January 18, 2025



कहानी जो अब तक अनकही 

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गोविन्द प्रसाद बहुगुणा


रतूड़ीसेरा में भाई स्व० कमलनयन जी बहुगुणा का मकान हमारे घर के ठीक नीचे था अस्तु -आते -जाते सुबह शाम नित्य उनके दर्शन का लाभ मिलता रहता था। जजमानी करके जब कभी घर लौटते तो उनके कंधों पर सफेद धोती में लिपटी फांचगी भी दिखाई देती तब लगता था आज जजमानी से अच्छा माल आया होगा। हम बच्चे तुरन्त पहुंच जाते कि इस फांचगी से हमारे लायक कुछ खाने लायक जरूर होगा, फिर हमको हलवा या कोई फल मिल जाता और हम अपने घरों को लौट जाते। गांव के पोस्ट आफिस को पोस्ट मास्टर होने के नाते उनके घर लोगों का आवागमन लगा रहता था। मधुरभाषी थे तो जब उनसे कुशलक्षेम कोई पूछता तो कहते -बस भुला! श्रीजी की कृपा है, सब ठीक है। जूनियर कक्षा में जब पहली दफा सूरदास जी का यह पद पढा तो दिमाग में विष्णु भगवान नहीं बल्कि कमलनयन भाई जी का मुखमंडल जीवित हो उठता था।

कमल नयन को छाड़ि महातम और देव को ध्यावै।


पुलिन गंग को छाँड़ि पियासो दुरमति कूप खनावै।


जिन मधुकर अम्बुज रस चाख्यो क्यों करील फल खावै।

सूरदास प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै।।” 


गांव में बेटी -भुलियों को प्यार करने का उनका यह प्रिय संबोधन होता था -“मरि जालि  भुली तू ..मर जालि तु भुली’ …

रात को चिलम क्लब की बैठक ताऊ जी हरिशरण जी बहुगुणा की तिबार होती थी। ताऊ जी हरिशरण जी के चिलम क्लब के सदस्यों में एक मेरे छोटे ताऊ जी थे, फिर भाई पीताम्बर दत्त बहुगुणा, कमल नयन जी बहुगुणा और गुणानंद जी बहुगुणा थे। हरिशरण ताऊ जी हमारे गांव सभा के पहले प्रधान निर्वाचित हुए, उनके कार्यकाल  में हमारे गांव में पहली बार पानी की पाइपलाइन बिछी.




सुल्फा क्लब की बैठक की बहस कभी हमारी संसद में सत्तापक्ष और विपक्ष की नोक झोंक से भी उग्ररूप धारण कर लेती थी, लगता था कल से ये लोग नहीं मिलेंगे, लेकिन दूसरे दिन वह आवेग ठंडा हो जाता, तब ताऊ हरिशरण जी बोलते -हला कमलु बणौं दौं बेटा एक चिलम, आज जरा वायु कु बेग बढ्यूं छ। और जैसे ही चिलम की सोड़ मारते वे अपने पृष्ठभाग को किंचिद ऊपर उठाकर भयंकर विस्फोट के साथ वायु विमोचन करते, इस ध्वनि वादन में अगले संगतकार भाई पीताम्बर दत्त जी भी होते.

एक बार गांव में अभिमन्यु नाटक का म़चन हुआ था जिसमें द्रोणाचार्य की भूमिका में भाई कमल नयन जी, शिव जी का अभिनय भाई पीताम्बर दत्त जी ने किया, जयद्रथ की भूमिका भाई रामप्रसाद जी बहुगुणा, कृष्ण की भूमिका में पंडित श्री ऋषिराम  जी मुसैड़ा, अर्जुन की भूमिका में बंचू भाई जी (स्व0  हर्षमणि सकलानी) और युधिष्ठिर की भूमिका मेरे पिता जी ने निभाई थी और दुर्योधन का पार्ट स्व० शक्ति प्रसाद जी ने अदा किया। उपरोक्त सभी कलाकारों में अब कोई जीवित नहीं है।  लेकिन एक किस्से का बयान किये बिना यह कहानी अधूरी रहेगी।

नाटक के अंतिम दिन राजतिलक का रिवाज भी था जिसमें युधिष्ठिर को राजतिलक मिलता था लेकिन दुर्योधन के पात्र स्व० शक्तिप्रसाद बहुगुणा जी के पिता जी स्व० ताऊजी केशवानंद जी बहुगुणा ने जिद पकड़ ली कि, राजतिलक मेरे बेटे शक्ति को ही दिया जाय- नहीं तो मैं आत्महत्या कर दूंगा। सारा गांव जुट गया उनको मनाने में उन्होंने किसी की नहीं मानी -केशवानंद जी ताऊ जी ने मेरे पिता जी को अपने ओबरे में बंधक बनाकर कैद कर लिया जो केशवानन्द जी का विरोध कर रहे थे, आखिर काम आये पंडित गिरधारीलाल जी रतूड़ी, रत्वाड़ी वाले ताऊजी, जो उन्हें मनाने में सफल हुए और पूर्व योजना के अनुसार राजतिलक युद्धिष्ठिर यानी मेरे पिता जी को ही दिया गया था.

लेखक किस्सागोई हैं.