खैट पर्वत यात्रा – 04
डॉ. अरुण कुकसाल
8 जून, 2023
कोल गांव के विद्यादत्त पेटवाल जी गढ़वाल मण्डल विकास निगम से क्षेत्रीय प्रंबधक पद से सेवा-निवृत हैं। स्वाभाविक है कि, उत्तराखण्ड में तीर्थाटन और पर्यटन क्षेत्र का उनके पास व्यवहारिक गहन अनुभव है। नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के बाद पैतृक गांव में आकर वे और उनकी धर्मपत्नी खेतीबाड़ी और फलोत्पादन में व्यस्त रहते हैं। एक बड़े क्षेत्र में उन्होने कई फलदार वृक्षों को लगाया है। बुजुर्ग पति-पत्नी अपने घर के एक खूबसूरत हिस्से में होम स्टे भी संचालित कर रहे हैं। इसके साथ ही, सामाजिक सरोकारों में उनकी सक्रियता है। खैट पर्वत पर आजकल आयोजित देवी भागवत कार्यक्रम के वे संयोजक भी हैं।
सुबह की चाय के साथ इस क्षेत्र के कई स्थानीय विषयों पर पेटवाल जी से चर्चा होती है। हमें खैट की ओर जल्दी जाना है, इसलिए स्वाभाविक है कि, उनसे बातचीत संक्षिप्त ही हो सकती है। कल रात पेटवाल जी की सलाह पर मित्रों में यह तय हुआ था कि कोल गांव से खैट पर्वत के लिए हर हालत में सुबह 5 बजे प्रस्थान कर देना है। पर निकलते-निकलते कोल गांव में ही सुबह के 6 बजे बज गए हैं। यहां से 1 किमी. दूर भटवाडा गांव तक गाड़ी से पहुंचना है। भटवाडा से ये वाली मोटर सड़क 35 किमी. दूर घनसाली की ओर है। पीछे छोड़ आये जाखधार यहां से 20 किमी. दूर है।
भटवाड़ा से खैट पर्वत की ओर पैदल यात्रा शुरू हुई है। खैट पर्वत भटवाडा से पैदल 7 किमी. है। भटवाड़ा गांव के ऊपरी हिस्से की ओर नई सड़क निर्माणाधीन है, जो कि खैट पर्वत की ओर खैटखाल तक जानी प्रस्तावित है। तब, खैटखाल से खैट पर्वत का मां भगवती मन्दिर मात्र 2 किमी. पैदल रह जायेगा। ‘सब, अपने पास पानी की बोतल भर कर रख लो। पीने का पानी, इस पूरे पैदल रास्ते में कहीं नहीं मिलेगा।’ मैं यात्रा साथियों को अपने अभिभावकीय दायित्व निभाने के बतौर कहता हूं।’ ‘ताज्जुब है कि बांज-बुरांस से लदे इस पहाड़ में जल श्रोत्र बिल्कुल नहीं है।‘ भूपेन्द्र का कहना है।
‘इस पहाड का ऊपरी हिस्सा कठोर चट्टानी होने की वजह से वहां जल श्रोत्र नहीं होगें। परन्तु बांज-बुरांस से संचित इस पहाड़ की जड़ों में पानी के श्रोत्र भरपूर हैं। देख रहे हो, इस पहाड़ की तलहटी पर बसे गांवों के चारों ओर सिंचित खेती नजर आ रही है।’ सीताराम धारे से पानी की बोतल भरते हुए अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए चौंड, कोल और भटवाड़ा गांव के खेतों की ओर इशारा भी कर रहा है। भटवाड़ा गांव की ऊपरी धार से खैट पर्वत और उसके आस-पास की चोटियां फन उठाये नागराज जैसी दिख रही हैं। भटवाडा गांव से खैट पर्वत के पूर्वी हिस्से के दो शिखरों के बीच लम्बी-चौड़ी यू आकार की घाटियां दिखाई दे रही है। खैट पर्वत के इन शिखरों पर पहुंचने के लिए इन्हीं घाटियों से होकर हमें जाना है।
कई पतली-पतली रेखायें तीखे निशान की तरह इन घाटियों और चोटियों की ओर हैं। अलग-अलग गांवों और क्षेत्रों के लोगों के अपनी सुविधानुसार खैट पर्वत आने-जाने वाली ये पगडण्डियां है। ये पर्वत इतना तीखा है कि इसकी सबसे ऊपरी चोटी से एक सीधी रेखा खीचीं जाय तो उस रेखा का दूसरा छोर इसके तलहट में प्रवाहित भिलंगना नदी में ही जाकर मिलेगा। ‘इधर-उधर बिखरे भीमकाय पत्थरों के बीचों-बीच ये चढ़ता तीखा रास्ता मनुष्यकृत कम प्राकृतिक अधिक है। जैसे प्रकृति ने ही इन्हें यहां रास्ते के लिए फिट किया हो। ये पत्थर सामान्य पत्थरों ज्यादा आकर्षक हैं। चमकीले इतने हैं कि दिन के साथ रातों को भी दूर से चमकते होंगे।’ मैं विजय से कहता हूं।
‘बिल्कुल सही कहा आपने, ऐसा लगता है कि प्रकृति ने स्वयं इन रास्तों को ये रूप दिया है। आदमियों को इनको रास्ते के अनुकूल बनाने में ज्यादा कारीगरी नहीं करनी पड़ी होगी।’ विजय ने कहा है। ‘हां, लगता तो ऐसा ही है। कहते हैं कि, इन्हीं पगडण्डियों से आंछरियां भिलगंना नदी पानी पीने आती हैं। क्योंकि, वन देवियों के इस क्षेत्र में पानी का कोई अन्य श्रोत्र नहीं है।’ मैं कहता हूं। ‘यार भैजी, उनके बारे में मत बोलो, एक तो थकान लग रही है और दूसरी तरफ आप उनकी बात करके डरा भी रहे हो। नाम लेने पर कहीं वो आ ही न जांए।’ राकेश ने तुनकते हुए कहा है। ‘तब आकर वो कहेंगी कि आप ही ने तो हमारा नाम लिया था। उसी से वशीभूत होकर हम आ गई हैं।’ सीताराम ने बात आगे बढ़ाई है।
‘मैं, किनकी बात कर रहा हूं, उनका नाम तो बताओ? और, कौन आ जायेगा? कहीं, तुम आंछरियों की बात तो नहीं कर रहे हो?।’ मैं साथियों से छेड़खानी की मुद्रा में हूं। ‘वैसे, आप ही ने तो बताया था कि वन देवियां हमारी धरम बहिनें होती हैं, फिर वे हमें क्यों नुकसान करेंगी। विजय ने मेरे पक्ष में यह बोला है। ‘जीतू बगड्वाल ने भी तो उन्हें धरम बहिन बोल कर अपने प्राण बचाने की प्रार्थना की थी। पर वो कहां मानी, आखिर में, उसका अपहरण कर ले गई थी।’ भूपेन्द्र ने कहा है। इस पूरे वार्तालाप में राकेश बस, मुस्करा ही रहा है। बाकी, उसकी फूलती सांसों की धौंकती आवाज ने बता दिया है। वैसे भी, पहाड़ में लम्बी चढ़ाई चढ़ते हुए दूसरों से कम और अपनी फूलती सांसों से ज्यादा बातें होती हैं।
भटवाडा गांव से अभी 2 किमी. ऊपर पहुंचे हैं। यहां आते-आते सभी साथी छिटक गए हैं। इस धार पर पहुंच कर रास्ते के किनारे बनी बैंचों पर एक-एक कर आते हुए सभी पसर रहे हैं। शुरुआती रास्ते से ही हमारे आगे-पीछे अपनी सामान्य चाल चलती हुई महिलाओं और युवतियों की एक टोली पहले से ही यहीं पर विश्राम कर रही हैं। नजदीकी भटवाड़ा गांव की वे हैं। इस धार पर पहुंच कर उन्होने सबसे पहले पीछे के रास्ता चलते-चलते काटी हुई घास की कई पूलियां (छोटे गठ्ठर) इस धार के ऊपरी हिस्से में संभालकर रखा है। जिस धार में हम विश्राम करने बैठें हैं, उसके ठीक सामने वाली धार पर भी कुछ महिलायें घास काटने के बाद उसे पूली बना कर रास्ते के ऊपरी ओर रखती जाती हैं और फिर आगे की ओर बढ़ रही हैं। जहां कहीं उन्हें अच्छी घास दिखती है तो उसे काटने के लिए रुक जाती हैं। यह सिलसिला शुरुआती रास्ते से ही इस ओर भी है और उस ओर भी है।
जिज्ञासावश, हमसे कुछ ही दूर बैठी महिलाओं से जब मैंने इस बारे में जानना चाहा तो एक ने बताया कि- ‘ये तो हमारा रोज का ही रास्ता है। घास-लकड़ी लेने हम इसी ओर आते हैं। आज खैट पर्वत में हो रही देवी भागवत को सुनने जा रही हैं। पर घर पर बंधे जानवरों के लिए आज के घास-पात की भी तो व्यवस्था करनी है। इसलिए, खैट मन्दिर की ओर जाते हुए जगह-जगह पर घास काट कर उसकी पूलियों को रख रहे हैं। आते समय, संभाल कर रखी इन घास की पूलियों का पूरा एक गठ्ठर सिर पर रख कर वापस हम घर जायेंगी।’ ‘परन्तु, आज तो आप लोग जात्रा पर हो, आज तो इस काम को रोक देती।’ सीताराम ने अपनी बात कही है।
‘हां भैजी, मन तो था, पर आज क्या हुआ घर पर मेरे? वो सुनो, मैंने जब अपनी सासजी से कहा कि आज मैं खैट पर्वत कथा सुनने जा रही हूं। तो उन्होने कहा कि आते हुए घास भी लेते आना। मैंने उनसे कहा कि आज तो मैं घूमने और पुण्य कमाने जा रही हूं। इसलिए, घास-पात नहीं लाऊंगी। तब मेरी सास ने कहा कि घर की भैंस, गाय और बैल भी अपने साथ घूमने ले जा ले। वो भी तुम्हारे साथ घूम भी लेंगी और पुण्य भी कमा लेगीं। घर पर उनके खाने के लिए तो कुछ है नहीं।’ वो महिला कहती भी जा रही है और हंसते भी जा रही है। उसकी देखा-देखी में हम- सबके चेहरों पर मुस्कान आ गई है।
‘तो क्या आज आप घास नहीं ले जाओगे?’ भूपेन्द्र उससे कह रहा है। ‘अरे भुळा (छोटा भाई), घास क्यों नहीं ले जाऊंगी? ये तो सास-बहु का आपसी मजाक था। वैसे भी, हम लोग जंगल से घर की ओर बिना घास-लकड़ी के कभी लौटते ही नहीं हैं।’ वो कहती हैं। ‘घर के गुठ्यार (जानवरों को बांधने की जगह) में जब भी जाओ तो जानवर मुहं उठा कर हमको तुरंत ऐसे देखते हैं कि क्या जो लायी होगी हमारे खाने के लिए। वो भी हमारे लिए बच्चे जैसे ही तो हुए।’ एक अन्य महिला ने इस बातचीत में कहा है। ‘ये बहिनें जो कह रही है उनके लिए ये रोज की दिन-चर्या की सामान्य सी बात है। यहां आना-जाना हमारे लिए घुमक्कड़ी है और इन बहिनों के लिए जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। हम जैसे, तथाकथित बुद्धिजीवियों और घुमक्कड़ों को पहाड़ी जन-जीवन की जीवटता की इस कथा-व्यथा के मर्म को समझना भी चाहिए और उसे सम्मान भी देना चाहिए।’ मैं अपने साथियों की ओर मुखातिब होकर कहता हूं।
भटवाड़ा गांव की ये सभी बहिनें अब हमारे साथ-साथ ही चल रही हैं। उनसे बातचीत का सिलसिला चलते-चलते भी जारी है। हमारे लिए रास्ते की चढ़ाई की विकटता बढ़ती जा रही है, पर उनके लिए यह रोज का आना-जाना है। इन बहिनों की दिन-चर्या से ज्यादा विकट यह रास्ता हो ही नहीं सकता है। रोज वो इन रास्तों को आसानी से नापती जो हैं। वास्तव में, पहाड़ी जन-जीवन की जीवंतता में यहां के पहाड़ों जैसी विकटता है तो उसको जीतने की जीवटता भी है। पहाड़ के खुले हिस्से से अब चारों ओर से पेडों और झााडियों से बंद रास्ते में हम चल रहे हैं। घने पेड़ों की टहनियों ने जगह-जगह पर प्राकृतिक झूले बनाये हैं। इनको देखकर मुझे मेघालय में स्थित Living Roots Double Decker Bridge की याद आ गई है।
सभी साथी, इन झूलों में झूलने के लिए लालायित हैं। बचपन जो याद आ गया सबको। ‘बल, बांदर बुढ्या भि ह्वै जाळु, त वु घिरमिण्डि खिळुण नि छौड़दु’ (बंदर अगर बूढ़ा भी हो जाय लेकिन वो उछल-कूद करना नहीं छोड़ता है।)’ राकेश ने मुझे झूले झूलते हुए लम्बी पेंग लेते देख कर कहा है। ‘यहां पर ज्यादा रुकना नहीं, क्योंकि यह जगह बाघ-भालू अर वण देवियों को सबसे प्रिय है। आस-पास के उड्यारों (गुफाओं) में वो अक्सर दिखाई देते हैं। आगे की धार पर राक्स देवता (राक्षस देवता) का मंदिर है। वहां पर पूजा के साथ विश्राम भी हो जायेगा।’ एक बहिन हमें सचेत करते हुए मुस्करा कर बता रही है।
यात्रा जारी है….
फोटो- विजय पाण्डे और सीताराम बहुगुणा
यात्रा के साथी-
विजय पाण्डे, भूपेन्द्र नेगी, सीताराम बहुगुणा, राकेश जुगराण