जलवायु परिवर्तन का संकट

जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
पिछले साल का जनवरी माह, 1901 के बाद का सबसे गर्म माह था, यूरोप की जलवायु मॉनिटर कॉपरनिकस कलाईमेट चेंज सर्विस की रिपोर्ट बताती है कि, इस साल का पहला महिना अब तक का सबसे गर्म जनवरी साबित हुआ है. रिपोर्ट यह भी बताती है कि जनवरी 2025 का औसत वैश्विक तापमान, औद्योगिक क्रांति के पहले स्तर से 1.7 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया है, जो पेरिस समझौते में तय 1.5 डिग्री की सीमा को, पार करने का एक खतरनाक संकेत देता है. जलवायु परिवर्तन अब एक मानवीय संकट बन चुका है. विकसित राष्ट्र अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए तैयार नहीं हैं, हाल ही में चुने गए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पेरिस समझौते से अपने को अलग कर लिया है. वहीँ विकासशील राष्ट्रों का तर्क है कि पहले विकसित राष्ट्र जलवायु को प्रभावित करने वाले उद्योगों व उपक्रमों को जलवायु के संतुलन हेतु तैयार करे व कार्बन उत्सर्जन को घटाने का काम करे.
विकासशील राष्ट्रों का कहना है कि उनके पास विकास करने के लिए अभी अन्य वैकल्पिक व्यवस्थाएं नहीं हैं, जिस दिन वे भी विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आ जायेंगे तो वे भी जलवायु समझौतों का अनुपालन करेंगे. जा अमेरिका जैसा विकसित देश ही अंतरराष्ट्रिय समझौतों से अपने को अलग कर रहा हो, वहां जलवायु नियंत्रण करना व बड़ते तापमान तथा कार्बन उत्सर्जन को कम नहीं किया जा सकता है. दरअसल जलवायु परिवर्तन किसी एक देश का मसला नहीं है, यह दुनिया के पुरे देशों से जुड़ा हुआ सामूहिक मामला है. अगर कोई देश अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन करता है तो वह सबसे पहले पड़ोसी देशों को प्रभावित करता है. उदाहरण के लिए चीन व भारत दोनों कार्बन उत्सर्जन करने में लगभग बराबरी पर हैं, लेकिन इसका असर छोटे से साफ़ – सुथरे भूटान जैसे देश की जलवायु को बुरी तरह प्रभावित करता है. जलवायु प्रदूषण से जहाँ लगातार तापमान में वृद्धि हो रही है, वहीँ अब सालभर जंगलों में आग लगने की घटनाओं में तेजी आ गयी है.
अभी हाल ही में अमेरिका के कैलिफोर्निया में भीषण आग से अपार हानि हुई है. पिछले साल कनाडा व यूरोप में तापमान में अत्यधिक बढोतरी होने से जन जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है. इसी तरह वर्षा चक्र में बहुत बदलाव देखा गया है. बेमौसम बारिस ने पूरे फसल चक्र को प्रभावित किया है. कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा, इससे पूरी दुनिया में खाद्यान संकट भी पैदा हुआ है. अफ्रीका के कई देशों में जब लोगों को भोजन नहीं मिला तो वहां की सरकारों ने लोगों को जानवरों व जंगली जानवरों के शिकार की छूट देनी पड़ी. हिमालय के पर्वतीय प्रदेश भी जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों से अछूते नहीं है. वनों की कटाई, शहरीकरण, बढ़ता प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन, वातावरण को तेजी से गर्म बना रहे हैं. इसके अलावा हिमनदों का पिघलना, चरम मौसमी घटनाओं की बढ़ती प्रवृति भी चेतावनी दे रही है कि, जलवायु परिवर्तन दूरगामी समस्या नहीं, बल्कि हमारे वर्तमान समय की सबसे बड़ी चुनौती बन चुकी है.
उत्तराखंड और जलवायु परिवर्तन: उत्तराखंड राज्य भी विशाल हिमालय का बड़ा संवेदनशील प्रदेश है. जहाँ जलवायु परिवर्तन का असर कृषि, बागवानी, पशुपालन, उर्जा, भवन निर्माण, वन व जल सम्पदा तथा ऊँचे हिमालयी बुग्यालों, हिमनदों व बर्फीली चोटियों पर स्पस्ट रूप से देखा जा रहा है. पिछले लगभग तीन दसक से इसमें बहुत तेजी से बदलाव हुआ है. गांवों से हुए पलायन से खेती बंजर पड़ चुकी है. खेतों में हल न लगने से वह कठोर हो गयी व जल अवशोषण की क्षमता खो बैठी. तापमान में वृद्धि से जंगलों की आग अब आम घटना हो गयी है. उत्तराखंड का कोई महिना नहीं है, जब जंगलों में आग न लग रही हो. जंगलों की आग बुझाने के लिए गांवों में लोग नहीं है. हर साल किसी न किसी गांव में आग से लोगों के घर जलने की घटनाएँ होती रहती है. जिन गांवों में कृषि बागवानी हो रही है, वहां नए बीजों व पौधों का प्रचलन बढ़ा है. कहीं – कहीं रासायनिक खाधों का उपयोग किये जाने से, खेती बागवानी में भले ही उत्पादन बढ़ा हो, लेकिन मिटटी की उर्वर क्षमता घटती जा रही है, जो आने वाले समय की भयावह तस्वीर प्रस्तुत कर रही है.
पशुपालन में भी बड़ा बदलाव देखा गया है, जंगलों में चरान चुगान पर प्रतिबन्ध होने से भेड़ व बकरी पालन अब अपने अंतिम दौर में है, वही भैंस पालन तेजी से घटा है, स्थानीय प्रजाति की गायें विलुप्त प्रजाति हो चुकी है. संकर नस्ल की गायों के पालन की प्रवृति बढ़ी है. स्थानीय जल श्रोतों में या तो जल की मात्र कम हो गयी है या वे सूख चुके है. यही स्थिति स्थानीय नदियों, गाड – गधेरों की हो चुकी है. ऊँची चोटियों में बर्फ का देर तक टिकना कम हो गया, तो कई हिमनद समाप्त हो चुके है या तेजी से पिघल रहे हैं. जंगलों में पेड़ों के कटान व खदान पर प्रतिबन्ध होने से भवन निर्माण शैली बदल गयी है. मौसम में लगभग एक से डेढ़ महीने का अंतर आ गया है. निष्कर्ष रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को अब गांवों के लोग भी समझने लगे है, यह अब सिर्फ वैज्ञानिकों का विषय नहीं रह गया है.