृष्ठ 51) से महसूस किया जा सकता है: सर्व कर अकर (सभी कर करमुक्त) सर्वदान गुप्तदान (सब दान गुप्त दान) नाटा की नटाली, मुवा की औताली (अपूत ही मरने वालों की चल अचल सम्पति) आकाश को ठिठर (वायु से जुडी सम्पति) पाताल की निधि (धरती के अन्दर की सम्पति यथा खनिज या धातु सम्पदा) रामचन्द्र ले पौनी (रामचन्द्र को प्राप्त होगी)।
इस दानपत्र के इस वाक्य का अर्थ अभिभूत करने वाला है। इन तत्वों का वर्तमान गढ़वाली में उत्तरोतर ह्रास होता जा रहा है। प्राचीन गढ़वाली भाषा के सम्बन्ध में इतिहासकार और पुरातत्वविद यशवन्त सिंह कटोच के विचार महत्वपूर्ण हैं। “गढ़वाली में लिखित राजादेशों की भाषा प्रभावपूर्ण है।वह एक सशक्त भाषा का रूप ले चुकी थी। उसमे सशक्तता थी, क्योंकि वह गढ़ की माटी से उठती हुई एक सुगंध थी और पदे पदे अपनी संस्कृति के तत्वों से सारवान थी।” इस पुस्तक में लेखक ने रेखाँकित किया है कि अभिलेखोँ में ळ वर्ण का प्रयोग नहीं मिलता है। यही बात विद्व पुरातत्वविद डॉ० यशवन्त सिंह कटोच पूर्व में भी सप्रमाण कहते रहे हैं कि गढ़वाली के अभिलेखों में ळ की जगह ल वर्ण के नीचे बिन्दी लगाकर हुआ मिलता है।
पुस्तक में विद्वान लेखक ने गढ़वाली भाषा के अभिलेखों की रूप रचना को ब्याकरणीय दृस्टि से भी विस्तार से व्याख्यायित किया है। आने वाले समय में गढ़वाली भाषा के मानकीकरण में यह पुस्तक बहुत उपयोगी साबित होगी। भाषा की रूप रचना के दृष्टिकोण से गढ़वाली के अभिलेख महत्वपूर्ण हैं। यह पुस्तक शिलालेख, ताम्रपत्र आदि पर शोध करने के उद्देश्य से शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण एवं उपयोगी दस्तावेज है।
प्राचीन गढ़वाली की अदायगी मनभावन लगती है। इन प्राचीन वाक्यों के साथ साथ हिन्दी रूपान्तरण भी दिया होता तो नई पीढ़ी के पाठकों को अधिक सहज महसूस होता। पुस्तक गढ़वाली के अभिलेखों की रूप रचना पर केंद्रित है।लेखक ने भरसक दुर्लभ सामग्री संदर्भित की है और प्रमुख अभिलेखों का उपयोग सन्दर्भ रूप में किया है। पुस्तक में सन्दर्भित या उपलब्ध अभिलेखों की छायाप्रति अथवा भाषा नमूना प्रिन्ट रूप में देने की पूर्ण गुंजाइश थी। यदि ऐसा होता तो पुस्तक अनमोल दस्तावेज होती। खैर कुल मिलाकर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के प्रकाशन के लिए लेखक डॉ० ख्यात सिंह चौहान ख्याली बधाई के पात्र हैं। ‘ गढ़वाली के अभिलेखों की रूप रचना’ अविचल प्रकाशन बिजनौर से प्रकाशित है। 138 पृष्ठ की इस पुस्तक की क़ीमत रु0 200 रखी गयी है। यह पुस्तक हिन्दी में लिखी गयी है। पुस्तक प्राप्ति के लिए लेखक का संपर्क नंबर है 9568115859.