जिस मुंह से मैने राजा को नमस्कार कर लिया
गोविन्द प्रसाद बहुगुणा
“जै बिड़ा मैं रज्जा लौं शेवा…” (जिस मुंह से मैने राजा को नमस्कार कर लिया ..)
अपने पटवारी भाई जी स्व० विश्वम्भरदत्त जी बहुगुणा बहुत ही दिलचस्प इंसान थे, उनके पास बैठ जाओ तो उठने का मन नहीं करता था। एक दिन वह मेरी मां से मिलने आये तो हमारी तिबार में गप- शप का जो दौर चला तो मैने उन्हें कोई किस्सा सुनाने के लिए आग्रह किया। वै मेरे निवेदन को कभी टालते नहीं थे, वे बड़े अध्ययनशील व्यक्ति थे। बाल्मीकि रामायण के कई श्लोक मुखाग्र थे, तो खैर सुनिए एक किस्सा.
जै बिड़ा मैं रज्जा लौं शेवा तै बिड़ा तुमु कु लौं ? “- सामंतशाही के जमाने में तत्कालीन टिहरी गढ़वाल रियासत में स्थित उत्तरकाशी जिले के रंवाई क्षेत्र से एक ग्रामीण राजा से भेंट करने टिहरी दरवार गया I जब वह वापस अपने गांव आया तो उसने अपने लोगों को दुआ सलाम करना ही बंद कर दिया, क्योंकि राजा का हुकुम था कि मेरे अलावा तुम्हें अब किसी को नमस्कार करने की जरूरत ही नहीं है. तो उस भले आदमी ने राजा के उक्त आदेश का अक्षरशः पालन करते हुए, अपने लोगों से बोलना शुरू कर दिया कि – ” जै बिड़ा मैं रज्जा लौं शेवा तै बिड़ा तुमु कु लौं ? ” अर्थात जिस मुह से मैंने राजा को नमस्कार कर दिया उसी मुह से अब तुम्हें नमस्कार कैसे करूँ ? तो यह थी गुलामी की स्थिति उस जमाने की।
एक बहु प्रचलित किस्सा और भी है। पटवारी भाई जी टिहरी रियासत के समय भी पटवारी नियुक्त थेI उन्होंने बताया कि राजा के कुछ मुंह लगे और विश्वस्त पात्रों में एक ठाकुर “रणजोरसिंह थे, जो राजा की ओर से साल भर में एक बार गांव- गांव दौरे पर निकलता थाI वह नजराने के तौर पर गांव के किसानों से फसल पात के समय उनके उत्पादन का एक हिस्सा- जैसे कोई भी दुर्लभ धान् , घी, दाल आदि एकत्रित कर ले जाता थाI उस सामान को उसके घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी गांव के “सयाणे ” या मालगुजार की होती थी। यह बेगार प्रथा काफी समय तक चली। जब गांव के लोगों में बेगार ढोने वालों की कमी पडती उस गांव के सयाणे को भी बेगार ढ़ोने की नौबत आ जाती थी। रणजोर सिंह किसी गांव में कैंप किये हुए था तो उसने उस गांव के मालगुजार को तलब करके, उसको सारा सामान उसके घर पहुँचाने का हुकुम सुना दियाI उस गांव में उपलब्ध बेगारी लोग कम पड़ रहे थे तो मालगुजार को ही स्वयं बेगार ढोने रणजोर सिंह के गांव तक जाना पड़ा I
रणजोरु के गांव तक पहुँचते- पहुँचते रात हो गई थी, तो रणजोर सिंह ने अपने घर की निचली मंजिल में पशुओं के बाड़े में उन बेगार ढोने वाले लोगों को रात बिताने के लिए कहा I मजबूरी थी तो बेचारे सभी बेगारी लोग पशुओं वाले ओब्रे में एक किनारे लेट गये I रात के खाने में रणजोर सिंह के नौकर ने उन लोगों को मोटे सूखे “टिक्कड” (मोटी रोटियां) और मारछे का साग (हरी सब्जी) दिया तो थकान और जलालत से आहत मालगुजार के मुँह से ये शब्द निकल गए कि – ” ऐसा खाना तो मेरा कुत्ता भी नहीं खायेगा “I नौकर ने हूबहू वही वाक्य अपने मालिक रणजोर सिंह को सुना दिया I अगले दिन सुबह रणजोर सिंह के सामने मालगुजार की पेशी लग गई I रणजोर सिंह ने उससे कहा कि अपना कुत्ता बुलाकर ले आ I मालगुजार ने लाख कोशिश की रणजोर सिंह को शान्त करने की लेकिन वह नहीं माना और उसने माल गुजार का कुत्ता मंगवाकर ही माना I
कुत्ता आया तो उसके सामने रणजोरू के नौकर ने फिर वही टिक्कड”और साग खाने के लिए रख दिया लेकिन कुत्ते ने खाया नहीं I रणजोरू ने मालगुजार से कहा कि अपने कुत्ते को रोटी खाने को बोलो बोलो I मालगुजार ने अपने कुत्ते को संकेत में “शू शू ” कहा तो कुत्ते ने उन रोटियों को खाने के बजाय उस थाली में मूत दिया I इस दृश्य को रणजोर सिंह सहित सभी लोग देख रहे थे I सभी हतप्रभ थे कि अब क्या होगा I रणजोर सिंह के लिए यह अपमान सहन करना कठिन हो गया, सबके सामने I उसने अपने नौकर से मालगुजार के कपडे उतारने के लिए कहा I फिर मालगुजार के नंगे शरीर पर कोड़ों की बारिश होने लगी, कोड़ों की मार से अधिक पीड़ा मालगुजार को अपने अपमान के कारण पीड़ा हो रही थी वह जोर से चिल्लाने लगा -“हाय रणजोरू !!! हाय रणजोरू!!! ” यह कहते- कहते अगले दिन उसका प्राणान्त ही हो गया I
तो यह थी टिहरी रियासत की राजशाही के जुल्म की एक कथा I यह हो सकता है कि इसमें कुछ अतिशयोक्ति भी हो लेकिन दमन की कथा का साक्षात् प्रमाण तो अमर शहीद श्रीदेव सुमन की मौत है I फिर तो मुझे रणजोर सिंह की कथा सत्य ही प्रतीत होती है I