उत्तराखंड में भू -पर्यटन
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डॉ. एम. पी. एस. बिष्ट
दोस्तों अपने ” पर्यटन में भू – विज्ञान ” के महत्व की श्रृंखला में आज मैं आपको इस विज्ञान का धार्मिक पर्यटन यानी तीर्थाटन में कितना बड़ा योगदान हो सकता है, उसे कुछ अपने चंद रोज पहले लिए गए छायाचित्रों के माध्यम से समझाने कि कोशिश करूँगा। कहावत है न “मानू तो गंगा माँ हूँ, ना मानू तो बहता पानी” और “पूजो तो शिव नहीं तो पत्थर”. दोस्तों इन्हीं दो वाक्यों में तीर्थाटन का मूल मन्त्र छुपा है। और यही हमारी सनातनी परंपरा का आधार भी है। हम अपने ईष्टकुल देवता को किसी न किसी रूप में देखते हैँ। और फिर उसको साकार मान कर एक धारणा बना लेते हैँ। चट्टानों पर प्रकृति के द्वारा निर्मित आकार या फ़िर उसी कल्पना के तहत मनुष्य द्वारा ऊकेरी गयी विभिन्न मूर्तियों को हम पूजने लगते हैँ। और फ़िर उस शिला या मूर्ति को सार्बजनिक तौर पर विशेष स्थान पर स्थापित कर मेला या तीर्थ का रूप दे देते हैँ। शायद आदिगुरु शांकराचार्य ने मनुष्य को एक सूत्र में बाँधने के लिए इस विधा का प्रयोग किया और कालांतर में वही तीर्थाटन का प्रयाय बन गया। परन्तु कुछ भी हो एक आकर्षण तो है इनमें, जो हज़ारों लाखों लोगों को अपनी ओर खींचती है। और यही पर्यटन का मूल सिद्धांत भी है। – To attract the people.. और आर्थिकी तो अपने आप बढ़ती चली जाती है।
मित्रों मेरा अपना मानना है कि अपने उत्तराखंड में ऐसे लाखों शिलाएं हैँ जो अपने आप में केदारनाथ हैँ। यहाँ मैं आपको बताता चलूँ कि केदार का मतलव भी संस्कृत में दलदल है। जो कि दो हिमनदों के मुहाने पर बने दलदल (Outwash plain) मे एकांत शिवलिंग (erratic boulder) का प्रतिरुप है। नीचे दिए गए कुछ अपने चुनिंदा छायाचित्रों में आपके अवलोकानार्थ प्रस्तुत हैँ। परन्तु साथ में उद्देश्य ये भी है कि हमारे प्रदेश के नीति नियंता / पर्यटन अधिकारी / नेता गण आदि आदि कृपया अपनी आँखे खोलें और चारधाम के अतिरिक्त इन स्थानों को भी अपनी आर्थिकी का आधार बनायें। अपने प्रदेश में पर्यटन चाहे धार्मिक हो या प्राकृतिक उसकी असीम संभावना है। जरुरत है उन्हें चिन्हित कर विकसित करने की.
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1: भीमपुल – सरस्वती नदी जो कि अलकनंदा नदी में माना गाँव, केशव प्रयाग में मिलती है, के ऊपर एक विशाल शिला है। कहते हैँ पांडव जब अंतिम समय में स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर रहे थे तो माता सरस्वती ने द्रोपदी को अपने ऊपर से न गुजरने तथा अपमानित किया था। तब बदले में महाबली भीम ने सरस्वती को अपने बल से इस विशाल पत्थर से बांध दिया था। दूसरी किमदन्ति यह है कि जब भगवान वेदव्यास श्री गणेश जी के माध्यम से वेदों की रचना करवा रहे थे तो सरस्वती के कोलाहल से ब्यवधान उत्पन्न हो रहा था, जिस कारण ब्यास जी के आदेश से भीमसेन ने सरस्वती को बाँधा था। परन्तु कहानी जो भी हो सरस्वती का ये प्राकृतिक पुल अपने आप में पर्यटक को बहुत लुभाता है। और मेरे देकते ही देखते अब यहाँ लाखों की भीड़ उमड़ रही है। माना गाँव की आर्थिक समृद्धि में इस एक चट्टान की कितनी बड़ी भूमिका है कि हर परिवार सालभर में लाखों की इनकम कर रहा है। यात्रा सीजन में दिनभर इस चट्टान देखने वालों का ताँता लगा रहता है इसके वैज्ञानिक पहलू पर फ़िर कभी विस्तार से चर्चा करूँगा.
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2: नाग – नागिन का जोड़ा : बहुत हीं सुन्दर आकृति ग्रेनाइट की शिला पर। दो शर्प के आकार की छाप जैसे नाग और नगिन अपने रति क्रीड़ा के समय एक दूसरे से लिपटे रहते हैँ, हू बहू वही छवि यहाँ बद्रीनाथ जी से मतमूर्ति जाते वक्त रास्ते में डेढ़ दो किलोमीटर की दूरी पर अलकनंदा के बाएँ छोर पर गजकोटी गाँव के नीचे स्थित है।
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3: वाशुकी नाग – ठीक गजकोटी (बद्रीनाथ) से पहले मुझे ये शिला पहली बार दिखाई दी विल्कुल किसी अजगर या बड़े सांप के आकार की। क्यों कि यह क्षेत्र भगवान विष्णु से सम्बंधित है तो मैंने इसे वाशुकी नाग का नाम दिया है। और दोस्तों यही मान्यता हमारे पर्यटन का आधार भी है। हैँ न सुंदर आकृति.
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4: शेषनेत्र – बद्रीनाथ में ज्यादातर यात्रिगण मैंने देखा की चार किलोमीटर लम्बी कतार में खड़े होकर बड़ी मुश्किल से तीन सेकेण्ड के लिए भगवान के दर्शन कर पाते हैँ। इस वर्ष तो शायद वो तीन सेकंड भी प्राप्त नहीं हुए होंगे जिस हिसाब से यात्रियों की भीड़ थी। दूसरा बद्रीपुरी में चल रहे निर्माण कार्यों से सब अस्त ब्यस्त हो रखा है। ऐसे में श्रद्धालू पहले जब मिलता था तो क्षेत्र में विचरण करते थे। इनमे शेषनेत्र शिला और उससे जुड़े दो सुन्दर नयनाकर प्राकृतिक झील के पास बैठ कर इन प्राकृतिक संरचनाओं का आनंद लेते थे। मुझे अफसोष हुआ ये देख कर कि ये प्राकृतिक धरोहर कहीं धूल में समाहित हैँ। झील का निर्माण तो हो रहा है परन्तु बनने के बाद ये अपने मूल स्वरुप को छोड़ चुकी होंगी, भव्यता हो सकती है परन्तु दिव्यता नहीं। मुझे 100% यकीन है कि इस वर्ष आये 18 लाख यात्रियों को ये पता भी होगा कि यहाँ ये भी कोयी दिव्य स्थान हैँ। न हीं पंडा व अन्य प्रशासन का इन स्थानों को दिखाने का कोई प्रयास रहा होगा।
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5: केदारनाथ – भारत के बारह ज्योतिर्लिंगो में एक भगवान केदारनाथ जी के इस रूप से तो सभी परचित हैँ। परन्तु इसके भू बैज्ञानिक महत्व से कम हीं लोग भिज्ञ होंगे। मैं पहले डरता था इस बात को कहने के लिए कि यह भी एक प्राकृतिक प्रक्रिया के तहत स्थापित शिला जिसके महत्व को आदिगुरु शांकराचार्य जी ने हमें समझाया। और उसी का प्रतिफल है कि यह शिला एक पवित्र स्थान के रूप में करोड़ों हिन्दू सनातनी परम्परा का एक प्रतीक बन चुका है। दोस्तों आज इस तीर्थाटन से हमारे प्रदेश की कितनी बड़ी आर्थिकी जुड़ी हुयी है आप लोग अच्छी तरह समझते हो। परन्तु आवश्यकता है इस प्रकार के स्थानों को चिन्हित कर उनके संरक्षण एवं विकास की।
लेख़क भू-विज्ञान के प्राध्यापक हैं.