November 23, 2024



कृषि उद्यानिकी रोकेगा पलायन

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महावीर सिंह जगवान 


हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड के पर्वतीय जनपदों कृषि उद्यानिकी के बड़े अवसर हैं।


यहाँ की जलवायु और वातावरण औसतन सभी उत्पादों के लिये अनुकूल और गुणकारी है।सरकार और सम्बन्धित विभाग के साथ सम्बन्धित संस्थान इन क्षेत्रों मे भारी धनराशि का ब्यय कर रहे हैं। साथ ही राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय संस्थान इस राज्य मे हैं। राज्य निर्माण के बाद सबसे बड़ी चुनौती निरन्तर बढता पलायन, बंजर होते खेत खलिहान और रमणीक गाँव हैं। यह बड़ी चुनौती है राज्य बनने के बाद राज्य की तैतीस फीसदी से अधिक आबादी मूल गाँवो से पलायन कर चुके हैं। और यह सिलसिला निरन्तर बढ रहा है, उत्तराखण्ड के तीन चौथाई पर्वतीय भू भाग मे स्थितियाँ इतनी विकराल हैं गाँव बंजर हैं और गाँवो से पचास से नब्बे फीसदी लोग पलायन कर चुके हैं। आश्चर्य जिन गाँवों की सेहत और लाडलों के भविष्य की सुरक्षा के लिये यह राज्य बना वही वीरान हो जायेंगे तो राज्य अपना मूल अस्तित्व ही खो लेगा। एक सवाल बार बार माथे पर बल डालता है आखिर देवभूमि के लोगों मे पलायन के लिये इतनी बैचेनी क्यों, वो सवाल कौन से हैं जिनका गाँव मे रहकर समाधान नही हो सकता, इतनी बड़ी सरकारें, अरबो का बजट और बड़े मोटे अफसर के साथ सफेदपोस नेताऔं की भरमार। आखिर गाँव की वीरानी का सवाल क्यों नहीं सुलझाया जा रहा है।


गाँव की जिन्दगी मेहनतकश लोग ही जी सकते हैं जिनके पास श्रम शक्ति और साहस के साथ धैर्य हो। हमे गाँवो को इक्कीसवीं सदी के अनुरूप तैयार करना होगा, इन्हें उत्पादक बनाना होगा, इन्हे नैराश्य से अवसरों की ओर बढाना होगा। आज गाँव मे वह है जो आर्थिकी से कमजोर है, आज का युवा तेजी से आधुनिकता के आकर्षण मे है, वह प्रतिस्पर्धा चाहता है, उसे सामर्थ्य से अधिक मेहनत का मेहनताना चाहिये, वह मेहनत के साथ सुकून की जिन्दगी चाहता है। उसे गाँव मे अवसर और भविष्य नही दिखता। बड़ी बड़ी बातों के बहकावे मे वह नही आना चाहता है। उसे दिखता है गाँव का रामू कुछ साल पहले परदेश गया और अब आर्थिकी सुधरी है तो वह भी रामू से सिफारिश करता है मुझे भी ले चलो। यहाँ के टाॅप बच्चे उच्च पदो पर आसीन हुये, मध्यम ने आजीविका के लिये नजदीक या दूर रोजगार ढूँढा और पढाई मे औसत कम बच्चों ने अपनी मेहनत और हुनर के बलबूते अपने लिये मुकाम हासिल किया। घर के बूढे माँ बाप एक ही बात करते हैं अपने बच्चों का ख्याल रखो अपने साथ ले जाऔं ये पढेंगे तो तुमसे आगे बढेगें।

फिर गाँव एक के बाद एक खाली। फिजी मे भारतीय मूल के मित्र कहते हैं यहाँ भी केवल गाँवो मे बूढे हैं बच्चे पढलिखकर विकसित देशों की ओर जा रहे हैं और धीरे धीरे वहीं के हो जा रहे हैं। गाँव से निकलने के बड़े कारण हैं शिक्षा के साथ मेहनताने के बराबर भी लाभ नही। बड़ा सवाल गुणात्मक शिक्षा के विकल्प और गाँव मे लाभ की सम्भावनाऔं के अवसर। सुदूर गाँवों सरकारी स्कूल तो पहुँचे हैं लेकिन बदलते दौर और आर्थिक सम्मपन्न अभिवाहक सरकारी ढाँचे की उत्पादकता पर भरोसा कम करता है या वह अपने बच्चे की पढाई पर अतिरिक्त ब्यय कर उसे समय के अनुकूल ढालने की पहल कर रहा है या स्कूल मे अध्यापकों की कमी के कारण वह मजबूरी मे पलायन कर रहा है। इसका दोहरा नुकसान हो रहा है गाँव के स्कूलों मे छात्रों की शंख्या घट रही है और कम छात्र शंख्या से जिज्ञासा और प्रतिस्पर्धा मे भी गिरावट आ रही है दूसरी ओर मजबूरी मे छात्रों के भविष्य को लेकर किया गया पलायन अभिवाहक की आर्थिकी को प्रभावित कर रहा है। शुरूआत मे हर गाँव तोक को शिक्षा से जोड़ने की पहल ने शिक्षा का प्रसार तो किया ही साथ ही यहाँ के पढे लिखे युवाऔं को रोजगार का बड़ा अवसर दिया। लेकिन आज गाँवो की घटती आबादी और बन्द पड़ते स्कूलों ने शिक्षा के क्षेत्र मे रोजगार के अवसरों को संकट मे डाल दिया है साथ ही 10 -20के अंक को छूती छात्र शंख्या वाले स्कूलों मे गुणात्मक शिक्षा की।


नर्सरी से तीन की शिक्षा के बाद ब्लाॅक स्तर पर तीन या पाँच हाॅस्टल युक्त विद्यालयो होने चाहिये। यहाँ की शिक्षा जवाहर नवोदय विद्यालय स्तर की हो। निश्चित रूप से शिक्षा के लिये हो रहे बड़े पलायन पर ब्रेक लग सकता है। गाँवो की पारम्परिक खेती पर्यावरणीय और मृदा संरक्षण के लिये लाभकारी है लेकिन आधुनिक युग मे श्रम के पारिश्रमिक निकालने मे असमर्थ है। जरूरत है बदलाव और आधुनिकीकरण करने की। हमें गाँव खेत खलिहान जंगल मे आजीविका के विकल्प बढाने होंगे ताकि मेहनत का मेहनताना सुनिश्चित हो। उत्तराखण्ड के पर्वतीय जनपदों मे सबसे बड़ी चुनौती है छोटे छोटे खेत और सीमित खेती। यहाँ बीस फीसदी लोंगो के पास ही बीस से पचास या सौ नाली भूमि है जबकि पचास फीसदी के पास पाँच से रहने लायक तक ही भूमि। स्पष्ट है कृषि जोत की कमी है। भूमि की विषमता और कृषि उद्यानिकी के प्रसार के लिये यहाँ आज भी भूमि आवंटन और पट्टे पर उद्यान विस्तार की जरूरत है। यदि नीति नियन्ता यह पहल करते हैं तो निसन्देह चकबन्दी जैसी महत्वाकाँक्षी योजना सफल हो सकती है।
एक गाँव मे एक या अधिकतम दो प्रजाति के फलो का ही विस्तार होना चाहिये। जैसे एक गाँव मे पचास या सौ परिवार उद्यान लगाने के इच्छुक हैं तो उन्हें शुरूआत प्रतिपरिवार पाँच या दस पौधों से शुरूआत कर सकते हैं। एक सरल फार्मूला है आपके गाँव मे यदि पुराने बीजू आम के पेड़ हैं तो आपके यहाँ आम की औसतन सभी प्रजातियाँ हो सकती हैं, यदि आपके गाँव मे पुराने माल्टे नीबूँ या दाड़िम के पेड़ है तो इनकी उन्नत प्रजातियाँ यहाँ हो सकती हैं। बाग लगाने से पहले यह सुनिश्चित कर लें पेड़ गुणवत्ता युक्त हो। और आप जितने पेड़ लगाना चाहते हैं उनके लिये पहले से ही खड्डे बने हों। नये प्रयोगो की अपेक्षा स्वयं और नजदीकी बाजार मे माँग वाले फलो का ही वृक्षारोपण करें।

पर्वतीय जनपदों मे मैदानी समय की अपेक्षा उत्पाद देर मे तैयार होते हैं या उनसे अलग समय पर इसका फायदा पर्वतीय किसान को मिल सकता है। एक प्रजाति के फलदार पेड़ लगाने से उसकी हेरदेख अच्छी होती है साथ ही बीमारियों से बचाव सम्बन्धित जानकारी बढती है और सामुहिक उत्पादन होने पर बड़ी क्वान्टिटी के कारण उत्पाद के बाजार पहुँचने की सम्भावनायें बढती हैं। जैसे सौ परिवारों के गाँव मे प्रति परिवार पाँच पेड़ कागजी निम्बू लगाने पर कुछ वर्षों बाद प्रति पेड़ दस किलो उत्पादन निकलने पर पूरे गाँव मे पचास कुन्तल निम्बू का उत्पादन हो जायेगा इसके लाभ के आधार पर इसे प्रतिवर्ष बढाकर इसे पाँच सौ कुन्तल तक बढाया जा सकता है निश्चित रूप से यह आजीविका का विकल्प बन सकता है। हम इन बगीचों मे सब्जी उत्पादन के साथ जड़ी बूटी की खेती कर सकते हैं। हम नर्सरी के क्षेत्र मे गाँवो को समृद्ध बना सकते हैं। हमे मोटे अनाज की तुलना मे नये प्रयोग करने होंगे। कुछ किसान बहुत मेहनत कर खेतों को आर्थिकी से जोड़ चुके हैं उन्हें अधिक सपोर्ट की जरूरत है ताकि वो अधिक समृद्ध और सुरक्षित बने उनके अभिनव प्रयोगों का प्रसार करना होगा। कल ही एक बहिन गाँव से छोटे कस्बे मे दस किलो घीं बेचने आई थी पूछने पर पता चला तीन भैंस पाल रखी हैं, खेती के बारे मे पूछा तो कहा स्वयं के लिये तो पूरा अनाज हो जाता है। अकेले दम पर इतनी मेहनत दूर परदेश मे पति नौकरी के लिये गये हैं दोनो मिलकर परिवार को शसक्तीकरण पर लगे हैं। यदि इस बहिन को नई नस्ल की गायें मुहय्या की जायें चारा प्रबन्धन का तरीका सलीका सिखिया जाय तो श्वेत क्रान्ति नये अवसरों के द्वार खोल सकती है जो गाँव मे अधिक मेहनत कर रहे हैं उन्ही के सहयोग से बदलाव लाया जा सकता है। पर्वतीय जनपदों मे पाॅल्ट्री उद्योग तेजी से बढा लेकिन सुसुप्त अवस्था मे चले गया कारण चारा महँगा है, चूजे के भाव आसमाँ छू रहे हैं, सर्दियों मे टैम्प्रेचर मैन्टेन के लिये लकड़ी नहीं है। सरकार बड़ी बड़ी सब्सिडियाँ खर्च कर रही है इन उद्यमियों को सहयोग की जरूरत है ताकि बाजारी प्रतिस्पर्धा मे यह अपनी जगह बना पायें।




आजकल पर्वतीय जनपदों मे छोटे छोटे बाजारों मे तीन पहाड़ी उत्पादों की धूम है पहला माल्टा, दूसरा सोयाबीन और तीसरा चौलाई। माल्टे के लिये सरकार ने भले ही समर्थन मूल्य की घोषणा की हो लेकिन बाजार मे किन्नू ने बहुत पीछे धकेल दिया है। माल्टे का कोई बाजार भाव नही किसान दो तीन सौ रूपये क्विंटल बेच रहे हैं। निरन्तर आकर्षण घट रहा है। किसान नई पौध नहीं लगायेगा यदि उसे फायदा नजर नहीं आयेगा। जरूरत है स्थानीय लोग अधिक से अधिक फ्रैस फ्रुट के रूप मे माल्टा खरीदें निकट प्रसंस्करण केन्द्रों पर जाकर जूस या स्क्वैस बनायें और अपने नाते रिश्तेदारों को गिफ्ट करें गर्मियों मे स्वयं सेवन करें ताकि माल्टा किसानों के चेहरे पर रौनक रहे। युवा माल्टे के प्रसंस्करण मे भी रोजगार प्राप्त कर सकते हैं इसका बाजार करोड़ों मे है और अधिक बढ सकता है। बाजार मे सोयाबीन बीस बाइस और चौलाई तीस बत्तीस का भाव है। स्थानीय स्तर पर पशुऔं और पाॅल्ट्री फार्म के चारे के उत्पादन की सम्भावनायें हैं। गाँव आर्थिकी से जुड़ेगे तो गाँवों से गाँव वासियों का लगाव बढेगा। हिमालयी राज्य के गाँवो को प्रकृति ने सम्पूर्ण आकर्षणता से नवाजा है, यहाँ कृषि उद्यानिकी पर्यटन तीर्थाटन योग और ध्यान केन्द्रो के साथ साहसिक खेल ट्रेकिंग, बर्ल्ड वाँचिग, लोक कला पर आधारित स्थानीय ग्रुप और लोक पकवानों की श्रृँखला पर्वतीय जनपदों के गाँवों को समृद्ध बना सकती है। जरूरत है ईमानदारी से शुरूआत की, पुरूषार्थ की, निवेश की, सहभागिता की।