May 24, 2025



सिपाही नेगियों का कोठा(क्वाठा) -ग्राम ईड़ा (तल्ला)

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डॉ. राजपाल सिंह नेगी


ईड़ा गांव पौड़ी जनपद के चौंदकोट पट्टी के अंतर्गत स्थित है। जनपद मुख्यालय पौड़ी से लगभग तीन घंटे में यहां पहुंचा जा सकता है। यह गांव दो भागों ईड़ा मल्ला तथा ईड़ा तल्ला में बँटा है। ईड़ा तल्ला में ही लगभग 200 वर्षों से अधिक जीर्ण-क्षीर्ण अवस्था में एक छोटा किलेनुमा कोठा (क्वाठा) है। ईड़ा तल्ला में स्थित यह कोठा सिपाही नेगियों का है। गांव से ही ताल्लुक रखने वाले दो महानुभावों श्री दर्शन सिंह नेगी एवं श्री सर्वेंद्र सिंह नेगी द्वारा लिखित पुस्तिकाओं का दावा है कि इस वंश के मूल पुरुष दुनीचन्द थे। स्थानीय वाद्य यंत्र में दक्ष बाजगी द्वारा विशेष अवसरों पर गाए जाने वाले गानों (विरदावली) में भी नेगी जाति के मूल पुरुष दुनीचन्द एवं उनके मूल स्थान का उल्लेख मिलता है।

जागे जुग -धर्म नाम जागे


कुल देवी (ज्वालामुखी ) की जय हो! जय!जय!


कुल देवताओं की जय हो, जय!जय!

नेगी नगरकोट सरकटा ग्राम फौजन के,


जागे दुनीचन्द का पोता जागे।

जागे दाम -दामोदर चन्द का पोता जागे,




जागे मान मनोहर का पोता जागे…… इत्यादि

माना जाता है कि 18वीं शताब्दी के प्रथम दशक में मुगलों के आतंक से बचने हेतु दुनीचन्द पंजाब के गुरदासपुर नगरकोट से अपने छोटे से किले को छोड़कर गढ़वाल राज्य (1715 के आस पास) की तराई पातलीदून अर्थात ढिकाला पहुंचे थे। दुनीचन्द ने पातलीदून जंगलात और उसके आस-पास के इलाके पर अपना अधिकार कर लिया था। उन्होंने ढिकाला में अपना निवास स्थान बनाया, ढिकाला में अपनी स्थिति को मज़बूत करने के पश्चात् वे गढ़ नरेश (संभवतः प्रदीपशाह) से भेंट करने हेतु श्रीनगर पहुंचे, यह जरुरी भी था क्योंकि पातलीदून का क्षेत्र गढ़राज्यांतर्गत था। गढ़ नरेश ने उन्हें अपने मुख्य दरबारियों में सम्मिलित किया तथा सैनिकों के देखरेख का विभाग उन्हें सौंपा। श्रीनगर में उनके निवास स्थान को ’नेगिओ का बाग’ नाम से जाना जाता था। ज्ञातत्व है कि पूर्व में नेगी कोई जाति नहीं अपितु राज्य में व्यवस्था अधिकारी का पद होता था इसी आधार पर दुनीचन्द को सिपाहियों का व्यवस्थापक होने के कारण उन्हें सिपाही नेगी कहां जाने लगा। प्रचलित कथा अनुसार दरबार में पद मिलने के पश्चात राजा दुनीचन्द को गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में जबकि परिवार ढिकाला में ही था।

श्रीनगर से ढिकाला (लगभग 150 किलोमीटर) आने जाने के लिए कई स्थानों (पड़ाव) पर रुकना पड़ता था जिसमें कई दिन लगते थे। इसी समस्या से निजात पाने हेतु उन्होंने पड़ावों में से एक पड़ाव जो लगभग मध्य में अर्थात ईड़ा (मल्ला) को अपना स्थायी निवास स्थान बनाया तथा एक किले नुमा छोटा सा कोठा बनाया। कालांतर में दुनीचन्द के वंशज पदम सिंह नेगी (सातवीं पीढ़ी) द्वारा (1871 के आसपास) वर्तमान कोठा (क्वाठा) का निर्माण ईड़ा (तल्ला) किया। ज्ञातव्य है कि ईड़ा नेगिओ के पास पतली दून ढिकाला तथा बिजनौर के कई गाँव की जमींदारी (गोरखा काल, 1804-1815ई को छोड़कर ) भी रही। राजा दुनीचन्द की पहली पीढ़ी दाम दामोदर चंद तथा तीसरी पीढ़ी में मान मनोहर सिंह के नाम ईड़ा नेगिओ के वंशावली से प्राप्त होते है। इसके बाद वंश वृक्ष दो भागो में विभक्त हो जाता है। दाम दामोदर चंद के पश्चात् मान मनोहर के समय से नेगिओ के नामांत में ’सिंह’ शब्द प्रयोग प्रारंभ हुआ। मान्यता है कि राजा दुनीचंद के पाँचवी पीढ़ी के वंशज भूरी सिंह, गढ़ नरेश जैकीर्ति शाह के राज्य के दक्षिणी भाग के ‘गोलदार’ ( सैन्य / प्रशानिक अधिकारी) के पद पर सुशोभित थे।

ईड़ा के नेगी जाति के रोचक इतिहास के समान ही उनके कोठे का वास्तुशिल्प भी बेजोड़ नमूना है। लगभग 200 वर्ष पुराना यह कोठा अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध रहा होगा जिसका प्रमाण इसके बचे हुए अलंकृत अवशेष देते हैं। यह कोठा दो मंजिला था। कोठे की तलछन्द योजना (23×23 मीटर) वर्गाकार है, जिसके मध्य में वर्गाकार चौक है तथा चौक को घेरे हुए चारो दिशाओं में कक्षों का निर्माण किया गया है। कोठे के अंदर का आंगन 43×43 फीट है, इसमें भूतल में 18 तथा पहली मंज़िल में 17, कुल मिलाकर 35 कमरे थे। कोठे का गृह मुख काष्ठ निर्मित तथा मेहराब युक्त है साथ ही दोनों तरफ चार ’आले’ (Arc Aclove ) हैं जो तीनों ओर से खुले हैं। प्रवेश द्वार के ऊपर एक प्रलंबित छज्जा/तिबारी (Eaves) बनाया गया है तथा छज्जे में आने-जाने हेतु एक दरवाजा भी है जिसमें 6 अलंकृत काष्ठ निर्मित खंबे हैं तथा प्रवेश द्वार के ललाटबिम्ब पर गणेश की प्रतिमा बनाई गई है।

कोठे का सबसे विशिष्ट अंग इसका काष्ठ निर्मित अलंकृत प्रवेश द्वार है। द्वार के स्तंभ 6 अलग-अलग तरह की पत्तियों से सुशोभित हैं जिसमें प्रत्येक शाखा को विस्तृत अलंकरण से सजाया गया है। सबसे भीतरी शाखा को ’पत्र शाखा’ (पत्तों) से अलंकृत किया गया है। दूसरी शाखा फूलों तथा पत्तियों के संयोजन से सुशोभित है जिसे पुष्प पत्र शाखा कहा जाता है। द्वार की तीसरी शाखा में ज्यामितीय पैटर्न है, चौथी शाखा को ’लता शाखा’ से सजाया गया है जो की एक सुंदर बेल जैसी प्रतीत होती है। द्वार की पंचम शाखा पुनः ज्यामितीय संरचनाओं से अलंकृत है। द्वार की अंतिम शाखा पुष्प पत्र से सुसज्जित है। प्रवेश द्वार के भीतर एक दीवार बनाई गई है ताकि वह आगंतुक की नजर आंगन में ना पड़े। प्रवेश द्वार की शोभा बढ़ाने के लिए लकड़ी के अनेक अलंकरण बनाये गए जिसमे अर्धविकसित आधोमुख कमल के पुष्प के ऊपर हाथियों की सुन्दर मूर्तियों को स्थापित किया गया है।

इस कोठे की भीतर डंडयाली (जंगला), एक तिबारी है। डंडयाली के स्तंभ अलंकरण रहित हैं लेकिन तिवारी के काष्ठ स्तंभ संपूर्ण रूप से अलंकृत हैं। इस कोठे में तिवारी के साथ ही ’चौबारी’ का भी उदाहरण मिलता है जो इसके प्रवेश द्वार की ऊपरी भाग में है। इस कोठे को सुरक्षा की दृष्टि से दुर्गविधान परंपरा के अनुसार बनाया गया है। कोठा के दक्षिण में भी एक दरवाजा है इसके बाहर एक इवान तिबारी (दीवाने-आम) था। इस तिबारी पर बारह खंबे थे जो पूर्ण रूप से नष्ट हो चुकी है, खंभे भी गायब हो गए हैं। वर्तमान में कोठा ज़र्जर स्तिथि में है। केवल दो कमरे ही रहने योग्य है, यही स्तिथि रही तो हम उत्तराखंड की एक अनूठी विरासत को खो देंगे। हम श्री प्रशांत नेगी (कोठे के एक वंशधर ), अवकाश प्राप्त, मुख्य प्रबंधक ग॰ म॰ वि॰ निगम, का आभार प्रकट करते है जिन्होंने हमें कोठे से सम्बन्धित, श्री बलवंत सिंह नेगी एवं सुरेंद्र सिंह नेगी के द्वारा लिखित दो पुस्तिकाओं तथा अन्य कई महत्वपूर्ण तथ्यों से अवगत कराया।

लेखक हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफ़ेसर हैं.