उत्तराखंड के अस्तित्व का सवाल
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
जब से उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आया तभी से यहाँ के संवेदनशील आन्दोलनकारियों, समाजसेवियों व जनता से जुड़े ईमानदार जन प्रतिनिधियों ने सख्त भू-कानून बनाने कि पुरजोर वकालत की, लेकिन राज्य बनने के हर्षो उल्लास के नशे में चूर यहाँ कि जनता व जनप्रतिनिधि से लेकर सभी इस महत्वपूर्ण मुद्दे को भूल गये. सब राजनीती के चक्र में अपनी गोटी फिट करने पर जुट गए. अपने राजनीतिक स्वार्थ के रहते, राज्य के सबसे बड़े बुनियादी मुद्दे भू-कानून पर लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अचानक से चुप्पी ओढ़ ली, ताज्जुब की उत्तराखंड क्रांति दल भी इस मुद्दे पर कुछ नहीं कर सका, और धीरे-धीरे वह सत्ताधारी पार्टियों की गोद में बैठ गया.
भाजपा हो या कांग्रेस दोनों सत्ता का सुख भोगकर राज्य की भूमि को खुर्द-बुर्द करते रहे. आम जनता को हवा ही नहीं लगी. दूसरी ओर भू-माफियों, नौकरशाहों व सत्ताधारी सरकारों का सिंडिकेट मजबूत होता गया, यह सिंडिकेट इतना सशक्त हो गया कि, इनका कोई बालबांका नहीं कर पाया चाहे सरकार किसी भी पार्टी की रही हो. उधर सिंडिकेट राज्य स्थापना के समय से ही सक्रीय होकर राज्य के कोनों – कोनों में घूम – घूमकर औने – पौने दाम पर जमीनों की खरीद फरोख्त करता गया. जिसने आनाकानी की उनको धमकाया गया. भू – मफियाओं के सिंडिकेट ने यह भी चालाकी की कि, ऐसी भूमि क्रय की गयी जिसमे नाप भूमि ३० – 40 प्रतिशत हो व बाकी सरकारी कब्जाई (केशर हिन्द भूमि/ उत्तर प्रदेश सरकार, आरक्षित भूमि) भूमि हो. जमीनों का यह खेल कितने लम्बे समय से चल रहा है इसकी बानगी कुछ महीनों से देखने को मिल रही है. कि कैसे पुराने भू अभिलेखों में कई सालों से भू- अभिलेखों में बदलाव किया जाता रहा.
तकनीकी के इस ज़माने में जब नकली नोट छापे जा सकते हैं, तो पुराने स्टाम्प पेपर क्यों नहीं छापे जा सकते हैं? भू – मफियाओं के सिंडिकेट ने राज्य की ऐसी संपत्तियों पर नजर गड़ाई जो शत्रु संपत्ति, विवादित संपत्ति थी जिनको सिर्फ अभिलेखों में बदलाव कर खुर्द-बुर्द की जा सकती थी व उनको स्थानीय लोगों को न बेचकर ऐसे लोगों को बेचा गया जो बाहरी राज्यों, भाषा – संस्कृति के मिलते जुलते लोग थे, जिससे स्थानीय लोगो या पड़ोसियों तक को अहसास न हो सके. भू – मफियाओं के सिंडिकेट के पास राज्य की भू – संपत्तियों का पूरा डाटा बैंक उपलब्ध है. पाठकों को इससे पहले के भूमि खुर्द – बुर्द के कई प्रकरण याद होंगे. उधमसिंह नगर जनपद के भूमि घोटाले में कई नेताओं- प्रसासनिक अधिकारीयों की मिली भगत पायी गयी थी, लेकिन आखिरकार वह मामला ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है.
अब सवाल यह उठता है कि बारी – बारी से भाजपा व कांग्रेस की सरकारें इस राज्य पर शासन करती रही और भाजपा तो पिछले सात सालों से शासन कर रही है. सबसे लम्बे समय से भाजपा ने राज्य में सरकार की अगुवाई की है, तो उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी बनती है कि कैसे सरकार की नाक के नीचे जमीनों का यह खेल चलता रहा. इससे यही आशय निकलता है कि यह सब मिलीभगत है. सख्त भू – कानून को लेकर खंडूरी सरकार हो या कांग्रेस बाहरी लोगों को सीमित भूमि ख़रीद तो सिर्फ जनता को भर्मित करने का एक चुग्गा है. बड़ा खेल तो औद्योगिकीकरण के नाम पर हुआ है, जहाँ सरकारों ने सरकारी भूमि से लेकर स्थानीय लोगों को भूमिहीन करने का काम किया.
अब निजि भूमि से लेकर राज्य कि बची खुची भूमि जब खुद – बुर्द हो गयी तो भू – मफियाओं के सिंडिकेट ने एक नया रास्ता तलाशा. यह रास्ता था छोटे – कस्बों, अर्ध शहरी ग्रामों, पहाड़ी कस्बों को नगर पंचायत, नगर पालिकाओं व नगर निगमों में तब्दील करने का, इसमें अब एक और नया आयाम जुड़ गया है नयी टाउनशिप विकशित करने का. देहरादून नगर निगम में सामिल ग्रामों को पता है कि कैसे सरकार ग्राम पंचायतों की भूमि को लूटने के उपाय कर रही है. लोग अब पछता रहे हैं कि इससे बढ़िया तो ग्राम पंचायत ही ठीक थी. श्रीनगर नगर पालिका की सीमा बढ़ाकर 15 किलोमीटर दूर धारी देबी के आस – पास तक के सारे गांवों को नगर निगम में शामिल कर दिया गया. हाल ही में रुद्रप्रयाग नगर पालिका का विस्तार कर दिया गया है जिसका कि कुछ गांव विरोध कर रहे है. बिना जनता कि राय मशवरे के कुछ चुनिन्दा सत्ता से जुड़े ग्रामीणों व जनप्रतिनिधियों की मिलीभगत से ग्राम पंचायतों का अस्तित्व समाप्त हो रहा है. ऐसा पूरे राज्यभर में हो रहा है. ऐसा कर सरकार अपना नया लैंड बैंक तैयार कर रही है. और जनता को भूमिहीन करने पर उतारू है. दुर्भाग्य से उत्तराखंड की जनता की सोच समझ डिब्बे में बंद पड़ी है.
बर्तमान सरकार ने पिछले कुछ समय से अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाया हुआ है. अपने आप को उत्तर प्रदेश के बुलडोजर मुख्यमंत्री शाबित करने कि होड़ कई भाजपा शासित राज्यों से होकर उत्तराखंड में भी पहुँच चुकी है. राज्य के मुख्य सेवक ने इसकी शुरुआत आरक्षित बनों से की जहाँ मंदिर कम तोड़े गए मस्जिदों कि संख्या ज्यादा बताई जा रही है. फिर नदियों पर अतिकर्मण का नंबर आया कुछ ख़ास नहीं हुआ. विधानसभा के सामने रिस्पना नदी का अतिकर्मण मुख्य सेवक महोदय को नहीं दिखता है. लेकिन पहाड़ के गांव कस्बों में सालों से बसे लोगों पर आजकल बुलडोजर चलाया जा रहा है. बड़े बड़े प्रायोजित सभा समारोहों जहाँ सत्ता समर्थित लोग बैठे होते हैं, वहां मुख्य सेवक जनता से सवाल पूछते हैं कि अतिकर्मण हटना चाहिए कि नहीं. फिर मोदी कि तर्ज पर समर्थन में लोगों से हाथ खड़ा करवाते हैं. ये सवाल आने वाले समय में जिन पहाड़ी कस्बों में बुलडोजर चल रहा वहां कि सभाओं में बोलने की हिम्मत भी मुख्य सेवक जी जरुर करेंगे. राज्य के मैदानी इलाकों में सैकड़ों अतिकर्मण कर बसाई गयी बस्तियों को जहाँ नियमित किया जा रहा है, वहीँ पहाड़ी कस्बों गांवो, सड़क किनारे रोजगार करने वालों पर बुलडोजर चलाया जा रहा है.
पहाड़ों के पर्यटक स्थलों से स्थानीय लोगों का रोजगार अतिकर्मण के नाम पर छीना जा रहा है. गुप्तकाशी से लेकर गौरीकुंड के बीच सैकड़ों अस्थायी रोजगार करने वालों को उजाड़ दिया गया है. यही हालात तुंगनाथ से लेकर सभी जगह देखने को मिल रही है. कुल मिलाकर उत्तराखंड राज्य कि अब तक की सरकारों ने उत्तराखंड राज्य की परिकल्पना के विरुद्ध काम किया है, जिसकी अति आज देखने को मिल रही है. हमारे गांवों की जमीन खिसका दी गयी है, सरकार गांवों कि जमीन चोर रही है, उनको भूमिहीन किया जा रहा है, यहाँ के मूल निवासियों कि नौकरियां बेचीं जा रही है, जो छोटा – मोटा रोजगार कर रहे थे उन पर बुलडोजर चलाया जा रहा है.
एक सोची समझी चाल के तहत उत्तराखंड के गांवों का शहरीकरण किया जा रहा है. हकीकत यह है कि आज उत्तराखंड की शहरी आबादी 40 प्रतिशत से ज्यादा हो चुकी है. राज्य के भौगोलिक क्षेत्रफल के 9 प्रतिशत भूभाग (उधमसिंह नगर, हरिद्वार व देहरादून) की आबादी 50 प्रतिशत से ज्यादा होने वाली है. 91 प्रतिशत भूभाग में रहने वाले 10 जिलों का अस्तित्व संकट में पहुँच चुका है. सारा बजट 9 प्रतिशत भूभाग पर खपाया जा रहा है. पहाड़ों की 90 प्रतिशत ग्रामीण सड़के आज भी बंद पड़ी है.
सरकार को मेरा सुझाव है कि रास्ट्रीय राजमार्गों पर बसे सड़कों के किनारे के शहरों का पुराना अस्तित्व बरकरार रखा जाय, हर शहर से पहले बाय पास सड़क या सुरंग मार्ग बनाया जाए. शहरों के सड़क मार्गो को राज्य मार्गों में तब्दील किया जाए, इन शहरों में बड़े वाहनों की आवाजाही सिर्फ रात में हो, हर शहर के शुरु व अंत में टनल पार्किंग बने. बाज़ारों के अन्दर छोटे वाहनों पर दिन में प्रतिबन्ध हो, विश्व के कई देशों में भी हमारी जैसी परिस्थितियों वाले शहर व कसबे है. वहां के देशों ने सड़क चौडीकरण के नाम पर शहरों, कस्बों को उजाड़ा नहीं है, उन्होंने उनका पुराना स्वरुप बरकरार रखा हैं. मैंने जैसा ऊपर लिखा हैं उन देशों ने ऐसा ही किया है. अगर भाजपा या सत्ता के कोई लोग या समर्थक साथी इस आलेख को पढ़ रहें हो, तो ये सुझाव जरुर मुख्य सेवक जी तक पंहुचायेंगे.