November 21, 2024



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अरुण कुकसाल


जीवन की कशमकश को बंया करती कवितायें-‘गूंगी चीख’


युवा कवियत्री दीपिका वर्मा का कविता संग्रह ‘गूंगी चीख’ पढ़ने का संयोग मिला। दीपिका का यह पहला कविता संग्रह है। ‘समय साक्ष्य’, देहरादून से यह प्रकाशित हुआ है। नयी पीढ़ी के लिख्वारों में शामिल दीपिका वर्मा की एक विशिष्ट पहचान है। विशिष्ट इस मायने में कि दीपिका का लेखन समाज की विसंगतियों और विषमताओं के प्रतिरोध में मजबूती से मुखर हुआ है। युवा मन की स्वाभाविक रुमानियत को छोड़कर जीवन के यर्थाथ संघर्षों को दीपिका की कवितायें अभिव्यक्त करती हैं। इस रूप में उसकी कवितायें बार-बार सामाजिक कुचक्रों को सीधे चुनौती देती है। सामाजिक सरोकारों के प्रति बेहद संवेदनशील दीपिका का संपूर्ण लेखन आम-जन के परिवेश और पीड़ा को जुबान देता नजर आता है।


दीपिका वर्मा वर्तमान में हेमवती नन्दन बहुगुणा केन्द्रीय गढ़वाल विश्वविद्यालय से वाणिज्य विषय में पीएचडी. कर रही हैं। साथ ही विश्वविद्यालय के पौड़ी परिसर में वाणिज्य विभाग में अध्यापन से वे जुड़ी हैं। बचपन से ही स्कूली किताबों से इतर सामाजिक कार्यों एवं साहित्यिक अध्ययन की अभिरूचि ने उन्हें कविता लेखन की ओर प्रेरित किया। सामाजिक जीवन को जैसे देखा और समझा वही अहसास दीपिका की कविताओं के अंर्तमन में आ गये हैं। ‘गूंगी चीख’ कविता संग्रह मेेें दीपिका की ऐसी ही 53 कुलबुलाती कवितायें शामिल हैं।

‘गूंगी चीख’ की कवितायें मानवीय जीवन की बिडम्बनाओं और विषमताओं के मर्म को छूती है। साहित्यिक आडम्बर से मुक्त ये कवितायें बिना लाग-लपेट के सीधे-सीधे अपनी बात कह जाती हैं। युवा दीपिका की कविताओं में रूढिवादी सोच को ढोने का सब्र टूट कर व्यग्रता केे रूप में परिलक्षित होता है। इसलिए उसकी कुछ कवितायें आज की व्यवस्था पर सीधा धावा बोलते हुए तुरन्त बदलाव चाहती हैं। ‘भेद बनाये जिसने जग में, जाति बनाई किसने, हो सके सामने लाओ, ये ब्यूह रचाया जिसने’(जातिवाद)/ ‘वक्त वो भी आयेगा, जब सच नहीं घबरायेगा’ (सवेरा)। ‘गूंगी चीख’ में दीपिका की कवितायें आज के दौर में तकनीकी के साथ भागते जीवन की कशमकश को बखूबी बंया करती नजर आती हैं। ‘कुछ न बचा दुनिया में, बस रफ्तार रह गयी’ (रफ्तार)/ ‘दौड़ रहा है आदमी, जो भी करता है बस पाने के लिए करता है ’(मौसम)/ ‘ज्ञान हैं लेते, और ज्ञानी बन कर जाते हैं, शान मगर फिर किसी और का बन जाते हैं’ (प्रवास)/ ‘एक कहे अनुभव की, एक कहे तकनीकी नई’ (पीढ़ी)/ ‘छिल गये तलुवे हो गये लाल, बची कहां पैरों में खाल’ (बेरोजगारी)/ ‘मैरिट और अंकों में सारा जहान समाया है’(बस्ते का बोझ) ‘लोग कहते हैं दोस्त, पर मेरा ही हिस्सा है तू’ (दोस्ती)/ ‘पहले मां थी अब वह एक बूढ़ी है’ (बूढ़ी मां)/ ‘बिन मां के आंचल के, ये बच्चा नहीं सोता’ (अनाथ)/ ‘अब लगाव एक दूजे से हटने लगा है, धीरे-धीरे परिवार, टुकड़ों में बंटने लगा है’ (परिवार)/ ‘आज भी हैं बेटियां कोख में मरती हुई, आज भी हैं बेटियां आग में जलती हुई’ (गुलामी)/ ‘सुना कभी है तुमने किसी को चुपचाप चिल्लाते हुए’ (गूंगी चीख)। दीपिका की कवितायें मानवीय जीवन के बंधे-बंधाए घेरों को तोड कर बाहर आना चाहती है। तभी तो वो आशावान भाव के साथ कहती हैं- ‘आशा है कि आशा की, आशा आप नहीं तोडेंगे’(आशा)।


हिन्दी साहित्य जगत में उर्जावान नवोदित दीपिका वर्मा एक संभावनाशील कवियत्री हैं। अनुभव एवं अध्ययन के साथ उनकी कवितायों में और निखार आयेगा। पुनः दीपिका को बेहतरीन कविता संग्रह ‘गूंगी चीख’ के प्रकाशन के लिए बधाई, शुभकामना और शुभ-आशीष।

अरुण कुकसाल
arunkuksal@gmail.com