रचनाक्रम के कॉमरेड थे डॉ. योगम्बर बर्त्वाल
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
चन्द्रकुंवर बर्त्वाल शोध संस्थान के संस्थापक डॉ. योगम्बर सिंह बर्त्वाल का जाना उत्तराखंड राज्य की एक बड़ी क्षति है. प्रसिद्ध कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की कविताओं को जिस प्रकार स्व. शम्भू प्रसाद बहुगुणा दुनिया के सामने लाये, उस कार्य को बड़ी शिद्दत के साथ डॉ. योगम्बर सिंह बर्त्वाल आगे बढ़ाया. डॉ. बर्त्वाल उत्तराखंड के इतिहास, समाज, संस्कृति से लेकर राजनीती के गहरे जानकार थे, व वैसे ही उनके इस तरह के लोगों के साथ ब्यक्तिगत सम्बन्ध भी थे. मेरा उनसे लेखन के जरिये ही परिचय ढाई दसक से था. वे मुझे लेखन हेतु बहुत प्रोत्साहित करते थे. हर महीने जब मेरा युगवाणी में “पहाड़नामा” कॉलम प्रकाशित होता था, तो पहला फ़ोन डॉ. बर्त्वाल जी का ही आता था, उस पर वह अपनी निस्वार्थ प्रतिक्रिया देते थे.
चंद्रकुंवर बर्त्वाल शोध संस्थान का जब भी कोई प्रकाशन निकलता था, तो बर्त्वाल जी मुझे पुस्तकें प्रदान करते थे. नरेन्द्र सिंह भंडारी पर लिखी उनकी पुस्तक मैंने खुद उनके घर जाकर प्राप्त की. इन दिनों वे प्रसिद्ध मूर्तिकार व लखनऊ आर्ट कॉलेज के डीन रहे प्रो. डॉ. अवतार सिंह पंवार जी और राजनीतिज्ञ व उत्तरकाशी के पूर्व विधायक ठाकुर किशन सिंह परमार पर पुस्तक प्रकाशन की तैयारी पर लगे थे. लगभग दस साल पहले जब में अपने मित्र डॉ. विक्रम बर्त्वाल के साथ उनके घर गया था तो, उन्होंने मुझे डॉ. अवतार सिंह पंवार जी द्वारा निर्मित वीर शिरोमणि माधो सिंह भंडारी और प्रसिद्ध समाज सेवी श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम के संस्थापक व गढ़वाल विश्वविधालय आन्दोलन के अग्रदूत स्वामी मन्मथन जी की मूर्तियाँ दिखाई थी.
गढ़वाल विस्वविधालय कि स्वर्ण जयंती की डाक्यूमेंट्री निर्माण के दौरान, मेरे मन में अचानक यह विचार आया कि यदि उपरोक्त दोनों मूर्तियाँ श्रीनगर विस्वविधालय में सही जगह स्थापित हो जाएँ, तो मूर्तियों का संरक्षण भी होगा और उचित सम्मान भी होगा. मैंने तुरंत डॉ. साहब को फ़ोन किया और अपने मन की बात बतायी. काफी विचार विमर्श के पश्चात डॉ. बर्त्वाल जी ने कहा पंवार जी आपका सुझाव अति महत्वपूर्ण है. जब बर्त्वाल जी ने मुझे अनुमति दे दी, तो मैंने माननीया कुलपति प्रो. अन्नपूर्णा नौटियाल जी से इस सन्दर्भ में बात की, तो उन्हें बहुत ख़ुशी हुई. उन्होंने डॉ. बर्त्वाल जी को एक आभार पत्र भी लिखा और प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के विभागाअध्यक्ष प्रो. राजपाल सिंह नेगी और डॉ. सुरेन्द्र बिष्ट को मूर्तियों को लाने हेतु भेजा व कुलपति प्रो. अन्नपूर्णा नौटियाल ने डॉ. बर्त्वाल जी से मोबाइल पर बात कर उनका आभार भी ब्यक्त किया. मूर्तियाँ विस्वविधालय में पहुँच चुकी है. मूर्तियों के स्थान, प्लेट फॉर्म निर्माण की प्रक्रिया चल रही है. कुछ ही महीनों में ये मूर्तियाँ सम्मानित स्थानों पर स्थापित हो जाएँगी.
डॉ. योगम्बर सिंह बर्त्वाल ने सदैव युवाओं को प्रेरणा देने का कार्य किया. उनके मन में एक इच्छा थी कि चंद्रकुंवर शोध संस्थान के कार्यक्रम वे दिल्ही, लखनऊ, नैनीताल, पिथोरागढ़, मसूरी से लेकर अनेक स्थानों पर कर चुके थे, लेकिन श्रीनगर में कार्यक्रम करने का उनको मौका नहीं मिला. आशा करता हूँ कि आने वाले समय में जरुर उनकी इच्छा पूरी होगी व चंद्रकुंवर शोध संस्थान डॉ. बर्त्वाल जी के सपनों को आगे बढ़ाने का काम करेगा. प्रिय अग्रज डॉ. योगम्बर सिंह बर्त्वाल जी को सादर नमन व विनम्र स्रधांजलि.
योगम्बर सिह जी का जाना अपूर्णीय क्षति
डॉ. अतुल शर्मा
मेरी पहली मुलाकात डा योगम्बर सिह बर्तवाल (अब स्मृति शेष) से तब हुई, जब वे दून अस्पताल मे थे. सज्जन और गम्भीर, उन्होंने मेरी आंखे चैक की, नम्बर दिया, चश्मा बना और साफ दिखाई देने लगा. उनसे मुलाकात होती बडे़ भाई चारुचंद्र चंद्र चंदोला जी के घर पर और आनंद ढौडियाल जी के साथ, योगम्बर जी कई बार घर आये (सुभाष रोड) पर, साहित्य की बात होती, गजब की यादाश्त थी उनकी.
एक बार मै, डा. हरिदत्त भट्ट शैलेश और डा. उमाशंकर सतीश आकाशवाणी नजीबाबाद मे सुकवि चन्द्र कुवर वर्तवाल के सम्बन्ध मे चर्चा रिकॉर्ड हुई, उसके प्रसारण को उन्होंने सुना और घर आये, मैने उनकी यम कविता का जिक्र किया था, उस पर वे एक घंटे तक लगातार बोले और फिर तीन किताबों को मुझे सौपते हुए बोले, कि शम्भु प्रसाद बहुगुणा जी ने उन पर जो बुनियादी काम किया उसे बढाना चाहिए. सुकवि चन्द्र कुंवर जी की कविताओं को लेकर सन् अस्सी से कुछ पहले स्व. बुद्धि बल्लभ थपलियाल जी से बहुत सुना था और सतीश जी ने तो अपने पास से एक पुस्तक मुझे दी थी.
पढा़ तो जाना इस विलक्षण कवि के बारे मे, थपलियाल जी ने चन्द्रकुंवर पर्व के नाम से गोष्ठियों का भी आयोजन किया था. इस संदर्भ मे योगम्बर जी से चर्चा हुई, फिर मसूरी भी गया उनके साथ कवि वर्तवाल से संबंधित गोष्ठी मे. वे जब भी मिलते तभी दो लोगो का जिक्र करते, कवि चन्द्रकुवर वर्तवाल और मूर्तिकार अवतार सिंह पंवार जी का. एक बार स्व. रमेश कुमार मिश्र सिद्धैश जी के आग्रह पर होटल द्रोण मे पंवार जी से मिलना भी हुआ, तब हमारे साथ विद्वान योगम्बर जी भी थे.
जब युगवाणी मे उन्होंने एक व्यंग्य कालम यायावर ययाति (अगर ठीक नाम याद है तो) धारावाहिक रुप से छपा तो उस पर हमारे घर चर्चा हुई. केदार मानस मे कवि चन्द्र कुवर वर्तवाल पर केंद्रित अंक निकला, तो भाई मुनी राम सकलानी जी ने मुझ से भी लेख मांगा, वह छपा, पर उन पर जो लेख योगम्बर सिह जी का था वह अद्वितीय रहा, स्वाभाविक ही है, उन्होंने इस विषय पर वास्तव मे अद्वितीय कारण काम किया है. इतिहास और कला संस्कृति पर उनकी पकड़ मज़बूत रही, मुस्कुराता चेहरा हमेशा याद आयेगा.
एक सबसे अलग संस्मरण है कि जब सन् अस्सी मे बाल नुक्कड़ शुरू किये, तो उसका शो मसूरी शरदोत्सव मे होना था. बच्चों का सलेक्शन करना था. उनकी पुत्री हमारी दीदी रीता शर्मा की छात्रा थी, उसे नाटक मे रखने की बात हुई तो सबसे ज्यादा समर्थन उसके आदरणीय पिता जी योगम्बर सिंह बर्तवाल जी ने किया था. वे प्रगतिशील थे, उस नाटक मे चारुचंद्र चंदोला जी की पुत्री साहित्या, शैफाली और भाई सुरेन्द्र कुमार जी की पुत्री रोली थी शामिल थी. योगम्बर सिह जी का जाना अपूर्णीय क्षति है, उन्हे नम आंखो से श्रृद्धांजलि.
नागपुर का चमकीला नक्षत्र : डा. योगम्बर सिंह बर्त्वाल
डॉ. देवेश जोशी
बहुत पहले उनकी एक प्रकाश्य पुस्तक के नाम ने आकर्षित किया था। नाम था – नागपुर के नक्षत्र। दो साल पहले जब उनके शास्त्री विहार स्थित आवास पर मिलने गया, तो अपनी कुछ किताबों के आदान-प्रदान के बाद मैंने पूछा, नागपुर के नक्षत्र तो आपने दी ही नहीं। उन्होंने ठंडी साँस लेकर कहा कि वो फाइनल नहीं कर सका।
डा. योगम्बर सिंह बर्त्वाल का, 28 अगस्त को निधन हो गया। 75 वर्षीय बर्त्वाल नेत्र विज्ञानी के रूप में प्रदेश के राजकीय चिकित्सालयों में सेवा देते रहे और दून हास्पीटल से सेवानिवृत्त हुए थे। 1948 में रड़ुवा (चमोली) में जन्मे बर्त्वाल की स्वाभाविक रुचि साहित्य और इतिहास में थी। स्मरण शक्ति उनकी विलक्षण थी। प्रदेश के महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों की जानकारी उनकी फिंगर टिप पर रहती थी।
अपनी कैप्टन धूम सिंह चौहान पुस्तक मैंने जब उन्हें भेंट की, तो बड़ा आश्चर्य हुआ ये जानकर कि कैप्टन चौहान की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ तो उन्होंने बिना किताब खोले ही गिना दी थी। ये भी कि उनके गाँव से तीन लोगों ने प्रथम विश्व युद्ध में भाग लिया था। पुस्तक पढ़ने के बाद जब उन्होंने बधाई देकर काम की सराहना की तो मुझे अपने प्रयास की सफलता का पूरा विश्वास हो गया था। ऐसा इसलिए कि डा. बर्त्वाल ही वो व्यक्ति थे जो किसी भी इतिहास कृति में तथ्यात्मक और अवधारणात्मक त्रुटियाँ निकाल सकते थे। उनसे आमने-सामने या फोन पर लम्बी रोचक-ज्ञानवर्द्धक बातें हुआ करती थी, जिनसे कई नये प्रोजेक्ट्स पर कार्य करने की प्रेरणा मिलती थी।
सत्तर पार की उम्र में भी उनका अध्ययन, जोश और लेखन किसी को भी चौंका सकता है। अपर गढ़वाल के पहले ख्यातिलब्ध राजनेता नरेन्द्र सिंह भण्डारी पर उनका शोध-संकलन दो साल पहले ही प्रकाशित हुआ है। पत्र विधा के वो उस्ताद थे। यायावर ययाति के पत्र, जो बाद में पुस्तकाकार छपी, युगवाणी पत्रिका में क्रमिक रूप से छपते रहे हैं और अत्यंत लोकप्रिय रहे हैं। इसके साथ ही मंगसीरू उत्तराखण्ड में भी उनकी लोकप्रिय रचना रही है।
चन्द्रकुँवर बर्त्वाल के लिए तो उनका लगाव जुनून के स्तर का था। उनके नाम से शोध संस्थान की स्थापना की। स्वयं इसके संस्थापक सचिव के रूप में आजीवन कार्य करते रहे। जगह-जगह समारोह-गोष्ठियाँ आयोजित करवायी। मूर्तियों की स्थापना करवायी और सबसे महत्वपूर्ण, उनकी अप्रकाशित रचनाओं को खोज कर उनकी ज्ञात कविताओं के साथ पुस्तक रूप में प्रकाशित किया। खास कर चंद्रकुँवर की डायरी और गद्य रचनाएँ, इसी किताब के माध्यम से प्रकाश में आयी।
डा.बर्त्वाल सृजनधर्मियों के बीच कुछ अड़ियल, कुछ पूर्वाग्रही भी समझे जाते थे। मेरा अपना अनुभव उनके बारे में ये था कि तर्कपूर्ण बात को वो स्वीकारते भी थे, अनावश्यक बहस नहीं करते थे। हमारी उम्र में बीस साल का अंतर होने पर भी एक बार जब मैंने उनसे कहा कि इस थ्योरी को आप किसी से न कहना और न लिखना, नहीं तो लोग हँसेंगे। इस पर उन्होंने क्यों कहे बगैर ही आत्मचिंतन किया और अमल भी।
नागपुर के नक्षत्रों पर हमने विस्तार से चर्चा की थी। डा. बर्त्वाल द्वारा चिह्नित और वो जिनको नक्षत्रों की सूची में शामिल किया जाना था। गौरतलब है कि नागपुर, अपर गढ़वाल के ब्रिटिशकालीन परगने का नाम था, जिसमें वर्तमान चमोली व रुद्रप्रयाग जिले का बड़ा भूभाग आता है। हमारे गाँवों की दूरी बमुश्किल दस किमी होगी, पर परिचय पत्र-पत्रिकाओं के जरिए ही हुआ था। डा. योगम्बर सिंह बर्त्वाल के निधन पर मेरी स्वतः-स्फूर्त वन लाइनर टिप्पणी यही है कि – नागपुर का एक चमकीला नक्षत्र धरती से बिछुड़ कर नभ में सुशोभित हो गया है।
विनम्र श्रद्धांजलि डा. योगम्बर बर्त्वाल जी। आशा है, हम आपके अधूरे प्रोजेक्ट्स को पूरा कर सकेंगे।
अलविदा बर्त्वाल जी
शीशपाल गुसाईं
देहरादून के साहित्यकार श्री योगम्बर सिंह बर्त्वाल ने आज इस दुनिया को अलविदा कह दिया है। एक साहित्य के माध्यम से जीवन भर उमंग और प्रेरणा का संचार करते रहे हैं। उनका निधन एक शोक की बात है, जिसने पत्रकारों, साहित्यकारों और उनके प्रशंसकों को दुखी किया है। योगम्बर सिंह बर्त्वाल 75 वर्ष की उम्र में देहरादून की सड़कों पर टेम्पों में चलते थे। वह घर से युगवाणी और अन्य साहित्यिक कार्यक्रमों में बिजी रहते थे। वह स्वास्थ्य विभाग में भी 60 साल तक कार्यरत रहे। उनका नौकरी के साथ-साथ साहित्यिक और लेखन कार्य जारी रहा।
उनके न रहने के समाचार को और कन्फर्म करने पर मैंने युगवाणी के संपादक श्री संजय कोठियाल को फोन किया था। उन्होंने बताया कि, बर्त्वाल जी को एक कार्यक्रम 20 अगस्त को हिंदी भवन में करना था, लेकिन जब वह कार्यक्रम नहीं हुआ, तो मैंने उन्हें फोन किया तब उन्होंने बताया कि वह कार्यक्रम 22 तारीख को है 22 तारीख को फोन किया, तो उनके परिजनों ने कहा कि उन्हें बुखार आ गया है और वह अरिहंत अस्पताल में भर्ती हुए। अरिहंत अस्पताल से उनके पुत्र ने उन्हें कैलाश अस्पताल में जोगीवाला में एडमिट करवाया। जहां उन्होंने आज सुबह अंतिम सांस ली।
बर्त्वाल जी ने हमें देहरादून में कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल जैसे महान कवि को समय- समय पर याद करते रहना चाहिए, यह सिखाया। उन्होंने मसूरी में चन्द्र कुंवर की याद में मूर्ति लगवाने, याद करने के लिए संघर्ष किया। बारिश या धूप में वह बस में सफर करते थे। और अपने मिशन को वह पूरा करते थे। पिछले तीन दशकों से दो-तीन पीढ़ी को योगंबर सिंह जी ने हिमवंत कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल के बारे में लोगों को अवगत कराया। हालांकि वह बहुत बड़े कवि थे, लेकिन बार-बार उनके कार्यक्रमों के द्वारा लोग चंद्र कुंवर से परिचित हुए।
चाहे वह कभी अस्वस्थ हों, वह महसूस नहीं करने देते थे। हमेशा वह अपने आपको फिट बताते थे। देहरादून में 1804 में गोरखाओ के आक्रमण युद्ध में शहीद हुए राजा प्रदुम्न पर पिछले सालों में मैं जब काम कर रहा था, तब बर्त्वाल जी हमारे सच्चे साथी के रूप में सामने आए। उनसे मिलना। होता था, फोन पर बात होती रहती थीं। पिछले माह महान मूर्तिकार अवतार सिंह पंवार के बारे में उन से वार्ता हुई थी। यही आखिरी बात थीं, हमारी। पंवार जी ने वीर भड़ माधो सिंह भंडारी की जो मूर्ति बनाई थीं, वह मैंने एक दिन योगम्बर जी के आंगन में देखी थी। आर्थत उनके पास चार सौ साल पहले का इतिहास का दस्तावेज मिलता है।
फोन पर उन्होंने बताया कि, संविधान सभा के सदस्य ठाकुर किशन सिंह पर उनकी किताब अंतिम चरण में है। पर्वतीय विकास मंत्री श्री नरेंद्र सिंह भंडारी पर उन्होंने किताब लिखी है। उसकी एक प्रति की मांग की थीं मैंने, जिसमें उन्होंने घर से लेने के लिए कहा था। दुर्भाग्य से वह किताब देने से पहले चल दिये। योगम्बर सिंह बर्त्वाल। के निधन के बाद, उनके साहित्यकार मित्रों ने उनके काव्य, कविताएं और रचनाओं को याद करते हुए शोक जताया है। उनके स्वभाविक रचनात्मकता का प्रतीक था। वह शोध में भी प्रसिद्ध रहे हैं, जिन्हें वे समाज के विभिन्न मुद्दों को हल करने के लिए अपने साहित्यिक प्रतिपादनों के माध्यम से प्रदर्शित करते थे। योगम्बर सिंह बर्त्वाल का निधन एक दुखद समाचार है, जिसने हमें एक प्रतिभाशाली और समर्पित साहित्यकार की कमी महसूस कराई है। उनकी रचनाएं हमेशा याद रहेंगी, और उनकी विचारधारा और आदर्शों से हमेशा हमें प्रेरित करेंगी। योगम्बर सिंह बर्त्वाल को उनके साहित्यकार मित्र, पत्रकार नमन करते हैं, और हमेशा हमारी समस्त यात्रा में उनकी सृजनशीलता की प्रेरणा बनी रहेगी।
विनम्र श्रद्धांजलि!
बर्त्वाल जी पर वरिष्ठ साहित्यकार आलोक प्रभाकार ज़ी की टिप्पणी
योगम्बर सिंह बर्त्वाल उर्फ यायावर ययाति। आखिर तुम यह दुनिया छोड़ कर चले ही गए, पर सबकी तरह मैं तुम्हें स्वर्गीय नहीं कहूंगा, क्योंकि मेरे लिए तो इसी दुनिया में स्वर्ग नर्क या बहिश्त, जहन्नुम दोनो मौजूद हैं। तुम इस दुनिया के स्टॉपेज पर खड़ी बस में बैठ कर अगले बस स्टॉप के लिए रवाना हो गए हो। आमीन!
और यायावर ययाति! इस नाम से जब तुम्हारे लेख छपते थे, तब लोगों में कौतुहल होता था कि आखिर यह यायावर ययाति कौन है? जो सबकी बखिया उधेड़ रहा है। कई लोगों ने मुझ पर शक किया था, क्योंकि मैं भी अक्सर जाली नाम से लिखता था। मैं कभी साधु अग्निपुंज हो जाता था और कभी दिलोबा हूतूतूतू और कभी नवल किशोर शर्मा। आलोक प्रभाकर भी मेरा असली नाम नहीं है। लोगों के पूछने पर मैं कहता था क्षमा कीजिए, मैं यायावर ययाति नहीं हूं। मुझे भी मालूम नहीं था कि यायावर ययाति तुम हो।
योगंबर सिंह बर्त्वाल! तुमने यहां बहुत काम किया तुम थक गए थे, अब जहां तुम गए हो, वहां लिखने–पढ़ने का कोई कायदा नहीं है। वहां अपनी कलम मत ले जाना। और हां, कुछ साल बाद मैं भी तुम से मिलने आऊंगा। इंतजार करना।