उत्तराखंड में भू – पर्यटन -2
डॉ. एम. पी. एस. बिष्ट
पास, दर्रा, धुरा या ला – मित्रों मेरी “पर्यटन में भू – विज्ञान” की इस श्रृंखला में, मैं आज एक ऐसी भू आकृति पर चर्चा कर रहा हूँ, जो कि प्रदेश में न केवल साहसिक पर्यटन को बढ़ावा देगा बल्कि दो देशों में बढ़ती कटुता को भी कम करेगा। और साथ में प्रदेश की आर्थिकी को भी बढ़ावा देगा। आज का विषय Pass/दर्रा/धुरा/La को हम भू विज्ञान की भाषा में उस स्थान के लिए प्रयोग करते हैँ, जहाँ से एक जलागम क्षेत्र से दूसरे में जाने का सरळतम मार्ग हो। निम्न हिमालयी क्षेत्र में हम सामान्य भाषा में इन्हें खाल या saddle भी कहते हैँ। परन्तु उच्च हिमालयी क्षेत्रों में इनको पास या दर्रा कहा जाता है। भारत की तिब्बत से लगी अंतराष्ट्रीय सीमा पर ऐसे बहुत से दर्रे हैँ जो कि पर्यटन की दृष्टिकोण से बहुत ही महत्वपूर्ण हैँ, जिनमें सिक्किम में नाथूला पास, उत्तराखंड में नीती पास, माना पास, गुंजी पास, रिमखिम पास, कुरकुती पास, इत्यादि। कहने को तो यह एक सामान्य सी भू आकृति है, परन्तु प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक दृश्टिकोण से अगर देखा जाय तो यह उतना ही महत्वपूर्ण स्थान भी है। जहाँ ये दो विपरीत दिशा में बहने वाली नदियों के उदगम स्थलों को दिशागत करते हैँ, तो वहीं मानव समाज की दो भिन्न संस्कृतियों के मेल मिलाप का मार्ग भी प्रसस्थ करते हैँ।
और तो और दो अलग-अलग घाटियों में बहने वाली तीब्र हवाओं के बहने के लिए सुगमता से मार्ग भी प्रदान करते हैँ। मित्रों इन दर्रो के माध्यम से कभी हमारे और तिब्बत के बीच ब्यापार हुआ करता था। तो आज क्यों न इन्हीं दर्रो का प्रयोग कर हम अपने प्रदेश में साहसिक पर्यटन के रूप में उपयोग कर एक नया आयाम भी तैयार कर सकते हैँ। जैसे हिमाचल में खरदूंगला पास, और सिक्किम में नाथूला पास को देखने के लिए पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है। तो क्यों न हम भी उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागढ़ जिले के इन ऊँचाई वाले दर्रो को पर्यटन के लिए खोल सकते हैँ। दोस्तों मै यह बात क्यों कह रहा हूँ, क्यूंकि आजकल मैं बद्रीनाथ में विशेष सर्वे कार्य के लिए गया हूँ और इसी उपरांत आज मुझे एक सुनहरा मौका मिला माना पास जाने का, मेरे कॉलेज के सहपाठी भा. ति. सी. पु. में तैनात सेना नायक अरुण सिंह रौथाण और उनके सहयोगी उप सेना नायक और हमसे एक क्लास छोटे भाई डी सी कुनियाल जी का, जोकि आजकल 23 बटालियन में तैनात हैँ। ऐसे में जब मेरे पास एक सुनहरा समय भी था और मौसम भी लाजवाब तो सोचा क्यों न अपनी बहुत पुरानी मन में दबी इच्छा को पूर्ण कर लिया जाय। और मित्रों निकल पड़ा अपनी धर्मपत्नी नीलम बिष्ट और छोटे पुत्र कार्तिकेय के साथ देवताल, परी ताल, राक्षस ताल, इंद्रासन, रताकोना, घस्तोली और इस सबसे ऊपर भारत – तिब्बत सीमा रेखा “माना पास” को छूने के लिए ।
माणा पास – समुद्र तल से 6130 मीटर ऊँचाई पर भारत – तिब्बत सीमा में स्थित है। यकीन मानिये माना पास तो एक माध्यम था, परन्तु मार्ग में प्रकृति का जो अद्भुत नजारा देखा उसे चंद शब्दों में बयां नहीं कर सकता। शायद हम लाखों रुपए खर्च करके भी इस परमआनन्द की अनुभूति को प्राप्त नहीं कर सकते। सुन्दर भू आकृति जिसमें गगन चुम्भी पर्वत श्रृंखलायें, हिमनदों के विभिन्न रूप, बड़े बड़े हिम तलाव, चट्टानों की विभिन्न संरचनाएँ, किसी स्वर्ग से कम का एहशास नहीं दिला रही थीं। यहाँ की विशुद्ध ठंडी हवा और पवित्र जल धाराएं , जल प्रपात, ताल और बुज्ञालों में विचरण करते थार और भरल जैसे वन्य प्राणियों के झुण्ड, सचमुच मन मोहक नज़ारा था। शायद एक अच्छे पर्यटक के लिये इससे सुन्दर आकर्षण कुछ और हो नहीं सकता।
दोस्तों में काफ़ी समय पहले यानी 2002 से लेकर 2012 तक नंदा देवी बायोस्फेयर रिज़र्व में कार्य करता रहा हूँ और उस दौरान मैंने पाया कि अपने उत्तराखंड के अंदर सरस्वती नदी का जलागम क्षेत्र एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहाँ सबसे अधिक छोटे बड़े 28-29 बहुत सुन्दर तालाव हैँ। जो कि पूर्व में हिमनदों से निर्मित हैँ। मुझे मन में आया कि क्यों न इन तालों का विस्तृत सर्वे कर इस कार्य को आगे बढ़ाऊं। परन्तु इस बीच स्वास्थ्य खराब होने के कारण DST से मिला प्रोजेक्ट बंद करना पड़ा। कोई भी ताल ऐसा नहीं था कि जिसमें सुगमता से जाया जा सकता था। सबसे नीचे घस्तोली के पास चंद्रा ताल और सबसे ऊपर माना पास के नजदीक परी ताल, देवताल, राक्षस ताल को देखने का सपना हमेशा दिल में बना रहा। कई बार पूर्व विधायक श्री मोहन सिंह गाँव वासी जी के साथ जाने का प्लान भी बना परन्तु कभी पूरा न हो सका। भगवान बद्रीविशाल की कृपा से आज वह अवसर प्राप्त हुआ।
मित्रों मेरा मानना है कि, जैसे शायद केंद्र सरकार का उद्देश्य भी है कि अपनी अंतराष्ट्रीय सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए इस प्रकार की गतिविधियों को बढ़ावा देना चाहिए। जिससे वहाँ आवाजाही बढ़ी रहेगी। मुझे पता है कि नाथूला मे तो पुराने सिल्क रुट पर नियमित अंतरष्ट्रीय ट्रेड आज भी चलता रहता है। तो कम से कम हम भी इन सुन्दर वादियों में नियमित पर्यटन को बढ़ावा दे सकते हैँ। अन्यथा वीरान पड़े इस क्षेत्र में कभी चीन के सैनिक हमारे भू भाग को कब्ज़ाने पर लगे है या कब्ज़ाने की धमकी देते रहते हैँ। और फ़िर हमारे सैनिक उनसे दो चार होते रहते हैँ।जिससे एक अशांति का माहौल बना रहता है।
लेख़क भू – विज्ञान के प्राध्यापक हैं.