मिट्टी को कौन बचायेगा
महावीर सिंह जगवाण
हमारा गाँव खेत खलिहान मंदाकिनी के पावन छोर पर है.
शीत ऋतु मे भले ही पावन मंदाकिनी की जलधारा स्वच्छ निर्मल और संकरी हो जाती है लेकिन वर्षा ऋतु मे तीन चौथाई मिट्टी को लेकर विकाराल भयावह रूप लेकर गर्जना के संग वर्तमान स्वरूप के सौ गुना अधिक जलाकार लेकर बहती है।बार बार मन मे एक प्रश्न आता है आखिर इतनी मिट्टी आती कहाँ से है और यह सिलसिला अनवरत रहा तो यह पावन हिमालयी छोर मिट्टी विहीन हो जायेगा और मिट्टी के अभाव मे सम्पन्न जैव विवधता को भारी संकट खड़ा हो जायेगा। पहले यह जानने की कोशिष करते हैं जो करोड़ों टन मिट्टी गाद के रूप मे बहती है उसका श्रोत क्या है। उच्च हिमालय मे छोटे छोटे भूकम्प और भीषण वर्षा ने बुग्यालों और घाटियों मे भू स्खलन बढाया है इस जल प्रलय सदृश हर वर्ष की भीषण बाढ मे चालीस फीसदी मिट्टी यहीं से बह रही है, दूसरा बड़ा श्रोत मंदाकिनी मे विलय होती छोटी छोटी नदियाँ और गाड गदेरे यहाँ भी भू स्खलन, विकास से निर्मित भूस्खलन और बंजर होते खेत और चरागाह जो निरन्तर भीषण वर्षा मे दरकते हैं इनका प्रभाव भी चालीस फीसदी के आसपास है जबकि बीस फीसदी वही दशकों पुराने घाव हैं जिनसे हर बरसात मे मिट्टी वन बहती टूटती रहती है।
पर्वतीय क्षेत्रों मे हर वर्ष की बाढ मे खरबो टन मिट्टी लकड़ी वन और वन उपज बहती हैं। इसका सिलसिला भले ही युगों पुराना हो लेकिन आज भी हम मूक दर्शक बनकर प्रकृति की इस अनवरत प्रक्रिया को घटित होते देखते हैं। क्या हम सबको यह देखते रहना चाहिये या इस ओर भी कदम बढाने चाहिये वर्तमान विकास की योजनाऔं मे यह कैसे सुनिश्चित हो हम मृदा का संरक्षण कर सकें, विकास कार्यों के डंपिंग जोन को हम मृदा बैंक के रूप मे कैसे संरक्षित करें ताकि जरूरत पड़ने पर हम मृदा आपूर्ति कर सकें। वह कौन से ठीक होने रूकने लायक भूस्खलन हैं जिनका प्रकृति सम्मत ट्रीटमेन्ट कर बढते घावों को रोक सकें, किसी भी क्षेत्र मे वर्षा जल का हम कैसे प्रबन्धन और निकासी करें जिससे भू क्षरण न हो।
हिमालय और हिमालय के लोंगो के पास सबसे बड़ी पूँजी हिमालय की मिट्टी है, इसी सम्मपन्न मृदा शक्ति के कारण यहाँ की जैवविवधता अधिक सम्मपन्न और उत्पादक है। उच्च हिमालय से लेकर नदी घाटियों और सघन वनो के साथ खेत खलिहानो मे निरन्तर मृदा की गहराई घट रही है यानि साॅयल लेवल कम हो रहा है, मृदा लेवल घटने से वनस्पतियों की अधिशंख्य प्रजातियाँ संकट मे हैं, पारिस्थिकी तंत्र तक यह घटनाक्रम प्रभावित कर रहा है। जल अवशोषक क्षमता घटी है, कृषि भूमि की उत्पादकता मे कमी आयी है। बहते जल की अवशोषण क्षमता के ह्रास ने छोटे छोटे बहाव और कटाव को जन्म दिया है। मृदा से सम्मपन्न बुग्याल, सम्मपन्न वन, कृषि भूमि, चारागाह इस संकट से जूझ रहे हैं। जितना मै समझ पा रहा हूँ लगता है हिमालय से जुड़े भू क्षेत्र जमीन की महत्वपूर्ण उपजाऊ गुणात्मक ऊपरी सतह को पचास से साठ फीसदी क्षति पहुँच चुकी है।
अभी कुछ दिन पहले पौड़ी जनपद मुख्यालय के आस पास के क्षेत्रों मे जाने का अवसर मिला मुझे अति प्रसन्नता हुई पौड़ी जनपद मे औसतन मृदा स्तर बहुत ऊँचा है अपेक्षा रूद्रप्रयाग चमोली। मृदा स्तर का ऊँचा होना स्पष्ट करता है बहाव और कटाव का प्रतिशत भी कम है। लेकिन आश्चर्य इस बात का है औसतन सभी पर्वतीय जनपद उत्तराखण्ड के इस संकट से जूझ रहे हैं, ऊपरी सतह की मृदा गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है। जिन जिन क्षेत्रों मे सघन वन हैं वहाँ ऊपरी सतह सुरक्षित और उत्पादक है। देश के दो बड़े सम्मानित कृषि वैज्ञानिकों डाॅ0 वीरेन्द्र सिंह और डाॅ0 पी डी शर्मा से मेरा एक सवाल था उत्तराखण्ड के पर्वतीय जनपदों मे उच्च बुग्यालों से लेकर जंगल खेत खलिहानो मे धरती की ऊपरी सतह का गुणात्मक ह्रासऔर भू क्षरित हो रही है जिसके कारण वनस्पतियों की प्रजातियों पैदावार और उत्पादन पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है।
जो निष्कर्ष संवाद से आया है उससे स्पष्ट होता है जमीन की ऊपरी सतह अधिक संवेदनशील और गुणकारी होती है अपेक्षाकृत आन्तरिक सतहो के। निश्चित रूप से पर्वतीय जनपदो मे कृषि उद्यानिकी वानिकी और पारम्परिक बारहनाजा फसलों की बुआई के आदर्श रूप मे जमीनी प्रयोग से ऊपरी सतह की गुणकारी मिट्टी को बचाया जा सकता है। निश्चित रूप से हमे अपनी जन्मभूमि को सँवारने हेतु अभिनव शुरूआत करनी होगी। यदि आप चाहते हैं मेरे बंजर खेत की मिट्टी उपजाऊ रहे, छोटे छोटे भूक्षरण से समाप्त होने से बचे और इससे मुझे भी लाभ हो, यदि आप समय समय पर फसलों की बुआई कर सकते हैं तो अलग अलग फसलों की बुआई से आप ऊपरी सतह की मिट्टी की गुणवत्ता बढा सकते हैं और यदि आप दूर है तो सघन वृक्षारोपण कर सकते हैं इसमे आपके पास दो विकल्प हैं आप उद्यान की ओर बढ सकते हैं या ईमारती लकड़ी की खेती की ओर। जब आपके खेतों मे छाँव होगी और निरन्तर पतझड़ से पत्ते गिरते रहेगें तो भू क्षरण से बचाव और मृदा की ऊपरी सतह की सेहत भी सुधरेगी।
बड़ा सवाल अधिशंख्य साथी कहते हैं यह कैसे संभव है। यह अति सरल विधि है जो सपना आप अपने खेतों के लिये बुन रहे हैं उस सपने को आप सामुदायिक रूप दो यानि पूरे गाँव के लिये बुनो। यह हो सकता है दस फीसदी लोग ही आपका साथ दें तो जो आपका विजन है उन्ही के साथ शुरू करिये। प्रकृति का एक नियम है वह यूरोप अमेरिका से लेकर अफ्रीका एशिया और हमारे गाँव तक एक ही ढंग से लागू होता है, यदि आप नया प्रयोग करते हैं तो अधिकतर वो लोग जिन्हे आपका साहस बढाना चाहिये या आप जैसा काम करके या करने की कोशिष से मोराल सपोर्ट देने के बजाय इस प्रतीक्षा मे रहते हैं कब इसका सपना चकनाचूर हो वही सबसे जल्दी बदलते हैं और वैसा ही करने लगते हैं जो आप साबित कर चुके हैं।
आप उन दस पाँच फीसदी लोगों के साथ अपना सपना शुरू कर सकते हैं जो करना चाहते हैं लेकिन कौशल और प्रबन्धन का अभाव है। दस से तीस रूपये मे अच्छी किस्म का फलदार या ईमारती पौधा मिल जाता है एक या अधिक से अधिक दो ही प्रजातियों के पौधों से शुरूआत करनी चाहिये ताकि आपके पास उस प्रजाति से सम्बन्धित अधिक जानकारी हो आप उनकी हेर देख कर सकें और कुछ सालों बाद फसल देने पर आप की अच्छी क्वाटिंटी हो जाय और आप अपने उत्पाद को बेच सकें या खरीददार आप तक पहुँच सके। श्रम का करेन्सी मे कन्वर्ट होना अन्यों को आकर्षित और प्रेरित करता है। हिमालय की जैवविवधता और हिमालयी जीवन के शसक्तीकरण हेतु, जितनी बड़ी भूमिका जमीन की ऊपरी सतह की गुणकारी मृदा की है उतनी ही बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका समाज के उस ऊपरी तबके की है जिसके पास गुणवत्ता युक्त पढाई है, प्रयोग और जमीनी पहल करने की सामर्थ्य है, बड़ा विजन और तुलनात्मक समृद्ध एक्सपोजर है निश्चित रूप से इन दो महत्वपूर्ण स्तरों के संयोजन से बहती माटी को रोका जा सकता है, आजीविका के लिये बढते पलायन के बड़े ब्रेकर यह माॅडल और पहल बन सकती है।
ये लेखक के विचार है