January 18, 2025



चौमासा में खत्म होती पहाड़ों की रौनक

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चंद्रशेखर पैन्यूली


चौमासा, बसग्याल, चतुर्मास में पहाड़ों में पहले अच्छी खासी रौनक होती थी। विशेषकर छानियों / गौटों में, लेकिन समय के साथ तेजी से ये रौनक खत्म सी हो गई है। पहले पहाड़ों के लोग धान की रोपाई, खेती बाड़ी का काम  निपटाकर, तुरंत अपने पशुधन यानि भैंस ,बैल, गाय को लेकर अपनी छानियों / गौटो में जाकर लगभग 3 से 4 माह तक प्रवास करते थे. कई लोग तो 6 महीनों तक अपनी छानियों में रहते थे, इन दिनों विशेषकर आषाढ़ के उत्तरार्ध से और अश्विन के पूर्वार्ध तक बड़ी रौनक पहाड़ों के छानियों में होती थी। विभिन्न प्रकार के पकवान जैसे खीर, पाईस, पत्थयूड़ आदि बनाते थे। छानियों में दूध, दही, घी, मट्ठा खूब होता था।

आजकल हर छानियों में शाम के वक्त दूर से दिखाई देने वाला धुआं खासा आकर्षक होता था, रात के घने अंधेरे में बाहर में चूल्हे की रोशनी दूर से दिखती थी। लेकिन अब ये सब लगभग अतीत की बातें हो गई है, बहुत तेजी से हुआ पलायन, पशुधन न पालने के कारण ये रौनक अब खत्म ही हो गई है। मैं यदि अपने ही गांव की बात करूं तो पहले इन दिनों हमारे गांव के लोग अपनी अपनी छानियों में रहते थे जिनमें केमुंडाखाल, डोगड़ा, ढकराला, मडखुंड, खानपुर, चाकी, कंजखेत, थाला, कोटालगांव आदि जगहों की छानियों में हमारे गांव के लोग इन दिनों अपने पशुओं के साथ प्रवास करते थे, इसी तरह हर गांव के लोग अपने अपने गावों की तोको में अपनी छानियों में रहते थे।


इससे उक्त जगह की खेती के लिए इन दिनों पर्याप्त मात्रा में  पशुओं का गोबर यानी जैविक खाद भी होती थी, साथ ही इन दिनों हरी भरी व पौष्टिक घास को खाकर भैंस खूब दूध देती थी, किसान समृद्ध होते थे। इससे अपनी छानियों से जुड़ी जमीन भी आबाद रहती थी, जिसमे खूब लहलहाती फसल होती थी, हमारी केमुंडाखाल की खेती के लिए हमारे बुजुर्ग बताते हैं कि केमुंडा में साल में तीन फसल होती थी, लेकिन समय के साथ छानियों के साथ साथ  इन जगहों की जमीन भी बंजर होने लगी है. हम लोग वैश्विक उन्नति प्रगति करके देश के विभिन्न शहरों, राज्यों के साथ साथ विदेशों में अपने रोजगार के लिए अस्थाई अथवा स्थाई रूप से रहने लगे हैं, जो लोग गांव में भी है उनमे से भी बहुत कम लोग खेती बाड़ी करते हैं, पशुधन तो बहुत कम लोगो के पास है।


पहले के समय में  जब अपने बच्चों का रिश्ता करते थे तो ऐसे लोगो को प्राथमिकता देते थे जिनकी खूब खेती बाड़ी होती थी, जिनके खूब पशु धन यानि भैंस, बैल गाय होती थी, तब कोई घर पर आता तो पूछता था आपके बाल बच्चे धन चैन आदि ठीक है, आज इसके ठीक उल्ट हो गया, आज बच्चों के रिश्ते वहां हो रहे हैं जिनके शहरों में घर है, जमीन, प्लॉट हो, जिनके घर पशु न हो जो गांव में न रखे अपनी बहू को, न जाने हम प्रगति उन्नति कर रहे हैं या अपनी जड़ों से दूर हो रहे हैं. हम अपनी संस्कृति, रीति रिवाज, संस्कार लगभग भूलते जा रहे हैं, अब गांवों में न पुरानी रौनक रही न अपनापन, क्योंकि मजबूत आर्थिक स्थिति वाले लोग गांव से दूर रहने लगे हैं, गांव में सीमित लोग रहते हैं, खेती बाड़ी से व पशुधन से लोगों का मोहभंग होता जा रहा है. पुराने समय की रौनक खत्म होती जा रही है, जो हमारे एक गौरवशाली इतिहास के  समापन का खात्मा सा है, जो हमारे लिए चिंतनीय हैं।

लेखक सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं