उत्तराखंड के सपनों के लिए जगह छोड़ो
वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
विशेष नववर्ष प्रवेश पर : कुछ कोने उत्तराखंड में उत्तराखंण्डी ड्रीम और विजन के नाम पर भी छोड़ दें। राज्य स्थापना के इस पच्चीसवें साल में जो राज्य बनने के पहले तक किशोर हो गये होंगे और जिनके पास एक भविष्य के उत्तराखंड परिकल्पना भी रही होगी वे अवश्य यह देख रहे होंगे अनुभव कर रहे होंगे कि राज्य में धीरे धीरे वे कोने भी खत्म होने के कगार पर हैं जहां उत्तराखंडियों को हमारे सपनों का उत्तराखंड नहीं मिला करने के बजाये अपने राज्य में उत्तराखंण्डी ड्रीम, विजन और उतराखण्डियत की मिसाल स्थापित करने के स्थान व अवसर बाकी हों। यह चिंताजनक है। यदि गंभीरता से विश्लेषण करें तो जो कुछ आप के लिये सौगात बता कर भी किया जा रहा है, उसके केन्द्र में बाहर वालों या आती जाती जनसंचया के हित में विलासिता, मनोरंजन, व औद्योगिक प्रसार के अनुकूल स्थिति बनाना है।
देंखें कोनों कोनों में चार पांच स्टोरी होटलों की बाढ़ आ गई है। जमीनें अग्रहित कर दी जा रहीं हैं। अंतराल तक आवासीय परिसर बसाने की बाहरी होड़ तो है किन्तु स्थानीय जन के लिये कुछ करने की लालसा नहीं है। हां उनके संसाधनों पर चिलांगड़ी नजत गढ़ी है। स्थानीय लोगों के मुंह से उनके जलस्त्रोतों और पारम्परिक रास्तों पर अवरोधों के मामले बढ़ रहें हैं। और तो और घाटों पर जाना भी मुश्किल हो रहा है। फास्ट लेन सडकें बन रहीं हैं। वेडिंग डिस्टिनेशन बन रहें हैं। भले ही तब विवाही उन्माद में फिजूलखर्ची में प्रकृति का कितना ही रौंदना व रूदन हो। कूड़े के ढेर पीछे कितने ही छोड़ दिये जायें। ऐसी बदहाली के पीछे अक्सर की ये नेताई व सरकारी दलीलें होती है कि इससे राज्य के लोगों का आर्थिक विकास होता ही है और आगे भी होगा। क्या मूल फायदा बाहर वालों को हो और मूल उत्तराखंडी चुग्गे से संतुष्टी पा जाये। कड़ाही के दूध की मलाई वो खायें और कड़ाही या पतीली में किनारे किनारे खोनी को खुरच कर मूल निवासी संतुष्ट हो जाये। बाहर वालों की बाढ़ इस राज्य में कितनी आ गई है इसी से समझ लें कि, इधर नगर निकाय व निगमों के चुनाव में खासकर मैदानी इलाकों में ऐसी मांगें काफी रहीं कि, फलां फलां समाज या बिरादरी को राजनैतिक दल अध्यक्ष आदि के टिकट दें -इनकी इतनी संख्या जीत को सुनिश्चित बनायेगी।
समय आ गया है कि राज्य की डेमोग्राफी जो बाहरी व मूल निवासी उतराखंडी के संदर्भ में बदल रही है चाहे इनवेस्टर्स के नाम पर ही सही, तो बाहर वाले काम कराने वाले व घर वाले रोजगार या ठेकेदारी की लालसा में अपनी सम्पदा खोकर केवल काम करने वाले भर ही रह जायेंगे। आयतित कामगारों की संख्या भी बढ़ रही है, क्योंकि स्थानीय जन को सहत्तर प्रतिशत आरक्षण दिये जाने पर ईमानदारी से तो प्रतिष्ठानों पर दबाव डाला ही नहीं गया है। बाहरी अधिकारियों व ठेकेदारों के माध्यम से क्या डेमोग्राफी कम बदल रही है। विधायक उम्मीदवार या सांसद उम्मीदवार भी जब आयतित हो रहें हों, तो उनके जीतने पर क्या क्या जनसांख्यिकिय बदलाव हो जायेगा यह भी सोच में रहना चाहिये। डेमोग्राफिक चेंज आखिर बसावट पर ही होगा। नतीजन इधर यह भी हुआ कि जिस से पुछो आप क्या कर रहें हैं, तो यही जबाब मिलेगा प्रौपर्टी का काम कर रहें है। काम समझे तो पता चलेगा वह प्रौपर्टी बिकवाने और खरीदवाने के काम में दलाली का खा रहें हैं कमा रहें हैं।
हींग लगे न फिटकरी वाले इस काम में बढ़ती जमात में बड़े बाबू , छोटे बाबू , वकील साहिबान, राजनेता, बाहुबली आदि आदि सब दिख जायेंगे। जमीन स्वाभाविक रूप से मुख्यतया उसी की बिकेगी जिसके पास जमीन होगी। अर्थात प्राथमिक मूल निवासी की। आज यदि कोई मूल निवासी बाहर से लौटकर उत्तराखंड में जमीन खरीद बसना भी चाहे, तो जमीन की कीमत व अनुपलब्धता के कारण भी यह मुश्किल काम हो जाता है। इससे डिमोग्राफिक सन्तुलन फिर से उत्तराखंडियों के पक्ष में आना मुश्किल होगा। इससे पर्वतीय संस्कृति व पहाड़ी राजनीति पर भी खतरे आयेंगे। न भूलें उत्तराखंड की एक अलग स्थापना पहाड़ी राज्य के आधिकारिक स्टेटस के साथ हुई है। एक स्थाई पहाड़ी राजधानी गैरसैण की आपेक्षा इसलिये भी है।
निस्संदेह राज्य में जेहादी डेमोग्राफी बदलाव के खतरे की जो बातें हो रहीं हैं, इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता है। सीमांत जनपदों उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ में क्षोभनीय घटनायें भी हुई हैं। किन्तु इसमें भी बाहरी व मूल के परिपेक्ष हैं। जमीन पर ही नहीं राजनैतिक कारणों से साच और वक्तव्यों में भी डेमोग्राफिक बदलाव परिलक्षित हो रहा है। ऐसी घुटना टेकु स्थितियों में अपने चौबीस साल के जीवन में उत्तराखंड शायद ही रहा हो। आज स्थिति तो ये हो गई है कि कोई भी काम मुख्य मंत्री या मंत्री चाहे अपनी सोच से करें उसके साथ यह कहने कि अनिवार्यता हो गई है कि, प्रधान मंत्री जी के कुशल नेतृत्व व दिशा निर्देशन में हो रहा है। किसी काम में तो यह कहें कि यह काम खुद हम अपनी सोच से कर रहें है। जनता के आदेश व कुशल निर्देशन में कर रहें हैं। यदि इतना कहने की भी राजनैतिक कारणों से स्वतंत्रता नहीं है, तो फिर अपने को जनता के प्रधान सेवक का बढ़ चढ़ उद्घोष क्यों करना। सेवक कुटीर सेवक आवास के बजाये सेवक सदन की पने घर के बाहर की तख्ती लगाना।यही तब तो प्रापौर्टी का काम करने वाले भी खूब फल फूल रहें हैं।
अधोगति की अनेकानेक पराकाष्ठायें एक नहीं कई कई जगहेंं में दिख रही हैं। रोडवेज अडडे पर पुलिस चौकी के पास रेप हो जाती है। ऐसा किसने सोचा था कि जिस राज्य में आन्दोलनकारी महिलाओं की राज्य बनने की पहले सन सहत्तर के दशक से ही राज्य स्थापना संघष के दौरान और अलग राज्य बनने के बाद ही मुख्य मांग शराब बंदी और नशाबंदी की रही हो उस राज्य में आज राज्य की अस्थाई राजधानी में प्रशासन की काफी ऊर्जा जिलाधिकारी समेत इसी पर खर्च हो जाती है कि शराब की ओवर रेटिंग से शराब उपभेक्ताओं का शोषण न हो। शराब के बार समय पर बंद हो जायें। सचिवालय से दूर नहीं एक प्रतिष्ठान के शराब पिलाने में जगह और समय के मनमाने पन से अड़ोस पड़ोस के लोग परेशान थे। यहां भी आज के जिलाधिकारी को सख्ती बरतनी पड़ी तब हालात कुछ काबू में आये। एक नामी बाहरी लोगों के होटल का बार तो चौबीसों धण्टों की अनुमति पाया था। परन्तु ज्यादा ध्यान शराब बारों के कार्यकलापों पर बढ़ती वाहन दुर्घटनाओं और उसमें होती जीवन हानियों के कारण गया। शराब पिये शराब चालकों का पता लगाने के लिये पुलिस रात में भी गश्त लगा रही है।
शराब से मिले राजस्व का यह कटु यथार्थ है कि अस्तित्व में आने के बाद राज्य की आय जितनी गुझा हुई उससे ज्यादा गुणी शराब से मिलनक वाला राजस्व राज्य में बढ़ा है। यहां याद दिला दें कि अप्रैल 2017 में सत्ता में आने के बाद जब एक कार्यक्रम में भाजपा के तबके मुख्यमंत्री व अबके सांसद से एक कार्यक्रम में उनके सामने शराब सस्ता करने का अनुरोध आया था, तो उस समय तो उनका कहना था कि वे शराब के प्रसार के विरोधी हैं और वे ऐसे राजस्व की बढ़त को नहीं चाहते हैं, जो शराब की बिक्री बढ़ा कर हासिल हो। अब तो वे और ही ज्यादा बेहतर स्थिति में हैं क्यों नहीं वह संसद में व्यक्तिगत संकल्प पेश करते हैं कि देवभूमि उत्तराखंड में पूर्ण शराबबंदी लागू हो। वे हरिव्दार से सांसद है हरिव्दार जिले में महानगर समेत अवैद्य शराब का प्रसार क्या उनसे छुपा है।
केदारनाथ की राहों पर चाहे पैदल हो या मोटर मार्ग वहां अवैद्यशराब चलन की पुष्टी तो क्षेत्र के थानों व चौकियों से मालूम चल सकता है। राज्य में नशासेवन व नशा तस्करी बढ़ी। हर दूसरे तीसरे दिन लाखों की अवैद्य नशीली सामग्री जैसे चरस गांजा अफीम डोडा, ड्ग्स,नशे के इंजेक्शन व शराब बाहर से आती या बाहर जाती पकड़ी जाती है। लोक सभा चुनावों के घोषणा होने के पहले अंतरराज्यीय नशे तस्करों से लगभग एक करोड़ रूपये की सामग्री पकड़ी गई। अब तो राज्य के पियक्कडों के पंसदीदा राज्य बनने से हौसला इतना बुलंद है कि सरकार की ओर से वाइन टूरिज्म की भी बात हो गई। वाइन बनाइये इस दलील के साथ कि फल बेकर जा रहें हैं उसका उपयोग करेगे पर उसके माध्यम से टूरिज्म बढ़ाने की लालसा क्यों पाल रहें हैं। आप कहेंगे कि बार में नौकरी मिलेगी। बारों में कितनी मनमानी है ये जान लीजिये यक समय मुख्य मंत्री धामी जी को कहना पड़ा कि बार समय से बंद हो जायें।
नशा रोकने के प्रति जिला स्तरीय कार्यक्रमों के ये हाल हैं कि कुछ दिन पहले ही समीक्षा में मुख्य सचिव ने पाया कि ऐसे कई जिले हैं जहां पूरे साल नशा रोकने से सम्बधित कमेटी की मीटिंग ही नहीं हुई। क्या नहीं मिलेगा आपको आज राज्य में और वो भी अंतरराज्यीय स्तर पर – नकली नोट बनाने वाले, नकली देशी घी बनाने वाले जिनकी सप्लाई चेन देरू के अंत्यंत पूज्य मंदिर के प्रसाद बनाने तक पहुंचे, नकली नामी कम्पनियों की दवाइयां, अवैद्य तमंचे कारखने ए अवेध नशा कारोबार, साइबर ठगी, नकली डिग्री, नकली जमीन दस्तावे का गिरोह, आदि आदि । यही नहीं अंतरराज्यीय स्तर पर यह भी हो रहा है कि बाहर से किसी को लाकर राज्य के होटलों आदि में मार दिया जाता है। या वोकहते हैं कि खुद आत्म हत्या कर लेता है। इसी नवम्बर 2024 को कुमांयूं तराई के एक होटल में यादवपुर वि वि बंगाल का एक प्रोफेसर मृत पाया गया था।
उत्तराखंड स्वयं में चाहे कांग्रेस की रही हो या भाजपा की दिल्ली हाईकमाण्ड से कमाण्ड लेती सरकारें कई बार तो कमजोर दिल्ली परस्त नेतृत्व के कारण अत्यंत घुटना टेकु हो जाती हैं। देखते हुये भी कि उत्तराखंड की पारिस्थितिकीय व सास्कृतिक व सामाजिक – सामुदायिक थातियों की नैसर्गिक प्रकृति व प्रवृतिया उत्तराखंडीयों के हाथ से निकलती जा रहीं हैं, वे उसका प्रतिरोध करने के लिये अपनी सख्ती नहीं दिखा पाती हैं। इसका एक कुप्रभाव तो उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने समाचारों के अनुसार दिल्ली में नवम्बर 2024 को ही बता दिया था. सरकार ने राज्य के अधोगति कि उन हालातों में पहुंचा दिया है कि युवाओं व उनके समर्थन में आये आम जन के निरंतरता के जन आक्रोश ही इनको ठीक हालातों में लाने को मजबूर करेंगे। अन्यथा चुनावों से ऐसा होना आसान नहीं है। चुनावों के नतीजे मुख्यतया भाजपा और कांग्रेस को ही स्वयं में ले आते हैं ।जो अपने अपने तथाकथित हाइकमाण्डों की चेरी है। किन्तु सुखद यह है कि अपने स्थापना के पच्चीसवें वर्ष में प्रवेश करता जन आन्दोलनों से जन्मा उत्तराखंड फिर जन विरोधों की श्रंखला देखने लगा था।
नतीजन पर्वतीय अस्मिता की चाहत वाली जनता ने खासकर युवाओं ने मूल निवास, भू स्वामित्व तथा युवा बेरोजगारी के मुद्दों पर और ज्यादा न सहने का विकल्प रहित संकल्प ले लिया है। ऐसे अस्मिता आकांक्षियों की राह में फिर कोई भी आयेगा उसके अपने शासन प्रशासन के पदों पर रहते हुये चाहे अपने लिये सुरक्षा घेरा तैयार रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। यह मौलिक न्याय से वंचितों का क्रोप होगा। जो दिखा भी। जब राज्य अपने पच्चीसवे वर्ष की तैयारी में था। 6 नवम्बर से 12 नवम्बर तक देहरादून सचिवालय में तो जो हुआ सो हुआ हरिव्दार – ऋषिकेश में भूकानून पर तगड़ी रैलियां हुंईं। साल के जनवरी 2024 शुरू में ही लोगों ने उत्तरकाशी और रूद्रप्रयाग में नदियों में मूल निवास की प्रतियों को बहाकर विरोध जताया था। अभी भी उ प्र की कार्बन कापी बुलडोजर ऐक्शन।
अब भू कानूनोंभूमि की खरीद आदि की जांच जिस प्रयोजन उद्देश्य के लिये खरीदी जिलाधिकारियों को कड़े निर्देश जिस दिन मुख्यमंत्री दिल्ली में उत्तराखंड निवास का लोकार्पण में लगे हैं काम कोईनहीं कर रहा है । वाली मेंलिखित शिकायल की बाबी पंवार व दो अन्य व्यक्तियों नेउनके सरकारी कार्यों में बाधा डालीउनके विश्वकर्मा भवन कार्यालय कक्ष में गाली गलौच की मारने अभद्रता की धमकी दी ।मुख्य सचिव से मिले । पहले क्या विधायकों ने ऐसा नहीं किया । 6 नवम्बर2024 को उत्तराखंड आई ए एस अधिकारी मीनीक्षी सुंदरम और आक्रोशित बॉबी पंवार के बीच जो कुछ हुआ उस आक्रोश का मूर्तरूप जो हर ऐसे उत्तराखंडी में दिख सकता है का हो जो कहना चाह रहा है कि कहीं न कहीं उत्तराखंड को वापस उत्तराखंडियों के हाथ में लाने का अभियान शुरू करना होगा। कहीं पढ़ा कि दूसरा पक्ष कह रहा है कि टेण्डर के लिये दबाव बना रहे थे। सचिव के कमरे में ऐसा हुआ भी नहीं कि कुछ नहीं कहा जा सकता है।
मुख्य मंत्री से कांगस्रे अपाध्यक्ष सूर्यकांत धस्माना के ये सवाल आज आम जन के भी सवाल हैं कि भ्रष्ट अधिकारियों को क्यों संरक्षण दिया जा रहा है। लोकायुक्त की नियुक्ति कब होगी। अनिल यादव को दूसरी बार किस आधार पर सेवा विस्तार दिया गया है वह भी दो साल का। जबकि उन पर आय से अधिक मामले की सम्पति पर हुई जांच पर निर्णय लम्बित है। चूंकि ऊर्जा विभाग मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के पास है इसलिये उन्हे जनता के सामने अनिल यादव की विशिष्ट उपलब्धियों को बताना चाहिए, परन्तु यह तो जग जाहिर है कि पीपीपी मोड में उपक्रम कैसे दिये जाते हैं। या आउट सोर्स में कैसे लोग रखे जाते है। अस्पतालों को या उसकी सेवाओं को पी पी पी मोढ मेंदेने में होने वाला खेला क्या बिना दबाव के या बिना लेन देन के होता है। न जाने कितने उत्तराखंडियों ने पिछले छ सात सालों में अपनी जान जान गंवाई है। अल्मोड़ा जनपद सल्ट तहसील में मार्चुला बस दुर्घटनामें जानें गईं। 36 लोगों की मौत 26 घायल। धस्माना ने ठीक कहा है स्वास्थ्य मंत्री धनसिंह रातत ने घोषणा की कि पी पी पी मोडसे हटेगा रामनगर का सरकारी अस्पताल। अपने हाथ में लेगी। ये केवल घोषणा है कागजी काम में वक्त लगेगी। आधा दर्जन से भी ज्यादा इकाईयां पीपीपी मोड में हैं।
अब मंत्री जी कह रहे हैं कि पीपीपी मोड में संचालित अस्पतालों को लेकर रोज जनता की शिकायतें आ रहीं थीं। तो सवाल अब तक मंत्री जी क्यों चुप बैठे थे। 24 अक्टूबर 2024 सरकारी अस्पतालों का सामान बाजार में बिकने की ख्बर। पतंजलिआयुर्वेद और एम डी आचार्य बालकृष्ण दवाइयां सुप्रीम कोर्ट सार्वजनिक कोरोनिल मामले में माफीनामा औषधि सार्वजनिक माफी उत्तराखंड सरकार को कदम लेने थे। अप्रैल भा्रमक बयान व कुछ दवाइयों का उत्पादन भी बंद करनेको कहा था। एक पूरा कोर्स उन ब्यूरोक्रेटस के लिये होना चाहिये जो राज्य में बाहर से उच्च पद पर आ जाते हैं व उनको न राज्य की संवेदनता मालूम हो ती है न आपेक्षाये। कृपया राज्य हित में बाबू अधिकारियों को सिर पर न चढ़ायें। चाहे नीचे सत्र के बाबू हों वो पंचायत मीटिंगों में नहीं जाते हैं। हर ब्लाक मीटियों में राज्य स्तरीय अधिकारियों के मौजूद न रहने से असंतोष रहता है। मुख्यमंत्री जी उनकी हिम्मत इसलिये बढ़ रही है क्योंकि चाहे वे बिना होमवर्क किये मीटिगों में आयें चाहे पहाड़ों में अपने तैनाती के जगहों कों छोड़ अन्यत्र रहते हैं। और तो और गैरसैण से भी ऐसी शिकायतें रहती हैं।
अधिकारी कैसे काम कर रहें हैं इसका अंदाजा इसी लगा लीजिये कि जब राज्य की वेबसाइटें हैक हुईं तो कुछ वेबसाइटों का रिस्टोरेशन काफी दिनों तक अन्य विभागीय वेबसाइटों की तरह रिस्टोरेशन इसलिये नहीं हो सका क्योंकि उनके विभागों ने उन्हे अपडेट ही नहीं किया था। इसमें कतिपई महत्वपूर्ण विभागों की वेबसाइटें थीं। तो सोच लीजिये जनता इनका खामियाजा किस तरह भुगत रही होगी। स्मरण रहे इसके पहले प्रमुख संस्था रूड़की आई आई टी की वंब साइट हाइक हो गई थी। कुल नतीजा यह भी हो रहा है कि उत्तराखंड की धरती से देश विदेश और प्रदेश की साइबर ठगी को अंजाम दिया जा रहा है। 2 अक्टूबर 2024 को स्टेट डाटा सेंटर में आये मालवेयर के कारण सी एम हेल्प लाइन भी हैक हो गई थी। 6 अक्टूबर को चालू हो सकीं थी।
हलव्दानी शहर के हिंसाग्रस्त बनभूलपुरा में अतिक्रमण से जमीन मुक्त कराने के दौरान बहुत हिंसा हुई थी। दर्जनों की गिरफतारी हुई थी। महिनों तक जेल में रखा भी। किन्तु फिर हाईकोर्ट ने जमानत इसलिये दी क्योंकि महिनों तक साक्ष्यां के साथ उनके खिलाफ चार्जशी नहीं बना पाये थे। यह सरकारी काम करने का तरीका है । प्रशासकीय कार्य कैसे हो रहें हैं ये भी उसकी झलक है।
कहां नही है अधोगति के उदाहरण- केदारनाथ से बिना एस टी पी के सीधे मल सीवर प्रवाह व केदारनाथ हेली सेवा में भ्रष्टाचार , केदारपुरी के पास टेंट में घुसकर स्थानीय महिला से ही अभद्रता का व्यवहर 18 अक्टूबर को सोनप्रयाग थाने में रिपोर्ट भी की गई। घटना 13 अक्टूबर 2024 की थी। रिपोर्ट न लिखाने का दबावथा। रोडवेज स्टैंड पर नाइट बस से आई लड़की से कई का व्यभिचार जबकि पुलिस चौकी नजदीक है। सरकारी अस्पतालों का सामान बाजार में बिकता है। अस्पताल शौचानय में नवजात भ्रूण मिलता है और किसी को पता ही नहीं। एक मंत्री जी की कई गुणा परिवारियों के साथ सम्पदा पर ऐक्शन की अनुमति नहीं, मार्च 2024 से ही मंत्री गणेश जोशी पा तथ्यों से आय से अधिक सम्पति के पत्रकार वार्ता में स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता ने आरोप लगाये थे।
प्रचंड जीत के बाद राज्य मंत्रीमंडल की पहली बैठक में समान नागरिक संहिता कां मंजूरी दी गई थी। 27 मई 2022 को इसके लिये पांच सदस्यीय कमेटी गठित हुई थी। 2 फरवरी 2024 को रिपोर्ट मुख्यमंत्रीको सौंप दी गई थी। कहा गया था कि दो लाख तीस हजार से ज्यादा लोगों ने सुझाव दिये थे। विधान सभा व्दारा पारित होने के बाद इस बिल को राष्ट्रपति व्दारा स्वीकृति मिल चुकी है। अब कानून है। यू सी सी के तकनीकी पक्ष पर अभी विचार जारी। सुप्रीम कोर्ट में भी केन्द्र सरकार व्दारा कहा जा चुका है कि केवल संसद में आ सकता है। समवर्ती सूचि में है किन्तु मान लें हर राज्य यदि अपने अपने ढंग से यू सी सी बनाने लगेगा तो अव्यवस्था आ जायेगी। मुस्लिम , सिख ,इसाई धर्मावलब्बियों के बहुतायत वाले राज्य अपने अपने झाकाव वाले यू सी सी बनाने लगे या अपने यहां के जनजातिय लोगों को भी किसी तरह के छूट न देने के लिये प्रविधान न रखे तो क्या होगा।
इधर मुख्यमंत्री हैं जो अपने यू सी सी के लिये मुख्यमंत्री अन्य राज्यों का भी अपनाने आहवाहन करते हैं। आंख इससे खुल जानी चाहिये कि बालिगों को निर्णय की स्वतंत्रता है। इसी क्रम में नैनीताल हाईकोर्ट ने लीव इन रिलेशनसीप में रहने वाली लड़की को सुरक्षा देने को कहा था। पर्याप्त सुरक्षा देने को उधमसिंह नगर एसएसपी को यह कह कर कि कहा गया कि बालिग स्वतंत्र हैं पार्टी की नजर में चढ़ने के लिये उत्तराखंड को कृप्या प्रयोगशाला बनायें। पूरे देश को युसीसी की जरूरत है तो आप प्रधान मंत्री से क्यों नहीं कहे कि हमसे बनवा कर जो आप टेस्ट करवा रहें हैं जबकि हमारे यहां कोई बड़ी समस्या नहीं है आप क्योंनहीं बनाते हैं आगे भी यही होगा सुप्रीम कोर्ट तक कह चुका है।
29 मई 2024 बिल्डर साहनी की आत्महत्या के बाद सुसाइड नोट के आधार पर सहारनपुर के गुप्ता बंधुओं से एक अजय गुप्ता को गिरफतार किया 6 मई को बिल्डर सतेंद्र साहनी ने पुलिस से सुरक्षा मांगी थी। परन्तु वह परिवार खुले आम अपनी राजनैतिक मित्रता प्रदर्शित कर रहा है। राजनैतिक निपकटता के ही कारण औली में बहुचर्चित शादियां इस परिवार की हुंईं थीं। जो एक तरह से कहें तो हाईकोर्ट की पर्यावरणीय कारणें से निगरानी में हुई थी। दबावों में या अन्य प्रलोभनों से देहरादून में जिन बाहरी लोगों को काम दियावो कितना गदर मचाये हुये थे इसकी परत दर परत तो जिलाघीश बंसल देहरादून में खेल ही रहें । हजारों स्ट्रीट लाइटों के बंद रहने कूडत्रा उठान न होने, स्मार्ट सिटी के खराब कार्यों पर नकेल कस कर। पर क्या देहरादून में रहते मंत्री नहीं देख सकते थे। विशेषकर शहरी विकास मंत्री।
मंत्रियों की बात आई तो अंत में यह महत्वपूर्ण बात कि राज्य में बढ़ती वाहन दुर्घटनाओं के परिपेक्ष में गंभीर सामाजिक अध्ययनशील सामाजिक विश्लेषक अनूप नौटियाल 25 दिसम्बर को भीमताल बस हादसे बाद जिसमें मरने वालोंं की संख्या पांच तक पहुंच गई थी ने मुख्य मंत्री से कहा आपके पास 29 विभाग हैं परिवहन भी उनमें एक है। आप देख नहीं पा रहें हैं यह काम किसी पूर्णकालिक अधिकारी को दे दें। मंत्री मण्डल में जगह भी खाली। बेंच स्ट्रेंथ अच्छी बाहर बैठे वे लोग हैं जो अबके जो मंत्री हैं उनसे कहीं ज्यादा फाइलों को पढ़ने में प्रशासकीय अधिकारियों को अंकुश में रखने में ज्यादा सक्षम हैं। नैनीताल उच्च न्यायालय सदैव उत्तराखंड के शासन प्रशासन को दुरूस्त करने में लगा रहा है। आठ नवंबर को भी उसने वैसे ही किया। इस तारीख पर भी नैनीताल हाईकोर्ट की एक पीठ ने जनपद बागेश्वर केएक गांव के खड़िया खनन से पीडित ग्रमीणों के पक्ष को सुनने के लिये एक अधिवक्ता को अपना न्याय मित्र बनाया। ग्रामीणों ने पीठ को बताया था कि उनकी वेदना को न डी एम सुन रहें हैं न सीएम।
राजनैतिक लाभ लेने के लिये एक नया ट्रेंड हाल में ही उत्तराखंड में जड़ जमा रहा है। वह है कि जिन युवाओं युवकों युवतियों को नौकरी मिल रही है उनको मंत्री या मुख्यमंत्री नियुक्ति पत्र दे रहें हैं। इससे युवाओं का हक मारा जाता है उनको आर्थिक घाटा होने की भी संभावनायें रहती है। इन होनहारों ने अपने बल पर नौकरी हासिल किया है। जिस दि नही वे नौकरी पाने के हकदार हो गये हैं उनको नौकरी ज्वाइन करने दीजिये। उनको वेतन मिलना शुरू हो जायेगा। वो क्यों एक दिन भी किसी मंत्री के लिये अपने पद पर काम करने से वंचित रहें। आप उनको सम्मानित करना चाहते हैं तो उनके ज्वाइनिंग के बाद वो काम कर लीजिये। कौन नहीं जानता है एक ही दिन के ज्वाइनिंग करने वालों में कुछ ही धंटों में वरिष्ठता का अंतर आ जाता है। विश्वविद्यालयों में भी तो यही होता है कि दीक्षान्त समारोह बाद में होते हैं डिग्रियां पा लोग अपने इंटरव्यू आदि देने लगते हैं। इन सवालों का क्या जबाब है कि अनेकों में उस बात का असंतोष है कि उनका चयन हो गया फिर भी उनको नौकरी नहीं मिली आउट सोर्सिंग का एक उदाहरण हरिव्दार से आया है।
नौकरी की बात चली तो आडटसोर्सिंग से नौकरी का एक मामला हरिव्दार से नवम्बर 2024 उजागर हुआ था। एक ग्रामीण क्षेत्र के कार्यालय में जो लैपटौप तक नहीं चला सकते थे उनको कम्प्यूटर औपरेर की नौकरी दे दी गई। उत्तराखंड की लगभग नब्बे साल पुरानी वन पंचायत व्ययस्था को उसके अधिकारों, वित्त और निर्णय लेने की स्वतंत्रता में लगातार कमजोर किये जाने से भी वनाग्नियों से सामुदायिक लड़ाई कमजोर पड़ी है। ज्ञात अज्ञातों पर जंगल जलाने के अपराधों के मुकदमे दायर कर वन विभाग जंगल में आग न लगने देने की अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकता है। जब वन विभाग गांव वालों निजी भूस्वामियों पर अपनी भूमि पर भी आग लगाने पर मुकदमे की बात कर चुका है, तो वन विभाग के अधिकारियों व कर्मचारियों पर तब क्यों न मुकदमा हो जब उनके वन क्षेत्रों से आग निकल कर बस्तियों में आते हैं। जानवर बस्तियों में आते हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पर्वतीय चिन्तक हैं.