बाबाजी की यादें
देवेश जोशी
बाबाजी की यादें : हीरो पिता का आत्मीय स्मरण.
उत्तराखण्ड के जिन क्षेत्रों को प्रकृत्ति ने नैसर्गिक सौंदर्य मुक्तहस्त से प्रदान किया है उनमें टिहरी का ग्याराह्गाँव हिंदाव क्षेत्र भी प्रमुख है। टिहरी नरेश के अधिकारक्षेत्र में होने के कारण कदाचित् प्राकृतिक सौंदर्यान्वेषी अंग्रेजों की नज़र से ये वंचित रह गया होगा। नैसर्गिक सौंदर्य के साथ-साथ ये क्षेत्र सांस्कृतिक और राजनीतिक योगदान के हिसाब से भी उत्तराखण्ड में महत्वपूर्ण स्थान रखता है । इसी क्षेत्र का केंद्रस्थल है – अखोड़ी जो उत्तराखण्ड के गाँधी के नाम से विख्यात संस्कृतिपुरुष राजनेता इन्द्रमणि बडोनी जी की जन्म व कर्मस्थली भी है तो पूर्व शिक्षामंत्री मंत्री प्रसाद नैथानी जी के अपनी जन्मस्थली से अपार स्नेह से सभी परिचित ही हैं। इनके अतिरिक्त भी दर्जनों सांस्कृतिक-राजनीतिक हस्तियों को जन्म देने का गौरव इस गाँव-क्षेत्र को प्राप्त है।
संस्कृति और साहित्य में गहरी रुचि रखने वाले अध्येता प्रवृत्ति के नवाचारी शिक्षक गिरीश बडोनी भी इसी रौन्तैली अखोड़ी की उपज हैं। एक ऐसे शिक्षक जिनका ध्येयवाक्य माई स्कूल फस्ट है। इनके पिताजी स्व0 ऋषिराम बडोनी भी संस्कृतिप्रेमी, कर्तव्यपरायण शिक्षक थे जो शिक्षकों की उस दुर्लभ कोटि के अनुपम उदाहरण थे जो मात्र मिडिल पास होने के बावजूद ज्ञान, शिक्षणकौशल और आचरण में प्रोफेसरों को भी पानी पिलाने की क्षमता रखते थे। गिरीश बडोनी के लिए स्व0बडोनी शिक्षक और गुरू दोनों भूमिकाओं में रहे। कुछ समय के लिए माँ की भूमिका में भी रहे लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण ये कि उन्हें गिरीश ने अपना रोलमॉडल भी बनाया। कम ही सौभाग्यशाली होते हैं दुनिया में जिन्हें अपना हीरो घर की चाहरदीवारी के अंदर ही मिल जाता है। पिता को याद करते हुए गिरीश बडोनी ने एक लघुपुस्तिका लिखी है – बाबाजी की यादें। किताब का नाम ही बरबस आकर्षित करता है और ये संकेत भी देता है कि किताब में कुछ अत्यंत आत्मीय जरूर होगा।
पिता के प्रथम स्मरण से लेकर अंतिम संस्कार तक के पूरे कालखण्ड को गिरीश बडोनी ने अत्यंत आत्मीयता और ईमानदारी से याद कर लिपिबद्ध किया है। कुछ यादें बहुत धुंधली हैं पर संवेदनशीलता से उन्हें भी बखूबी उकेरा गया है। साहित्यिक लक्षणों के आधार पर ये यादें कुछ कच्ची कही जा सकती हैं पर यकीन मानिए इन कच्ची यादों में मुझे वो खज़ाना नज़र आता है जो प्रेमचंद या रस्किन बांड जैसे शिल्पियों के हाथ से विश्वस्तरीय श्रेष्ठ कहानियों में शामिल होने की क्षमता रखती हैं। इन यादों में कुछ ऐसी भी अनोखी यादें देखने को मिलती हैं जिनको अन्यत्र किसी भी माध्यम में देखा-सुना-पढ़ा नहीं है, यथा – मैं हल लगाता था तो भाई हरीश हर सीं (खेत जोतते हुए हल से बनी लाइन) पर मेरे साथ, रेडियो लेकर इस छोर से उस छोर चलता था, ताकि एक भी बॉल का वर्णन मिस न हो जाए।
और ऐसी ममतामयी माँ का प्रसंग पढ़ते हुए तो सहज ही किसी के भी मन-मस्तिष्क में अत्यंत भावुक पहाड़ी नारी की छवि उभर आती है – एक बार जब मैं माँ के साथ हरियाणा गया तो माँ चीड़ के एक पेड़ को बहुत प्यार से सहलाकर बोली, इस डुंडी डाळी तक मेरी माँ मुझे छोड़ने आती थी। मेरी माँ और मैं जब भी साथ होते तो यहां जरूर बैठते। एक और घटना का माँ जिक्र करती थी कि जब नानीजी का निधन हुआ उस दौरान एक पोतळी हमारे घर के आसपास अक्सर आया करती थी और माँ उसमें अपनी माँ ढूँढती थी।
अपने कैंटा और बुला, बैलों की जोड़ी के रोचक किस्से अगर गिरीश ने पुराना दरबार टिहरी निवासी, प्रख्यात कथाकार विद्यासागर नौटियाल जी को सुनाए होते तो टिहरी की कहानियां में एक अनमोल नगीना और जुड़ गया होता जो प्रेमचंद की दो बैलों की कथा को कड़ी टक्कर देने में पूरी तरह समर्थ होता। पुस्तिका की एक खासियत ये भी है कि इसकी बहुत ही खूबसूरत भूमिका, गढ़वाल विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के विभागाध्यक्ष प्रो0 डी0 आर0 पुरोहित जी ने लिखी है जो स्वयं प्रख्यात रंगकर्मी व उत्तराखण्ड के प्रमुख सांस्कृतिक रिसोर्स पर्सन भी हैं और स्व0 ऋषिराम बडोनी से व्यक्तिगत रूप से परिचित भी। पुस्तिका का प्रकाशन केदारघाटी स्थित अत्यंत विश्वसनीय नाम के अत्यंत ऊर्जावान, संस्कृतिप्रेमी व सृजनधर्मी प्रकाशक दीपक बैंजवाल ने अत्यंत परिश्रम और सुरुचि से किया है। बाबाजी की यादें पढ़ते हुए पाठक को अपने बाबाजी की यादें भी सहज ही आ जाती हैं और बहुत सम्भव है कि ऐसा भी लगे कि दुनिया को जानने-समझने की होड़ में हमने अपने सबसे करीबी आत्मीय जनों को कितना कम जाना है, कितना कम पहचाना है।