टमाटर बेचती सरकार
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
बरसात के इस दौर में सब्जियों के दाम आसमान छूते रहे. टमाटर 200 रुपये से ऊपर बिके, यही हाल हर प्रकार की सब्जियों के हैं. सरकार ने देहरादून की मंडी में टमाटर बेचने के लिए अलग से काउंटर खोलकर सिमित मात्रा में टमाटर बेचने का दिखाऊ उपक्रम किया. अब हर कोई तो एक – दो किलो टमाटर खरीदने बरसात में भीगते हुए, पेट्रोल फूककर या गाड़ी का भाड़ा देकर तो मंडी जायेगा नहीं? महंगाई को रोकने के ये चोंचले जनता भी समझती है. देश के अन्य इलाकों में टमाटर महंगा हो समझ में आ सकता है, लेकिन उत्तराखंड में खासकर गढ़वाल मंडल में टमाटर महंगा हो यह समझ से परे है. चलो इसकी पड़ताल करते है.
टिहरी व उत्तरकाशी की यमुना व टोंस घाटी फल व सब्जियों के उत्पादन का बड़ा इलाका है. यहाँ बेमौसमी सब्जियां पैदा होती है. यानी जो सब्जी मैदानी इलाकों मे जिस वक़्त नहीं पैदा की जाती वो सब्जी यमुना व टोंस घाटी में पैदा होकर विकासनगर, देहरादून व अन्य मंडियों तक पहुंचती है. सब्जियों के भावों में अचानक आई तेजी के पीछे जो बड़े कारण है वह बरसात के कारण सड़क मार्गों का टूटना व सही समय पर सडकों का न खुलना है. इस लेख को लिखते समय लगभग 75 प्रतिशत ग्रामीण मार्ग बंद पड़े हुए है. किसानों की सब्जियां विशेषकर टमाटर लोगों के खेतों में ही बरबाद हो रहा है. खचचरों से ढुलान इतना महंगा है कि उत्पादन की लागत भी वसूल नहीं की जा सकती, लिहाजा पर्वतीय किसान हतास है. मुख्य सड़क मार्ग भले खोल दिए जा रहे हों पर जिन ग्रामीण सड़क मार्गों से सब्जियां मंडियों तक पहुचनी है वे बंद है. उस पर सरकार आँख मूंदे हुए है.
यमुना व टोंस घाटी के उपरी इलाकों में जहाँ सेब व अन्य फलों का उत्पादन होता है वहीँ निचली घाटियों मैं सब्जी का बृहद मात्रा में उत्पादन होता है. अभी तक तो टमाटर व अन्य सब्जियों ने लोगों का आर्थिक स्वाद बिगाड़ कर रखा हुआ था, अब सेब तोड़ने का सीजन शुरू हो गया है. जो हाल टमाटर का हुआ वही हाल अगर सेब के साथ हुआ तो किसान जमीन पर आ जायेंगे. जब से उत्तराखंड राज्य बना तब से कोल्डस्टोर – कोल्डस्टोर सुनते सुनते कान पाक गए है. आज भी कृषि मंत्री कोल्डस्टोर बनाने का रट्टा लगा रहे है. मान लिया पिछली सरकारों ने कुछ नहीं किया पर महाराज 7 साल से सत्ता पर बैठी आपकी सरकार क्यों नहीं कोल्ड स्टोर बना पायी. यमुना-टोंस घाटी के लोगों की यह मांग आज तक भी धरातल पर नहीं उतर पायी. बरसात के इस मौसम के बाद युद्ध स्तर पर विशेषकर जिन इलाकों में फल सब्जियों का उत्पादन होता है वहां के मुख्य मार्गों सहित ग्रामीण मार्गों को खोलना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिये.
बार – बार उत्तराखंड ब्रांड की बात की जाती है लेकिन इन 23 सालों मैं उत्तराखंड का सेब हिमांचल प्रदेश के नाम की पेटियों में पैक कर बेचा जा रहा है. पिछले साल उत्तराखंड नाम की सेब की पेटियां तैयार की गयी पर उसकी गुणवत्ता इतनी खराब थी कि, किसानों को फिर हिमांचल की पेटियों में सेब पैककर बेचनी पड़ी. जो प्रदेश अपनी ब्रांड वैल्यू नहीं समझता उसकी अंदरूनी हालातों को भली भांति समझा जा सकता है. यही हाल राज्य के हर सेक्टर की है. कृषि मंत्री का एक बयान सुनने में आया कि वो हरियाणा में मोटे आनाजों को रखने के लिए 5000 मीट्रिक टन का बड़ा गोदाम लेंगे. माननीय मंत्री जी पहले गोदाम पहाड़ों के अन्दर बनाओ, कोल्डस्टोर पहाड़ों के अन्दर या राज्य में बनाओ. पर नहीं बनायेंगे. उत्तराखंड का हर नेता मंत्री सिर्फ मोदी जी के गुणगान के मौके ढूढ़ते फिर रहे है. मोटे अनाजों के वर्ष पर वे फिर क्यों मौका चुकेंगे? यमुना – टोंस घाटी के अलावा राज्य की मोटे अनाज पैदा करने वाली खेती बंजर पड़ी है. पहले मोटे अनाजों को पैदा करने की बात तो करो? उसके लिए कोई सफल योजना बनाकर हकीकत की इबारत तो लिखो.
जब से उत्तराखंड राज्य स्थापित हुआ तब से अनेक आजीविका परियोजनाएं चलायी गयी. कृषि विविधिकरण परियोजना (डास्प), एकीकृत आजीविका सहयोग परियोजना, फिर हिमालयी आजीविका परियोजना और अब भारत सरकार की आजीविका परियोजना चलायी गयी. किसानों के सहकारी संघटन बनाये गये. उद्देश्य था कि किसानों की आजीविका में सुधार होगा, किसान बिचौलियों के चंगुल से मुक्त होंगे. हुआ इसका उल्टा. किसान आज भी बिचौलियों के चंगुल में फंसा हुआ है. सारे कृषि फैडरेशन निष्क्रिय हो चुके है. दरअसल ये सारी आजीविका परियोजनाएं किसानों के बजाय, सरकारी कारिंदों की आजीविका बढ़ाने का जरिया बनी. करोड़ों रुपये की खरीददारी कृषि उपकरणों पर की गयी. ये उपकरण आज भी परियोजना गांवों में जंक खा रहीं है. इसका मुख्य कर्ता – धर्ता आई.ए.एस. सुद्दोवाला जेल से रिटायर हुआ.
किसानों के नाम पर जो भद्दा मजाक उत्तराखंड में चल रहा है यह इसकी इन्तहां है. मेलों के स्टालों पर जिस उत्पाद को पहाड़ी उत्पाद के नाम पर बेचा जा रहा है दरअसल वह उत्पाद पहाड़ का है ही नहीं. कृषि मंत्री ने हाल ही में पहाड़ के राजमा का मूल्य 85.49 रुपये घोषित किया है क्या वह हकीकत के आस-पास भी है. पहाड़ में राजमा का उत्पादन लगातार घट रहा है. 150 रुपये से नीचे राजमा गांवों में भी बेचने को कोई तैयार नहीं है. हकीकत यह है कि पहाड़ का उत्पाद पहाड़ में ही खप जाता है. अपने परिवार, रिश्तेदारों, शादी समारोह, भोज आदि कार्यों में ही पहाड़ी उत्पाद की खपत हो जाती है. दाल घाटी के नाम पर ऋषिकेश – देवप्रयाग, ऋषिकेश – चंबा, सहित राज्य के अनेक स्थानों पर पहाड़ी उत्पाद के नाम पर बेचे जाने वाले उत्पाद ख़ासकर दालें बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा से पहुँच कर पैककर बेची जा रही है ऐसी सूचनाएं है.
अब हमारे पहाड़ी भाई बंधू कहीं की भी दाल बेचकर अपना रोजगार चला रहा है तो मुझे खुसी है की उसने कम से कम अपने पहाड़ का ब्रांड तो बनाया हुआ है. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में फल, सब्जियों, चौलाई के अलावा कोई भी अन्य उत्पाद इतनी मात्रा में नहीं है कि उसे राज्य से बाहर बेचा जा सके? पहाड़ी दालें व अनाज गांवों, आस-पास के गांवों, कस्बों व शहरों के लिए ही पूरा नहीं है. यह बात तो कोई भी समझ सकता है कि अगर पहाड़ में इतना कृषि उत्पाद होता, तो सरकार को कौन पूछ रहा लोग खुद ही अपने लिए बाज़ार ढूंड लेते.
यमुना- टोंस घाटी में जो कृषि उत्पाद फल सब्जियां पैदा हो रही है वो वहां के कर्मठ किसानों के स्वयं के प्रयासों का प्रतिफल है व पड़ोसी हिमांचल का अनुसरण है. जो उत्तराखंड की सरकारें पिछले 23 सालों में उत्तराखंड ब्रांड के सेब की पैकिंग का गत्ता तक नहीं छपा पायी हो, गोदाम न बना पायी हो, कोल्ड स्टोर न बना पायी हो, कोई कृषि वैज्ञानिक किसानों के खेतों में न दिखा हो, उस उत्तराखंड की हालात को समझने के लिए किसी पी.एच.डी. की जरुरत नहीं है. सरकार के पास इन सब कामों के लिए कोई संवेदनशीलता नहीं है. में उसी यमुना टोंस घाटी की बात कर रहा हूँ जहाँ कुछ दिन पहले सरकार पिछले दरवाजे से लव – जेहाद की प्रयोगशाला स्थापित कर रही थी. पहाड़ के नाम पर चोंचलेबाज़ी बंद करो ज़नाब.
फोटो सौजन्य – केरला कौमुदी