पगली के प्रलाप
गोविन्द प्रसाद बहुगुणा
ठेठ “टीरी” से एक महिला की कलम से पहला कविता संकलन है यह ! “माफीदारनि” विद्यावती सकलानी उर्फ़ विद्यावती डोभाल का यह कविता संकलन *पगली के प्रलाप* नाम से “गढ़वाली” पत्र के संपादक और मूर्धन्य पत्रकार” स्व० पंडित विश्वम्बरदत्त चंदोला, जिनका जन्म २ नवम्बर १८७९ को ग्राम थापली, पौड़ी गढ़वाल में हुआ था और मृत्यु अगस्त १९७० चकराता रोड देहरादून में हुई थी, की स्मृति में गुरुपूर्णिमा के अवसर पर वर्ष १९७१ में इसलिए प्रकाशित किया गया था, क्योंकि विद्यावती डोभाल की ज्यादातर रचनाओं को संरक्षित और प्रकाशित करने का श्रेय स्व०चन्दोला जी को ही दिया जाता है।
इस संकलन को बहुत से गुणग्राही पाठकों ने बड़ी दिलचस्पी से पढ़ा। उनकी प्रतिक्रिया भी कम दिलचस्प नहीं है। एक पाठक श्री नंदलाल बडोनी, राजपुर रोड देहरादून से -लिखते हैं कि
” इस प्रलाप के पाठकों प्रेमियों और समीक्षकों से निवेदन है कि-
“इन्हीं बिगड़े दिमागों में, खुशियों के लच्छे हैं
इन्हें पागल ही रहने दो कि ये पागल हि अच्छे हैं I
मातृकुल पितृ कुल और पति कुल की संपन्नता के बावजूद इस महिला का जीवन कितना संघर्षमय और कष्टसाध्य रहा इसका प्रमाण यह कविता संकलन है। “सुप्रसिद्ध लेखक स्व० मुकंदीलाल जी बैरिस्टर लिखते हैं कि -“प्रस्तुत कविता संग्रह एक कर्मठ वीर अबला के ह्रदय के उद्गार हैं न कि “पगली का प्रलाप”। इस संग्रह की कुछ कवितायें मैंने “गढ़वाली” में आज से ४५ वर्ष पहले पढ़ी थी। विद्यावती जी ने तब कई कठिनाइयों और पारिवारिक अवहेलनाओं का सामना कर यह साबित कर दिया कि गढ़वाली अबला सबला है। उन्होंने संभ्रांत कुलों की बिधवाओं के सामने एक बहुत उच्च आदर्श रखा और अपने पैरों पर खड़ी वीरांगना का परिचय गढ़वाली समाज को कराया। इस संग्रह में उन्होंने एक आदर्श गढ़वाली पर्वतारोहक मेजर हर्षवर्धन बहुगुणा की कीर्ति भी पद्यों में प्रकट की है, जो सदा गढ़वाल के इतिहास में चिरस्थाई रहेगी I मेजर हर्षवर्धन बहुगुणा धार्मिक वृति के एक युवा अधिकारी थे। उन्होने गौरीशंकर शिखर (एवेरेस्ट) पर आरोहण अभियान से पहले नैपाल में पशुपतिनाथ की पूजा अर्चना की थी किन्तु विधाता को कुछ और ही मंजूर था।”
इतिहासकार और लेखक कैप्टिन शूरबीरसिंह पंवार ने विद्यावती जी के जीवनवृत पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि “गढ़वाल की नारी समाज की उज्जवल परंपरा में, श्रीमती विद्यावती सकलानी का प्राचीन भारत की गार्गी मैत्रेयि आदि की भांति एक विशिष्ट स्थान है। १८वीं शताब्दी के प्रवल प्रतापी गढ़वाल राज्य के प्रसिद्ध दीवान कृपाराम डोभाल के वंश में ग्राम नंदी न्यूली, पट्टी अकरी, टिहरी गढवाल निवासी पंडित श्रीराम जी डोभाल के घर पिपोला गांव में आज से सत्तर वर्ष पूर्व (यानी १९०१ में) इस विदुषी महिला का जन्म हुआ था। तत्कालीन सामन्ती प्रथा के बन्धनों में रहने के कारण बाल्यावस्था में विधिवत शिक्षा उपार्जन से इन्हें बंचित रहना पडा. अपने ननिहाल में अपने मामा पंडित न्यूतनानन्द बहुगुणा के प्रयास से एक राजकीय कन्या पाठशाला में इनको भरती कराये ५-६ दिन ही हुए थे कि, तभी इनके चाचा इन्हें अपने गांव वापस ले गये और १२ वर्ष की बाल्यावस्था में इनका विवाह एक प्रमुख सामन्ती परिवार के मुआफीदार साहब राय पंडित महेंद्र दत सकलानी, ग्राम महेन्द्रपुर, पुजारगांव सकलाना के साथ कर दिया गया।
१९२८ में दुर्भाग्यवश विधवा होने के पश्चात ससुरालियों के व्यवहार से खिन्न होकर इनका स्वावलम्बन के जरिये शिक्षा प्राप्त करने का इरादा बना. इन्होने १९२९ से १९३३ तक कन्या गुरुकुल में दो बार अध्यापन कार्य किया। वर्ष १९३४ में इस कर्मठ महिला को हरिद्वार से गोचर एवं अगस्तमुनि जाने वाले हवाई जहाज में सेविका के काम की नौकरी मिल गई। उसके बाद फिर हरिद्वार में दो कन्या पाठशालाओं में अध्यापन का काम किया, फिर १९३७ में पंजाब में सेठ सूरजभान की कन्या पाठशाला में प्रधानाध्यापक नियुक्त हुई, किन्तु १९४७ में विभाजन के समय अपनी सुरक्षा कारणों से सब छोड-छाडकर स्वदेश भाग आने में सफल रही।
इस बीच उन्होंने जो साहित्य सृजन किया वह बहावलपुर ही छूट गया। फिर आर्थिक संकटों से जूझते हुए बापू इण्डस्ट्रियल होम के शरणार्थी स्कूल में पढाने तथा छात्रावास प्रबंधन का कार्य किया। श्रीमती विद्यावती इस संकलन के निवेदन में लिखती हैं कि “सुदूर अतीत का समय था एक संभ्रांत पर्दानशीन परिवार की महिला ने घराने का पर्दाफाश न हो, इस संकोच में उस समय अपनी रचनाओं में, जो उस समय प्रकाशित हुई अपने नाम के आगे पिता का खानदान लिखा, और इस भांति विद्यावती सकलानी *श्री विद्यावती डोभाल के नाम से तत्कालीन साहित्य संसार में जानी जाती रही और आगे भी इसी नाम से जानी जाती रहेगी। २२ अगस्त १९४७ को जान बचाने की भगदड में लेखिका का सारा सामान पाकिस्तान बनने पर बहालपुर में छूट गया और इस तरह सारी साहित्यिक सामग्री भी वहीं छूट गई, अतः अपनी पुरानी कुछ रचनाएं जिन्हें केवल स्व० पंडित विश्वंभर दत्त चंदोला के द्वारा संग्रहीत *गढवाली* के फाइलों से ही प्राप्त किया जा सका है और इनकी सन १९२९ में प्रकाशित “अश्रु की बूंदे” नामक एक कृति की प्रति भी वहीं मिली.”
इस संकलन की कविताओं से मैंने – कुछ टुकडे मैंने अपने हिसाब से चुने हैं-
“मेरी उम्र ज्यों बढ़ती है
मेरा पागलपन भी ,
बढ़ता जाता है ।
मैं सब काम करती हूँ पर
मुझमें होश हवास ,नहीं पाया जाता है I”
“ऐसे मेरे भी दिन काटते हैं
पागल जन जैसे रहते हैं,
मान अपमान सब सहते हैं
अस्थिर मन को नित रखते हैं
ऐसे मेरे भी दिन काटते हैं.
२
“ह्रदय शुद्धि छल- कपट
को त्याग कर मिलती
सदा सुख शांति है
और मन- मालिन्य से
बढ़ती, असीम अशांति है I
बाहर सुरुचि है और भीतर द्वेष के जो धाम हैं
नर नृशंस न वे कभी पाते तनिक आराम हैं।
३
” क्यों ? “
अरे सोते- सोते अन्याय हुआ अत्याचार सहा !
फिर कहो, अब सोऊं मैं
तो, सोऊंं क्यों ?
रोते -रोते दुःख भी न कटा, दम भी न छुटा !
तब जीवन भर अब रोऊँ,
मैं तो रोऊँ क्यों ?
हजार बार धोखा दिया गया है मुझको अति !
तब फिर धोखे में आऊं ,
मैं तो अब आऊं क्यों? दुर्गति हुई है दुर्बलताओं से अपनी इतनी ! तो दुर्बलता अपने में लाऊँ ,
मैं तो अब लाऊँ क्यों?
४
पार्टीवाद*
अपनी झूठ चलाने के लिए हम,
सत्य का इतिहास मिटाते हैं। पर सत्य सदा सत्य ही रहेगा
नग्न झूठ से हम अपना ही अस्तित्व मिटाते हैं
सिर्फ समय की जरूरत होती है
कसौटी पर पहुँच कर ,
खोटे – खरे की, पहचान होती है
यह कभी गलत बात नहीं होती है
दलवाद तो झूठवाद, दम्भवाद हठवाद का प्रचार करता है I
प्रभु की सृष्टि में अन्याय अधर्म अशांति का प्रसार करता है I”
५
सरिता का प्रेम
सरिता यह बहती जाती है
सागर से मिलने जाती है
श्रगिरि, निर्झर से निस्रित होकर
वन पर्वत नालों में बहकर झाडी झंकाडों में फंसकर श्रकूच कछारों में भी बंटकर
समतल धरती में आ जाती है
धीरे धीरे बहने लग जाती है।……”
इस प्रकार इस संकलन में करीब ६७ कविताए है।
लेखक साहित्य अध्येता हैं