एक व्यक्तित्व जो एक मिशन था-गबर सिंह राणा
गजेन्द्र रौतेला
जब हम स्कूल में पढ़ते थे, तो अक्सर हमारे स्कूल में एक अधेड़ व्यक्ति जो खादी के कपड़े पहने हुए गले में साफा या गमछा, कंधे पर एक झोला लटकाए और हाथ में पशुबलि प्रथा की कुरीति को रोकने की अपील के पर्चे लिए, अक्सर हमारे स्कूल सहित अगस्त्यमुनि के आसपास के स्कूलों और बाजार-कस्बों में, पशुबलि के खिलाफ अकेले ही जागरूकता अभियान चलाए हुए दिख जाते थे। मुझे याद नहीं कि बाल्यावस्था में हमारे मन- मस्तिष्क में इस बात का कितना प्रभाव पड़ा होगा, लेकिन आज लगभग 40 साल बाद भी उनकी वो छवि एकदम स्पष्ट तैर जाती है।
मैंने अपनी युवावस्था में भी देखा कि वो तब भी इसी जुनून के साथ अपने मिशन को जारी रखे हुए थे। आज अगर पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो समझ आता है कि हमारे समाज के कुछ लोगों ने अपने व्यक्तिगत और निजी हित त्यागकर अपने जीवन को कठिनाइयों में डालकर भी, एक सामाजिक चेतना को जागृत करने के लिए कितनी कठिन तपस्या की होगी। वह भी तब जब न तो प्रचार-प्रसार के साधन थे और न आने जाने के।बावजूद इसके ये शख्स उन सब जगह मौजूद होते थे, जहाँ-जहाँ पशुबलि दी जाती थी। इस सब के दौरान उन्होंने बहुत बार हमारे समाज से अकेले ही लड़ने-भिड़ने के साथ-साथ बहुत अपमान और तिरस्कार भी सहा।
बावजूद इसके अपने जीवन के अंतिम समय तक यही लक्ष्य रखा। मुझे याद है जब वर्ष 2012 में उमेश डोभाल स्मृति समारोह के आयोजन की जिम्मेदारी हमारे अगस्त्यमुनि के साथियों ने ली, तो पत्रकार मित्र स्व0 ललितमोहन कोठियाल जी ने हमें ‘राजेन्द्र रावत जन सरोकार सम्मान’ के लिए किसी का नाम सुझाने का कहा, तो इन्हीं श्री गबर सिंह राणा जी का नाम सबसे पहले ज़हन में आया। ये ही वो शख्स थे जो बिना लोभ, स्वार्थ, एन जी ओ, फंडिंग आदि के बिना अपने इस एक सूत्रीय पशुबलि प्रथा के खिलाफ अभियान चलाए हुए थे। तब मित्र लखपत सिंह राणा ने इन पर एक लेख भी लिखा जो तब की स्मारिका में भी प्रकाशित हुआ।
आज फिर जब लखपत सिंह राणा जी से इनके देहान्त की खबर मिली तो अचानक फिर से वही बचपन की स्मृतियों वाला उनका वो चेहरा आँखों में तैर गया। वही हंसमुख और ओजपूर्ण तेजस्वी चेहरा। मुझे याद है अंतिम बार दो वर्ष पूर्व मेरी उनसे अंतिम मुलाकात अचानक ही कालीमठ गेट पर हुई थी, जहाँ वो उम्र के ढलान पर पथराई हुई आँखों के साथ बैठे हुए थे।शारीरिक और आर्थिक लाचारी का दबाव उनकी बातों से साफ झलक रहा था। थोड़ी बहुत पुरानी-नई बातों के साथ उस दिन उनसे विदा ली तो दुबारा तब से कोई मुलाक़ात न हो सकी। दरअसल हम सब व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से अपने उन हीरोज को भूल जाते हैं, जो अतीत में अपने जीवन का सबसे सुनहरा वक़्त अपने समाज को दे चुके होते हैं, ये एक बड़ी विडंबना है। आज उनके जाने के बाद अतीत के पन्ने पलटता हूँ तो उनका वो योगदान याद आता है, जिसके लिए उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था. न तो वो कभी सरकार से मिला और न ही समाज से, जिसके कि वो यकीनन हक़दार थे। आज उनके जाने के बाद शब्दों के रूप में ही उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि और नमन कि हम उनके त्याग और समर्पण के हमेशा ऋणी रहेंगे।
लेखक शिक्षक हैं