जमुना (यमुना) तीर्थ हरिपुर
के. एस. चौहान
हिमालय के प्रमुख तीर्थ स्थलों में जौनसार बावर के तलहटी अर्थात जौनसार के आंगन में बसा एक पौराणिक शहर हरिपुर जो रामायण काल (यामुन देश) से हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए बहुत महत्व का रहा है। जिसको महाभारत काल में कुलिंद एवं वर्तमान में जौनसार बावर के नाम से जाना जाता है। हिमालय की दो पवित्र एवं विशाल नदियाँ दो प्रमुख घाट बनाती है, जिसमें गंगा जी का प्रमुख तीर्थ हरिद्वार है उसी प्रकार यमुना का प्रथम घाट हरिपुर है। भीहड़ मार्गो से चलते हुए यमुना मैदान की ओर प्रवाहवान होती है। यात्रियों की सुगमता के दृष्टि से प्राचीन काल में विश्वभर के तीर्थ यात्रियों का मोक्ष एवं तीर्थ स्थल के रूप में हरिपुर विश्व विख्यात था जहां विश्वभर के तीर्थ यात्री हरिपुर आते थे। हरिपुर में चार नदियों का पवित्र संगम बनता है जिसमें यमुना अमलावा, (उप नदी) नौरा (उप नदी) एवं टौंस (तमसा) नदी सम्मिलित है। जिस कारण यह क्षेत्र पवित्र एवं यज्ञ क्षेत्र कहलाया, जिसकी परिधि लाखामण्डल क्षेत्र तक है।
हरिपुर की पवित्रता एवं महत्त्व को देखते हुए विश्व विजयी राजाओं ने यहां अश्वमेघ यज्ञ भी सम्पन्न किये, जिसको भारतीय पुरातत्व विभाग संरक्षित कर प्रमाणित करता है। जिसमें जगतग्राम में-गरुड़ आकार की तीन अश्वमेघ यज्ञ वैदिकाएं प्राप्त हुई है तथा अम्बाडी ग्राम में भी एक अश्वमेघ की इतिहासकारों में चर्चा होती है जो शोध का विषय है। पुराणों में इस क्षेत्र को ‘हरी’ क्षेत्र कहा गया है। हरिपुर का यह तीर्थ कुलिंद राज्य के साथ साथ कुलुथ (कुल्लू) एवं त्रिगत (कांगड़ा) के लिए भी विशेष महत्व रहा है। चार नदियों का संगम व जल क्षेत्र होने के कारण यह स्थान तीर्थ स्थल के साथ साथ जलमार्ग से व्यवसाय का भी बड़ा केंद्र था, जिसका व्यापार हरिपुर से चीन व तिब्बत तक किया जाता था। तिब्बती व्यापारी को हुंणिया व्यापारी कहा जाता था।
पता नही काल का ऐसा कौनसा थपेडा आया कि उसने विश्व प्रसिद्ध तीर्थ नगरी हरिपुर का प्रसिद्ध शहर उजाड़ दिया, जबकि अपनी यात्रा वृतांत में यु-वान-चाँग ह्वेनसांग ने वैभवपूर्ण हरिपुर का वर्णन किया है। ह्वेनसांग हरिपुर में साहित्य अध्यन के लिए एक ऋतुकाल तक रुखे थे, जबकि वह एक माह से अधिक अन्यत्र किसी स्थान पर नही रुखे। उन्होंने अपने यात्रा वृतांत में उल्लेख किया है कि हरिपुर में दर्शनों बौद्ध मठ, गुरुद्वारे एवं मंदिर थे। मतावलंबियों का यहाँ विशेष महत्व था, जिसका प्रमाण “अशोक की लाठ“ एवं बुद्ध पुरी ग्राम के रूप में आज भी विद्यमान है। कल्प ऋषि के लिए यह स्थान तीर्थ के रूप में था। कल्प ऋषि का मंदिर भी यमुना किनारे अवशेष के रूप में विद्यमान है। मान्यता यह भी है कि इसी स्थान पर कलपमापी से मिलने, गुरु गोविन्द सिंह स्वयं हरिपुर आये थे, और धर्म चर्चा के लिए ऋषि को अपने साथ पौंटा साहिब ले गये थे।
जिस प्रकार से वर्ष 2013 में केदारनाथ आपदा के कारण रामबाड़ा का अस्तित्व समाप्त हो गया। आज जमुना जी के बांई ओर आबाद ग्राम बाड़वाला पुनः आबाद हुआ है। तदसमय की बाड़/आपदा आने के कारण इस नगर का अस्तित्व समाप्त हुआ और इस ग्राम/कस्बे का नाम बाड़वाला पड़ा। इसी ग्राम में अश्वमेघ यज्ञ की वेदिकाएं है। तिब्बत के लिए व्यापार की दृष्टि से यह स्थान बहुत उपयोगी था। वस्तु विनिमय के माध्यम से अन्य देशों के साथ, व्यापार होता था। तिब्बत से स्वर्ण चूर्ण एवं रांगा का आयात तथा नमक एवं खाद्यान का निर्यात किया जाता था। आयात एवं निर्यात का सामान बकरियों की पीठ पर (अजमार्ग) लादकर किया जाता था।
गंगा मार्ग पर शंकराचार्य जी के जाने के कारण जिन स्थानों पर नदियों के संगम बने है वह प्रयागों के नाम से विख्यात हुए तथा धार्मिक महत्ता के कारण जाने जाना लगा, लेकिन जमुना मार्ग की ओर बाढ की विनाश लीला के कारण तथा हरिपुर के घाटों तथा शहर का अस्तित्व समाप्त होने के कारण ऋषि-मुनियो का आगमन नही हुआ। कारण हरिपुर का स्थान ओजल ही रहा, जबकि यहां पर कभी विशाल घाट होते थे। कृष्ण के मथुरा छोड़ने के बाद कुछ यादवगण जमुना जी की ओर आये जिन्होंने सैहपुर (सहसपुर ) सिंगवर्मन नाम से राज्य स्थापित किया। उन्हीं में से शीलवर्मन राजा ने ईसा पूर्व 300 वर्ष जगतग्राम बाङ्वाला (हरिपुर के निकट), अश्वमेघ यज्ञ किया। उसी कुल में पैदा हुई राजकुमारी ईश्वरा जिसका विवाह जालंधर नरेश से हुआ था। जालंधर नरेश क़ी मृत्यु वर्तमान बाड़वाला में ही (जलालिया) हाथी से गिरकर हुई थी। अपने पति के याद में ही रानी ईश्वरा ने लाखामण्डल का मंदिर बनवाया।
जमुना एवं हरिपुर का महत्व इससे भी सिद्ध होता है कि कृष्ण की चौथी पटरानी के रूप में जमुना जी का नाम आता है। जमुना जी हरिपुर में बालरूप में प्रवाहवान है। भागवत पुराण के अनुसार कृष्ण ने जमुनाजी को वचन दिया है कि वह कलयुग में प्रत्येक श्रावण मास में जमुना से मिलने हरीक्षेत्र (हरिपुर) में आयेंगे ऐसी मान्यता है कि श्रावण मास में उफनती जमुना जी मैं आज भी नौमत (नगाड़ो की आवाज) सुनाई देती है। महाभारत में यह स्थान जमुना जी का उपनाम कालिंदी के कारण कुलिंद कहलाया। बाद में सिरमौर रियासत का यह प्रमुख केन्द्र रहा तथा लगभग 200 वर्ष तक राजधानी के रूप मैं कालसी (हरिपुर) विख्यात रहा। जैसे गंगा का प्रवेश द्वार हरिद्वार है। उसी तरह हरिपुर जमुना जी के स्रोत प्रदेश का प्रवेश द्वार है अर्थात यमनोत्री का प्रवेश द्वार है। हरिपुर जौनसार-बावर का भी प्रवेश द्वार है। यह भी माना जाता है, कि जौनसार बावर एवं रंवाई, जौनपुर के आँगन को निर्मल करते हुए जमुना जी देश की ओर आगे बढ़ती है।
नदियों को मार्ग बनाते हुए यह संगम क्षेत्र द्विमार्गीय हो जाता है। एक मार्ग जमुना जी के सापेक्ष यमनोत्री की और तथा दुसरा मार्ग टोंस नदी से होते हुए त्यूनी, हनोल महासू मंदिर की ओर जाता है। मान्यता है कि जमुना जी के मार्ग की ओर ऋषिगण एवं देवत्व का गमन हुआ तथा टौंस की ओर राक्षस तत्व गया, जिनमें किरमिर नामक राक्षस के द्वारा नाना प्रकार के कष्ट मनुष्यों को दिये गये। इससे मुक्ति के लिए सिद्ध ब्राह्मण हूँणा भाट के सहयोग से महासू देवताओं का आहवान किया गया। अर्थात महासू देवताओं को लाया गया। महासू देवताओं के आगमन से हनोल सिंद्ध पीठ तीर्थ के रूप में स्थापित हुआ। किरमिर राक्षस का वध हुआ तथा महासू देवताओं की जौनसार बावर में सत्ता स्थापित हुई ।
जौनसार बावर का संबंध पाण्डव काल से भी रहा है महाभारत के सभापर्व एवं वनपर्व में उल्लेख मिलता हैं कि अज्ञातकाल में भगवान वेदव्यास जी पांडवो से मिलने तीन बार जौनसार बावर (तत्कालीन कुलीन देश) आये थे। कुल्लु से हाडकोटी एवं हनोल तथा कथियान के मार्ग से गोराघाटी लाखामण्डल होते हुए केदारनाथ गये थे। भटाड़ गांव में (लाखामण्डल के समीप) केदारनाथ जी का मंदिर है, जो केदारनाथ धाम में स्थापित मंदिर की ही शैली का है। केदारनाथ गमन से पूर्व लाखामंडल तीर्थ स्थल पर (जहाँ त्रिवेणी बनती हैं) पांडवो ने अज्ञात वास पर कई दिन लाखामण्डल में व्यतीत किये, जो शिव नगरी के रूप में विख्यात हैं तथा असंख्य शिवलिंग के साथ विद्यमान हैं। जौनसार बावर के इतिहास के संबंध में इतिहासकार मानते है कि जौनसार बावर का इतिहास एवं संस्कृति उतनी ही पुरानी है जितनी जमुना जी की संस्कृति प्राचीन है।
हरिपुर के समीप प्रमुख तीर्थ स्थल
1. देवथला (कट्टापत्थर) हरिपुर के बांये तट पर लगभग 3 किमी पर स्थित देवी का पौराणिक मंदिर स्थापित है।
2. अश्वमेघ यज्ञस्थल: हरिपुर से देहरादून की ओर 2 किमी की दूरी पर स्थित जगतग्राम में पुरातत्व महत्व की तीन अश्वमेघ यज्ञ वेदिका स्थापित है।
3. अशोक का शिलालेख: हरिपुर से चकराता की ओर 1 किमी की दूरी पर कालसी में सम्राट अशोक, का विश्व प्रसिद्ध शिलालेख ईसा से 250 वर्ष पूर्व से स्थापित है।
4. कालसी: हरिपुर से 1 किमी कि दूरी पर चकराता की ओर एक प्राचीन वैभव सम्पन्न नगर जिसका उल्लेख अखंड भारत के मानचित्र पर किया गया है, जो वर्तमान नवीन संसद के भवन पर उल्लेखित हैं।
5. कल्प ऋषी का मंदिर: हरिपुर से चकराता की ओर 2 किमी की दूरी पर कल्प ऋषी का मंदिर है, जिसको वर्तमान में ठाकुरद्वारा के नाम से जाना जाता है।.
6. व्यासनगर: हरिपुर से 500 मीटर की दूरी पर स्थित जिसको वर्तमान में व्यासभूड़ के नाम से जाना जाता हैं । मान्यता हैं की हरिपुर यात्रा के समय वेदव्यास जी भी यहां रुके थे तथा कुछ समय के लिए उनकी यह साधना स्थली रही है।
7. गंगबेवा: हरिपुर से देहरादून की ओर 7 कि.मी. पर स्थित भीमावाला में प्रसिद्ध गौतम ऋषि का आश्रम जहाँ भूमिगत गंगाजल का पवित्र कुंड है। जहाँ पर अभी भी बैसाखी पर 7 दिन का ऐतिहासिक अनुष्ठान होता है।
हरिपुर के समीप उपरोक्त स्थल प्राचीन सनातन धर्म के केन्द्र रहे है। पुराणों में इसे हरी क्षेत्र कहा गया है। आज इसके निकट विभिन्न धार्मिक स्थल जैसे हनोल, मैन्द्रथ, ठडियार, लाखामण्डल, कालसी, जगतग्राम आदि प्रमुख धार्मिक स्थल सनातन संस्कृति को संरक्षित किये हुए हैं । प्राचीन समय में चारधाम यात्रा का यह प्रमुख एवं प्रथम स्थान था। इसी स्थान से प्राचीन काल से चारधाम की यात्रा प्रारम्भ होती थी। सनातन मान्यता के अनुसार हरिपुर में जमुना स्नान के बाद ही चारधाम यात्रा पूर्ण मानी जाती थी। मथुरा से तीर्थ यात्री हस्तिनापुर कुरुक्षेत्र होते हुए यात्री हरिपुर आते थे। सनातन धर्मावलंबियों की मान्यता है कि गंगाजल की तरह जमुना, जल को लेने के लिए कांवड़ यात्रियों की तरह ही श्रदालुगण जमुना जल को लेने के लिए हरिपुर तीर्थ आते थे।
हरिपुर की सनातन संस्कृति एवं ऐतिहासिक महत्व को ध्यान में रखते हुए सांस्कृतिक, धार्मिक, पर्यटन एवं रोजगार सृजन के उद्देश्य से हरिपुर में निम्न लिखित कार्य कराये जा सकते हैः-
1. हरिपुर में हरिद्वार की तर्ज पर घाटों का निर्माण।
2. हरिपुर जमुना नदी पर “जमुना जी“ के भव्य मंदिर की स्थापना।
3. हरिपुर घाट पर हरिद्वार की तर्ज पर जमुना जी की आरती।
4.जौनसार बावर, जौनपुर रवाईं के कुल देवताओं का कुंभ स्नान।
5. कुंभ मेले की तर्ज पर हरिपुर में प्रत्येक छः वर्ष में सरकार के सहयोग से विशाल धार्मिक मेले का आयोजन।
6. उत्तराखण्ड की चारधाम यात्रा के यमनोत्री तीर्थ के लिए हरिपुर से यात्रा का प्रारम्भ।
7.प्राचीन धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थल ‘‘हरिपुर धाम’’ का पुर्ननिर्माण।
8.हरिपुर के निकट सभी धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थलों का जीर्णोद्वार।
9. कांवड़ यात्रा का विस्तार यमुना अर्थात हरिपुर तक किया जाय।
हरिपुर तीर्थ स्थल के पुननिर्माण से सनातन संस्कृति का प्रचार-प्रसार तीर्थटन को बढ़ावा, सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण, ऐतिहासिक स्थलों के महत्व को पुनर्जीवित करने के साथ ही इन सभी कार्यों से हजारों लोगो के लिए रोजगार के अवसर सृजित होंगे तथा स्थानीय स्तर पर पर्यटन व तीर्थाटन को भी बढ़ावा मिलेगा।
आलेख सौजन्य से – लोक पंचायत